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यही कारण था कि जब मई 2019 में भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 ही समाप्त कर दिया तो सबसे ज्यादा मिठाई वहां के वाल्मीकि समाज ने ही बांटी। लेकिन उनकी यह खुशी ज्यादा देर नहीं टिक सकी। सैयदों ने इस पर चीख-पुकार मचा दी। शेख चिल्लाने लगे। मुफ्ती हकलाने लग पड़े। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में एक से बढक़र एक वकीलों की लाईन लगा दी। किसी भी हालत में अनुच्छेद 370 नहीं हटना चाहिए। भविष्य में क्या होगा, इसकी सबसे ज्यादा चिंता जम्मू-कश्मीर के वाल्मीकि समाज को ही थी। क्या वे एक बार फिर 370 के उसी दलदल में फंस जाएंगे? क्या उनके बच्चे जिंदगी भर केवल इसीलिए सफाई सेवक बनते रहेंगे क्योंकि वे वाल्मीकि समाज में से हैं…
भारत सरकार ने वर्ष 2019 में भारतीय संविधान में से अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया था। इसका मोटे तौर पर राज्य के सभी लोगों ने स्वागत किया था। स्वागत करने वालों में गुज्जर, दरदी, बलती, पुरकी के सिवा से अलजाफ, अरजाल और पसमांदा देसी मुसलमान भी थे। लेकिन कश्मीर घाटी में रहने वाले सैयदों ने इसका विरोध किया था। मुल्ला-मौलवी, पीरजादेह, मुफ्तियों ने भी विरोध का स्वर उठाया था। कुछ शेखों ने भी इसका विरोध किया था। लेकिन इसमें आश्चर्य करने वाली कोई बात नहीं थी क्योंकि कश्मीर में सभी जानते हैं कि वहां का अलजाफ और पसमांदा मुसलमान जिसका समर्थन करेगा, सैयद उसका यकीनन विरोध करेगा, क्योंकि इन दोनों के हित परस्पर विरोधी हैं। विरोध करने वालों में से अधिकांश लोग उच्चतम न्यायालय में पहुंच गए थे कि अनुच्छेद 370 को फिर से बहाल किया जाए। स्वाभाविक ही इससे वे लोग चिंतातुर हो गए जिनको इस अनुच्छेद के समाप्त हो जाने से सबसे ज्यादा लाभ हुआ था। बहुत कम लोगों को पता है कि अनुच्छेद 370 के हटने से सबसे ज्या लाभ वहां के वाल्मीकि समाज को ही हुआ है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि उन्हें उस नारकीय जीवन से छुटकारा मिला है, जिसकी रचना उनके लिए अनुच्छेद 370 ने की हुई थी। लेकिन उनकी यह हालत कैसे हुई, इसके लिए थोड़ा इतिहास में पीछे जाना होगा। आज से लगभग छह दशक पहले 1957 में जम्मू में मजदूर कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी। हड़ताल कई महीने चली। उन दिनों नेशनल कान्फ्रेंस के गुलाम मोहम्मद बख्शी सूबे के मुख्यमंत्री हुआ करते थे।
वे भी पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों की तरह अपने आपको सख्त तबीयत का मानते थे। उन्होंने कर्मचारियों की मांगें स्वीकार करने की बजाय पंजाब से सफाई सेवक ले आने का निर्णय किया। इसके लिए पंजाब सरकार से बातचीत चलाई गई। प्रताप सिंह कैरों ने तुरंत बख्शी गुलाम मोहम्मद को हल्लाशेरी दी कि हड़ताल के आगे झुकना नहीं चाहिए बल्कि हड़तालियों को सबक सिखाना चाहिए। पंजाब सरकार ने वाल्मीकि समुदाय के तीन सौ के लगभग परिवार जम्मू-कश्मीर को रवाना कर दिए ताकि वे वहां सफाई सेवक के पद पर काम कर सकें। ज्यादातर परिवार गुरदासपुर और अमृतसर के थे। शुरू में जम्मू में उनकी खूब सेवा की गई। मुफ्त परिवहन की व्यवस्था से तो उन्हें लाया ही गया था, शुरू में तो खाना भी दिया गया। रहने के लिए मकान दिए गए। सफाई सेवक की पक्की नौकरी दी। लेकिन वे जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासी नहीं थे। इसलिए उनका स्थायी निवासी का प्रमाणपत्र भी नहीं मिल सकता था। तब बख्शी साहिब ने नियमों में संशोधन किया। उनके लिए राज्य का स्थायी निवासी होने की शर्त को ढीला कर दिया गया। जम्मू-कश्मीर सिविल सर्विसेज रैगुलेशन में प्रावधान किया गया कि वाल्मीकि समाज के ये लोग राज्य में स्थायी नौकरी के लिए पात्र होंगे, लेकिन वे केवल राज्य में सफाई की नौकरी ही करेंगे। वाल्मीकि समाज के लोगों को राज्य में सफाई सेवक की नौकरी के लिए चिन्हित तो कर दिया गया, लेकिन अनुच्छेद 370 के चलते उन्हें पीआरसी (परमानैंट रेजीडैंट सर्टिफिकेट) नहीं दिया गया। इसके कारण उनका नारकीय जीवन शुरू हुआ।
