सम्पादकीय

महाभारत का जीवन दर्शन

Gulabi Jagat
14 Dec 2023 1:23 PM GMT
महाभारत का जीवन दर्शन
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संजय इस उत्तर की गहराई को समझ गए। वे जीवन के दर्शन की इस नई व्याख्या को गहराई से समझ रहे थे। विचारों का झंझावत अब भी चल रहा था, नए विचार मन में आ-जा रहे थे, लेकिन दिमाग साफ था, दिमाग के जाले उतर चुके थे। यह स्पष्ट था कि जीवन को सफल बनाने के लिए हमारी दिशा क्या होनी चाहिए और हमारे प्रयत्न कैसे होने चाहिएं। विचारों से उबर कर संजय ने सिर उठाया ताकि वे उस दिव्य पुरुष को धन्यवाद दे सकें, लेकिन वहां कुछ नहीं था, बवंडर भी नहीं था, प्रकृति की शांति थी और सुहानी बयार थी। जीवन का सार उन्हें समझ आ गया था…

कुरुक्षेत्र का युद्ध समाप्त हो चुका था। पांडवों ने न केवल कौरवों पर विजय पा ली थी बल्कि वे पांचों भाई जीवित थे और सौ के सौ कौरव भाई मारे जा चुके थे। दुर्योधन का अंत सबसे बाद में हुआ जिसे भीम ने मारा और उसे मारना सचमुच बहुत कठिन साबित हुआ। दुर्योधन के अंत के साथ ही कौरवों का शासन समाप्त हो गया, परिवार समाप्त हो गया, अगली पीढ़ी पहले ही समाप्त हो चुकी थी और इस प्रकार कौरवों का अध्याय ही समाप्त हो गया। लेकिन कौरव परिवार से जुड़े दो पुरुष अभी भी बाकी थे। पहले तो धृतराष्ट्र जो आंख से अंधे होने के साथ-साथ पुत्र-प्रेम में भी अंधे थे और राजा होने के बावजूद उन्होंने दुर्योधन के किसी गलत पर ऐतराज नहीं किया, उस पर रोक नहीं लगाई और उसका परिणाम इस रूप में भुगता कि उनका सारा परिवार ही मृत्यु के मुख में चला गया और राजपाट भी जाता रहा। लेकिन दूसरे व्यक्ति का जिक्र कहीं अधिक आवश्यक है। संजय, जिन्होंने बिना युद्ध भूमि में गए दिव्य आंखों के माध्यम से धृतराष्ट्र को युद्ध का सारा हाल सुनाया था, अंतत: युद्धभूमि में जा पहुंचे। युद्ध समाप्त हो चुका था। चारों ओर केवल वीराना था। न कोई पूछने वाला, न कोई सुनने वाला, न सुनाने वाला। उन्होंने कुरुक्षेत्र की भूमि की ओर देखा और मन ही मन सोचने लगे कि क्या यह वही धरा है जहां इतना बड़ा युद्ध हुआ था जिसने केवल 18 दिनों के अंतराल में विश्व के तमाम पुरुषों को मृत्यु के मुख में झोंक डाला, क्या यहां सचमुच कभी युद्ध हुआ भी था, क्या इस धरती ने इतना खून सोख लिया है, क्या यह वही धरती है जहां धर्मराज युधिष्ठिर और उनके भाइयों ने भगवान कृष्ण की छत्रछाया में युद्ध लड़ा था और अपने हर विरोधी को मार गिराया था?

संजय असमंजस में थे। उन्हें कुछ नहीं सूझ रहा था। तभी उन्हें एक मद्धम-सी आवाज सुनाई दी। संजय ने मुड़ कर देखा तो ऐसा लगा मानो धूल का बवंडर उठा हो। बवंडर ने उन्हें घेर लिया और फिर एकदम से सब शांत हो गया। धूल के बवंडर में से एक दिव्य पुरुष दिखाई पड़ रहे थे। वे उम्रदराज लग रहे थे और शांतिपूर्ण आभा के साथ-साथ उनके चेहरे पर अनुभव की परिपक्वता भी नजर आ रही थी। ‘मुझे मालूम है कि तुम कुरुक्षेत्र के युद्ध के विषय के बारे में जानना चाहते हो, परंतु तुम ऐसा नहीं कर पाओगे जब तक कि तुम पहले यह न समझ लो कि युद्ध का असली कारण क्या है?’ दिव्य पुरुष ने कहा। संजय तुरंत समझ गए कि वे एक ऐसे दिव्य पुरुष के सम्मुख हैं जो युद्ध के बारे में किसी भी अन्य व्यक्ति से ज्यादा जानते हैं। उन्होंने उस दिव्य पुरुष को आदर से प्रणाम किया और पूछा, ‘कृपया जरा खुलासा करके बताएं कि आप क्या कहना चाहते हैं?’ दिव्य पुरुष ने गहरी मुस्कुराहट के साथ कहा, ‘महाभारत युद्ध जीवन का दर्शन है, और इस युद्ध में विजयी होना हमारा लक्ष्य है।’ संजय सोचने पर विवश हो गए। कई विचार और प्रश्न उनके दिमाग में उमड़-घुमड़ रहे थे। उन्होंने नम्रतापूर्वक दिव्य पुरुष से पूछा, ‘क्या आप कृपा करके बताएंगे कि वह जीवन-दर्शन क्या है?’ ‘हां, अवश्य’, दिव्य पुरुष ने कहा, ‘इसीलिए तो मैं आया हूं। अब ध्यान से सुनो। पांच पांडव और कोई नहीं तुम्हारी पांचों इंद्रियां हैं। आंखें जिनसे तुम देखते हो, कान जिनसे तुम सुनते हो, नाक जिससे तुम सूंघते हो, जीभ जिससे तुम्हें स्वाद का भान होता है और तुम्हारी त्वचा जिससे तुम स्पर्श करते हो। ये पांच इंद्रियां ही पांच पांडव हैं, लेकिन क्या तुम जानते हो कि कौरव कौन हैं?’ संजय ने इन्कार में सिर हिलाया तो दिव्य पुरुष ने जवाब दिया, ‘कौरव संसार में विद्यमान सौ बुराइयां हैं जो रोज तुम पर आक्रमण करती हैं। अच्छी बात यह है कि तुम इन बुराइयों से लड़ सकते हो, इनका मुकाबला कर सकते हो और इनका नाश कर सकते हो। लेकिन क्या तुम जानते हो कि ऐसा कैसे संभव है?’ संजय ने एक बार फिर इन्कार में सिर हिलाया तो दिव्य पुरुष ने अपनी धीर-गंभीर वाणी में कहा, ‘बुराइयों का नाश तभी संभव है जब भगवान कृष्ण तुम्हारे रथ पर विद्यमान हों और रथ की लगाम उनके हाथ में हो। कृष्ण तुम्हारी आत्मा की आवाज हैं।

