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अपनी तरह के मार्गदर्शक फैसले ने आपराधिक जांच के दायरे से हिमाचल के पुलिस मुखिया और कांगड़ा की एसपी से उनका वर्तमान किरदार छीन लिया। माननीय हाईकोर्ट ने पालमपुर के व्यापारी की अरदास को सुनते हुए राज्य सरकार को दिशा निर्देश दिए हैं कि जांच प्रक्रिया की निष्पक्षता के लिए पुलिस महकमे के ओहदेदार परिदृश्य …
अपनी तरह के मार्गदर्शक फैसले ने आपराधिक जांच के दायरे से हिमाचल के पुलिस मुखिया और कांगड़ा की एसपी से उनका वर्तमान किरदार छीन लिया। माननीय हाईकोर्ट ने पालमपुर के व्यापारी की अरदास को सुनते हुए राज्य सरकार को दिशा निर्देश दिए हैं कि जांच प्रक्रिया की निष्पक्षता के लिए पुलिस महकमे के ओहदेदार परिदृश्य से हटाए जाएं। ऐसे कड़े निर्देश की वजह समझें तो यह कानून व्यवस्था के आलम में हिमाचल की शर्मिंदगी है। जिन परिस्थितियों में पालमपुर के व्यापारी को पुलिस से वास्ता पड़ा, उससे द्विपक्षीय मामले में सारी कानून व्यवस्था का तामझाम तार-तार हुआ है। कारोबारी निशांत के अपने निजी मसले, व्यापारिक क्लेश या कानूनी पेचीदगियां हो सकते हैं और उनके निपटारे के लिए अदालती प्रक्रिया और न्याय प्रणाली की अहम भूमिका सुनिश्चित है, लेकिन यहां यह व्यक्ति पुलिस प्रणाली के खौफ के सामने अपनी लाचारी-मजबूरी का जिक्र करता हुआ गुहार लगा रहा है कि उसे नाहक डराया-धमकाया जा रहा है। वह शिमला और कांगड़ा पुलिस के प्रमुखों से अपनी शिकायत दर्ज करवाता है। आश्चर्य यह कि एक ही राज्य में शिमला के एसपी और कांगड़ा की एसपी के बीच कानून की दृष्टि, एफ आई आर की कापी और संज्ञान बदल जाता है। आश्चर्य यह कि डीजीपी स्तर का टॉप ब्रास अधिकारी एक व्यवसायी को पंद्रह बार क्यों मिस्ड काल दे रहा है या उसके मातहत पालमपुर के अधिकारी क्यों निशांत पर दबाव डालकर संवाद करवाना चाहते हंै। क्या पुलिस की अदालतें अब राज्य की अपनी कानून व्यवस्था का दिशा परिवर्तन है। हम यह नहीं कहते कि निशांत का माजरा क्या है और इस मामले की परतें कितनी भोली, ईमानदार या वीभत्स हैं, फिर भी यह कतई नहीं मान सकते कि पुलिस महकमे का आला अधिकारी अपने प्रभाव को अदालत बनाकर, अदालत के बाहर खुद अदालत बन जाए।
कांगड़ा पुलिस मुखिया के रूप में एसपी महोदया ने कानूनी प्रक्रिया के आधारभूत ज्ञान को क्यों गिरवी रखा और किसके इशारे पर अपनी भूमिका के उज्ज्वल पक्ष को गौण कर दिया, यह संशय पैदा करता है। जाहिर तौर पर हाईकोर्ट के सख्त निर्देश के बाद सरकार को सख्त होना पड़ेगा। यह एक मामला नहीं, बल्कि राज्य की पुलिस मशीनरी का हुलिया है और चारित्रिक गिरावट भी। यह सुशासन की लोकतांत्रिक आस्था के बिलकुल विपरीत राज्य का अंधा और बहरापन है। अगर सुक्खू सरकार व्यापारी की प्राथमिक शिकायत पर ही कार्रवाई करती तो अदालत के लिए संदेह प्रकट करने की जरूरत नहीं होती। यहां हम पुलिस महकमे से इतर भी व्यवस्था को नाको चने चबाने पर मजबूर करने वाले कई अन्य विभागीय अधिकारियों की भूमिका पर प्रश्र चिन्ह लगाना चाहेंगे। यह राज्य अब भोला नहीं, बल्कि ऐसी मिली भगत का पर्याय है जहां चंद नेता, अधिकारी, नौकरशाह, मीडिया के लोग, ठेकेदार व कर्मचारी संगठनों के ओहदेदार व्यवस्था को अपने स्वार्थी इरादों की वसीहत में बदल रहे हैं। हिमाचल में प्रशासनिक, राजनीतिक व सामाजिक भ्रष्टाचार से एक अजीब सा नाता विकसित हो रहा है, जो विकास की अग्रिम पंक्ति पर निजी तौर पर वांछित उपहार पा रहा है। बिकती जमीनों के पीछे कितने अधिकारी सक्रिय हैं यह देखने के लिए पंजीकरण कार्यालयों में देर शाम तक की व्यस्तता को निहारें।
हिमाचल में हो रहे निवेश की गलबहियों में ऐसे ही संपर्कों की फांस है। स्थानांतरणों की पद्धति भी कई कार्यालयों की सहभागिता में फल फूल रही है, लेकिन कोई भी सरकार इसमें अपने व्यवस्था परिवर्तन के हुनर को आजमाना नहीं चाहती। अंतत: अगर अदालत को ही सुशासन सुनिश्चित करना है, तो हर नागरिक के लिए अपनी ईमानदारी में जी पाना मुश्किल होता जाएगा। एक साधन संपन्न व्यापारी तो इतनी हिम्मत कर सकता है कि वह उच्च अदालत के मार्फत कानून के संदर्भों का रक्षा कवच पहन कर अपनी आत्मा की पैरवी कर ले, लेकिन सामान्य आदमी तो जिला अदालतों तक भी पहुंचने के लिए प्राय: हिम्मत हार जाता है। उम्मीद है हाईकोर्ट के स्पष्ट आदेशों के आलोक में सुक्खू सरकार ऐसे अनेक सुराखों को भरने की दृष्टि से पुलिस व प्रशासन के अहम पदों की निगरानी करते हुए, प्रदेश की छवि बदलने का प्रयास करेगी। दो अधिकारियों ने अपने दायित्व के पंजे में कहीं हिमाचल का भोलापन फंसा दिया है। उम्मीद यह है कि अब आगे की जांच मामले से इतर उन कंद्राओं को भी खोज निकालेगी जहां राज्य के पुलिस प्रमुख को अपनी कचहरी जमानी पड़ी।
By: divyahimachal