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- ‘कर्जदार’ है नया साल
नए साल की शुभकामनाएं और समारोह एक घिसी-पिटी रवायत है, क्योंकि कुछ भी बदलने के आसार गायब रहते हैं। तनाव, उदासियों, नाकामियों, युद्ध जैसी विभीषिकाओं, संहार, सत्ताओं के लालच और स्वार्थ के माहौल में आम आदमी का कुछ भी संवरता हुआ दिखाई नहीं देता। एहसास तक नहीं होता। बस अस्तित्व जिंदा है, यही गनीमत है …
नए साल की शुभकामनाएं और समारोह एक घिसी-पिटी रवायत है, क्योंकि कुछ भी बदलने के आसार गायब रहते हैं। तनाव, उदासियों, नाकामियों, युद्ध जैसी विभीषिकाओं, संहार, सत्ताओं के लालच और स्वार्थ के माहौल में आम आदमी का कुछ भी संवरता हुआ दिखाई नहीं देता। एहसास तक नहीं होता। बस अस्तित्व जिंदा है, यही गनीमत है और नियति की मेहरबानी भी है। यह यथार्थ तब महसूस होता है, जब आम आदमी होश में होता है, अलबत्ता बाजार की ताकतों ने नए साल के रूप में उसे भ्रमित कर रखा है। आम आदमी इन्हीं संभावनाओं में बेहोश रहता है कि नया साल आया है, तो उसकी जिंदगी भी ‘नई’ होगी! बसंत की बहारें आएंगी और नया सफर सुखद होगा! हम नैराश्य और नकार की अवस्था में नहीं हैं। नए साल की नई हवाएं और शुभकामनाएं हम भी महसूस कर रहे हैं, लेकिन देश एक भारी कर्ज में जी रहा है, लिहाजा हम भी कर्जदार हैं। हम हैं, तो यह देश है। बेशक हम विश्व की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं, लेकिन हकीकत हमारी 140 करोड़ से अधिक आबादी के इर्द-गिर्द है। आर्थिक सच यह है कि भारत में प्रति व्यक्ति आय 1,72,276 रुपए के करीब है और 5वीं अर्थव्यवस्था वाला देश, इस संदर्भ में, विश्व में 141वें स्थान पर है। इतना व्यापक विरोधाभास क्यों है? यदि देश की आर्थिक विकास दर लगातार 8 फीसदी या उससे अधिक बरकरार रहती, तो हम 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था कभी के बन चुके होते। आर्थिक विषमता का यथार्थ यह है कि 10 लाख रुपए से महंगी कारें खरीदने वालों की संख्या बढ़ रही है और आज भी करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें यह सुनिश्चित नहीं है कि नए साल में उनकी आमदनी बढ़ेगी अथवा घटेगी। आरएसएस के सरकार्यवाह (महासचिव) दत्तात्रेय होसबले का अध्ययन आज भी कचोटता है कि 23.5 करोड़ भारतीय ऐसे हैं, जो 375 रुपए रोजाना कमाने में भी अक्षम हैं।
सबसे भयावह यथार्थ तो यह है कि भारत विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के स्वप्न देख रहा है, सत्ताएं डींगें हांक रही हैं और करीब 81 करोड़ लोगों को ‘मुफ्त अनाज’ बांटना पड़ रहा है। इस जमात में भी नए साल के आकर्षण और बधाइयां बांटी जा रही हैं। ऐसे नववर्ष के उल्लास मनाने के मायने क्या हैं? नए साल के सूर्योदय से पहले एक सर्वे सामने आया है, जिसके मुताबिक 600 अरब डॉलर से अधिक का विदेशी कर्ज भारत पर है। औसतन प्रत्येक भारतीय पर 1.40 लाख रुपए का कर्ज है। जो आय है और जो कर्ज है, उसमें औसत भारतीय जीवन चलाए या नया साल गदगद होकर मनाए। उसी सर्वे के कारण ही तमाम आर्थिक संदर्भ उभर कर सामने आए हैं। न जाने क्यों आर्थिक ताकत और विश्व गुरु बनने के जुमले उछाले जा रहे हैं? सर्वे का निष्कर्ष यह है कि एक बार फिर आम चुनाव से पहले राष्ट्रवाद, अनुच्छेद 370, समान नागरिक संहिता और हिंदुत्व आदि की झलक दीखने लगी है। ये गूंजें सुनाई देने लगी हैं, क्योंकि व्यक्तिगत आर्थिक संकुचन के बावजूद 5वीं अर्थव्यवस्था, भारत वैश्विक ताकत के तौर पर और भारत सरकार की जन-कल्याणकारी योजनाओं को 50 फीसदी से अधिक देश ‘अहम उपलब्धियां’ आंक रहा है। इन योजनाओं में पक्का घर, मुफ्त गैस सिलेंडर, नल में मुफ्त जल, मुफ्त शौचालय, मुद्रा ऋण आदि योजनाएं शामिल हैं। बेशक करोड़ों को इन योजनाओं से फायदा हो रहा है, लेकिन सवाल है कि यदि हम 5 ट्रिलियन डॉलर के करीब की अर्थव्यवस्था हैं, तो यह दरिद्र-सी स्थितियां क्यों हैं? भारत में सामाजिक सुरक्षा के नाम पर ‘बीपीएल’ होना बहुत लाभदायक स्थिति है। काम करने की जरूरत ही नहीं है। बेरोजगारी भी कई सवाल खड़े करती है।
By: divyahimachal