तुम जब भी कुछ सोचते हो या करते हो तो तुम्हारी आत्मा तुम्हारी पथ प्रदर्शक होती है। यदि तुम आत्मा की आवाज सुनो और अपने जीवन के रथ की लगाम आत्मा को सौंप दो, तो फिर तुम्हारी चिंताएं समाप्त हो जाती हैं।’ जीवन के दर्शन की इस व्याख्या ने संजय को विचारों के एक और तूफान के बीच ला खड़ा किया। परंतु उन्होंने शीघ्र ही खुद को संभाला और यह निश्चय किया कि इस दिव्य पुरुष से बात करके वे अपनी सभी शंकाएं दूर करेंगे। अत: उन्होंने प्रश्न किया, ‘हे देव, मुझ पर कृपा कीजिए और मुझे यह बताइए कि यदि कौरव बुराइयों के प्रतीक हैं तो द्रोणाचार्य और भीष्म सरीखे गुरुजन उनके साथ क्यों हैं?’ दिव्य पुरुष इस प्रश्न पर कुछ विचलित दिखे और वे कुछ उदास हो गए, लेकिन संजय की शंका का समाधान उन्होंने फिर भी किया, ‘इसका अर्थ है कि जैसे-जैसे तुम बड़े होते हो, तब तुम अपने ही तर्कों और अपनी कल्पना की उड़ान का विश्लेषण कर सकते हो। तब तुम्हें यह देखना आवश्यक है कि असल में कुतर्क का सहारा लेकर कुछ ऐसा करने तो नहीं जा रहे जो तुम्हें नहीं करना चाहिए या तुम्हारी कल्पना की उड़ान तुम्हें कुछ ऐसे रंगीन सपने दिखा रही है जो अनैतिक हैं, अनुचित हैं? तब तुम्हें अपनी आत्मा की आवाज को सुनना होगा। बड़े होते समय यही सबसे कठिन काम है। सच है कि यह कठिन है, पर यह संभव है।’ संजय धम्म से जमीन पर बैठ गए, इसलिए नहीं कि वे थकान महसूस कर रहे थे, बल्कि इसलिए कि दिव्य पुरुष की बातों ने उनके सारे अस्तित्व को घेर लिया था। वे उन बातों पर, जीवन दर्शन की उस नई व्याख्या पर मंथन कर रहे थे। उनका दिमाग स्पष्ट होता चल रहा था, पर फिर एक और शंका ने आ घेरा।

वे धीरे से बुदबुदाए, ‘जीवन के इस दर्शन में कर्ण कौन है?’ ‘तुम धन्य हो संजय। तुम्हारा यह सवाल बहुत अर्थपूर्ण है। मुझे खुशी है कि मेरे जाने से पहले तुमने यह सवाल पूछ लिया। सुनो, कर्ण तुम्हारी इंद्रियों का चहेता है। यह तुम्हारी ‘कामना’ है, ‘इच्छा’ है। वह तुम्हारा ही हिस्सा है, तुम्हारी इच्छा तुम्हारे दिमाग की उपज है, लेकिन वह बुराइयों के साथ खड़ी है। क्या तुम नहीं देखते कि अपनी इच्छापूर्ति के लिए तुम हर अनैतिक काम करने को तैयार रहते हो? उसे नैतिक बताने के लिए बहाने तलाशते हो? क्या तुम्हारी इच्छा तुम्हें बुराइयां अपनाने को नहीं उकसाती?’ संजय इस उत्तर की गहराई को समझ गए। वे जीवन के दर्शन की इस नई व्याख्या को गहराई से समझ रहे थे। विचारों का झंझावत अब भी चल रहा था, नए विचार मन में आ-जा रहे थे, लेकिन दिमाग साफ था, दिमाग के जाले उतर चुके थे। यह स्पष्ट था कि जीवन को सफल बनाने के लिए हमारी दिशा क्या होनी चाहिए और हमारे प्रयत्न कैसे होने चाहिएं। विचारों से उबर कर संजय ने सिर उठाया ताकि वे उस दिव्य पुरुष को धन्यवाद दे सकें, लेकिन वहां कुछ नहीं था, बवंडर भी नहीं था, प्रकृति की शांति थी और सुहानी बयार थी। जीवन का सार उन्हें समझ आ गया था और युद्ध की विभीषिका के बावजूद वे शांतचित्त थे क्योंकि वे भी अपना युद्ध जीत चुके थे।

पीके खु्रराना

हैपीनेस गुरु, गिन्नीज विश्व रिकार्ड विजेता

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