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शहीदों की स्मृतियों को संभाल कर रखने की जरूरत है

19 Dec 2023 12:25 PM GMT
शहीदों की स्मृतियों को संभाल कर रखने की जरूरत है
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कभी वह दिन भी आयेगा जब अपना राज देखेंगे/ जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा/ शहीदों के मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले/ वतन पै मरने वालों का यही बाकी निशां होगा. राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत ये पंक्तियां सुनने में ही नहीं, गाने और गुनगुनाने में भी अच्छी लगती हैं. लेकिन …

कभी वह दिन भी आयेगा जब अपना राज देखेंगे/ जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा/ शहीदों के मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले/ वतन पै मरने वालों का यही बाकी निशां होगा. राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत ये पंक्तियां सुनने में ही नहीं, गाने और गुनगुनाने में भी अच्छी लगती हैं. लेकिन जैसे-जैसे आजादी की उम्र बढ़ रही है, हमारी सामाजिक कृतघ्नता उसे हासिल करने में शहीदों के योगदान को इस कदर भुला दे रही है कि उससे क्षुब्ध लोग पूछने लगे हैं- शहीदों के मजारों पर लगेंगे किस तरह मेले? स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारियों के प्रसिद्ध काकोरी ट्रेन एक्शन को लेकर 19 दिसंबर, 1927 को गोरखपुर, फैजाबाद और इलाहाबाद की जेलों में शहीद हुए रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफाकउल्ला खां और रोशन सिंह के शहादत दिवस पर उनके शहादत स्थलों पर लगते आ रहे ‘मेले’ दम तोड़ते जा रहे हैं. गोंडा की जेल में इन तीनों से दो दिन पहले 17 दिसंबर को सूली पर लटका दिये गये राजेंद्रनाथ लाहिड़ी का शहादत स्थल भी इसका अपवाद नहीं है.

प्रसंगवश, जब धन की कमी क्रांतिकारी आंदोलन के आड़े आने लगी, तो क्रांतिकारियों ने तय किया कि वे गोरी सरकार के उस खजाने, जिसे उसने देश की जनता को लूटकर इकट्ठा किया है, को लूट लेंगे. इसी निश्चय के तहत उन्होंने नौ अगस्त, 1925 को लखनऊ के पास काकोरी में रेलगाड़ी में ले जाया जा रहा सरकारी खजाना लूट लिया था. इससे अंदर तक हिल गयी गोरी सरकार ने मुकदमे का नाटक कर इसके चार नायकों- बिस्मिल, अशफाक, लाहिड़ी और रोशन को शहीद कर दिया था. पर आजादी के दशकों बाद तक किसी को उनकी स्मृतियां संजोने की जरूरत नहीं महसूस हुई. अशफाक के फैजाबाद जेल स्थित शहादत स्थल की बदहाली की ओर सबसे पहले 1967 में कुछ स्वतंत्रता सेनानियों का ध्यान गया. उन्होंने उसकी सफाई की और अशफाक के शहादत दिवस पर वहां मेले की परंपरा डाली. बाद में अशफाक की आवक्ष प्रतिमा की स्थापना के साथ ही यह मेला सामूहिक चेतना के उत्सव जैसा हो गया. गौरतलब है कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिषद स्वतंत्रता सेनानियों व उनके परिजनों के आर्थिक सहयोग से यह मेला लगाती थी. मेले का खर्च दूभर होने लगा तो मन मारकर उसने प्रदेश व केंद्र सरकारों से मदद की याचना की, जिसे अनसुना कर दिया गया. तब परिषद ने ऐसे नेताओं व मंत्रियों को मुख्य अतिथि बनाना शुरू कर दिया, जिनके आगमन के बहाने प्रशासन मेले का थोड़ा-बहुत प्रबंध करा दे. मगर यह सिलसिला भी लंबा नहीं चल सका. और परिषद ने हारकर मेले के आयोजन से खुद को अलग कर लिया. उसकी जगह अशफाकउल्लाह खां मेमोरियल शहीद शोध संस्थान ने मेले की जिम्मेदारी संभाली. लेकिन जिला व जेल प्रशासन के असहयोग के कारण कभी यह मेला लग पाता है, कभी नहीं.

उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने 2021 में 1.88 करोड़ खर्च कर ‘बिस्मिल’ के गोरखपुर जेल स्थित शहादत स्थल का कायाकल्प किया तो उम्मीद जागी थी कि अब वहां साल भर मेले का माहौल होगा. लेकिन ऐसा न हो सका. राजेंद्रनाथ लाहिड़ी खुशकिस्मत हैं कि उनके गोंडा जेल स्थित शहादत स्थल पर उनकी प्रतिमा स्थापित है. शहादत के बाद जहां उनका पार्थिव शरीर रखा गया और जिस बूचड़ घाट पर उनकी अन्त्येष्टि की गयी थी, वहां स्मारक, पार्क व समाधि आदि निर्मित हैं. लेकिन कई बार उनकी प्रतिमा को उनकी शहादत के दिन भी ठीक से दो फूल नसीब नहीं होते. इलाहाबाद की जिस मलाका जेल में रोशन सिंह की शहादत हुई थी, वह अब नैनी केंद्रीय कारागार में समाहित की जा चुकी है और उसके भवन में स्वरूपरानी मेडिकल कालेज संचालित है. इस कालेज के एक कोने में रोशन की प्रतिमा लगाकर उनके प्रति कर्तव्यों की इतिश्री कर ली गयी है. पर रोशन की प्रतिमा भी श्रद्धा के फूलों के लिए तरसती रहती है. अयोध्या, गोंडा, गोरखपुर और प्रयागराज जिलों में प्रायः मांग की जाती रहती है कि इन शहीदों के शहादत दिवसों- 17 व 19 दिसंबर- को सार्वजनिक अवकाश घोषित कर दिया जाये. देश या प्रदेश में ऐसा नहीं किया जा सकता, तो इन जिलों में ही अवकाश कर दिया जाये. मगर इस मांग की लगातार अनसुनी की जाती रहती है.

By कृष्ण प्रताप सिंह

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