वाल्मीकि समाज के बच्चे राज्य के व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों में दाखिला नहीं ले सकते थे। केन्द्र सरकार ने अनुसूचित जाति के लिए जितनी योजनाएं शुरू की हुई हैं, वाल्मीकि समाज को उनका लाभ नहीं मिलता था, क्योंकि वे राज्य के स्थायी निवासी नहीं बन सकते, चाहे उन्हें राज्य में रहते हुए पचास साल ही क्यों न हो गए हों। स्थायी निवासी नहीं हैं तो राज्य सरकार उन्हें अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र जारी नहीं करती। उन्हें बैंक से कर्जा नहीं मिल सकता। वे राज्य में होने वाले चुनावों में वोट नहीं डाल सकते। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट पर चुनाव नहीं लड़ सकते। जम्मू-कश्मीर के वाल्मीकि समाज का कोई लडक़ा या लडक़ी, यदि पंजाब या हरियाणा से पीएचडी की डिग्री भी लेकर आ जाए और अपने राज्य में किसी उपयुक्त पोस्ट पर आवेदन करे तो उसे बता दिया जाता था कि आपके पास डिग्री चाहे कोई भी हो, आप केवल सफाई सेवक के पद पर आवेदन करें। वाल्मीकि समाज ने इस नारकीय हालात को लेकर कोर्ट कचहरी का दरवाजा भी खटखटाया। कोर्ट ने यह तो प्रत्यक्ष या परोक्ष माना कि आपके साथ अन्याय हो रहा है, लेकिन अपनी मजबूरी भी जता दी कि राज्य में अनुच्छेद 370 होने के कारण उसके हाथ बंधे हैं। 1954 में केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने अनुच्छेद 370 को और मजबूती प्रदान की। उसने भारतीय संविधान में 35-ए नाम का एक नया अनुच्छेद जोड़ दिया जिसमें कहा गया कि इस भेदभाव के खिलाफ कोई व्यक्ति कचहरी में भी नहीं जा सकता। डा. भीमराव रामजी अंबेडकर ने भारतीय सामाजिक संरचना पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि जाति व्यवस्था में सबसे खतरनाक बात यह है कि समाज यह मान कर चलता है कि जाति व्यवस्था में जिस समाज के लिए जो काम निर्धारित कर दिए गए हैं, उस समाज के लोग वही काम कर सकते हैं, कोई अन्य काम या व्यवसाय करने का उनको अधिकार नहीं है। यही कारण था कि उन्होंने नए संविधान में ये दीवारें तोड़ीं और यह प्रावधान किया कि कोई व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति का हो, वह अपनी रुचि के अनुसार काम या व्यवसाय चुन सकता है। लेकिन अंबेडकर के इस संविधान के होते हुए भी जम्मू-कश्मीर सरकार ने वैधानिक रूप से यह निर्धारित कर दिया कि जम्मू-कश्मीर के वाल्मीकि समाज के व्यक्ति केवल सफाई का काम करने के ही पात्र होंगे। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहना होगा कि कांग्रेस समेत लगभग सभी दल इसका समर्थन करते रहे।
यही कारण था कि जब मई 2019 में भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 ही समाप्त कर दिया तो सबसे ज्यादा मिठाई वहां के वाल्मीकि समाज ने ही बांटी। लेकिन उनकी यह खुशी ज्यादा देर नहीं टिक सकी। सैयदों ने इस पर चीख-पुकार मचा दी। शेख चिल्लाने लगे। मुफ्ती हकलाने लग पड़े। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में एक से बढक़र एक वकीलों की लाईन लगा दी। किसी भी हालत में अनुच्छेद 370 नहीं हटना चाहिए। भविष्य में क्या होगा, इसकी सबसे ज्यादा चिंता जम्मू-कश्मीर के वाल्मीकि समाज को ही थी। क्या वे एक बार फिर 370 के उसी दलदल में फंस जाएंगे? क्या उनके बच्चे जिंदगी भर केवल इसीलिए सफाई सेवक बनते रहेंगे क्योंकि वे वाल्मीकि समाज में से हैं? लेकिन 11 दिसंबर को वाल्मीकि समाज एक बार फिर से सबसे ज्यादा मिठाई बांट रहा था। अंत में जीत वाल्मीकि समाज की ही हुई थी। लेकिन सैयद महबूबा मुफ्ती ने कहा कि हमारे लिए यह फांसी की सजा है। साठ साल तक फांसी की यह सजा वाल्मीकि समाज ने भुगती है। सैयदों को उनकी खुशी में भागीदार होना चाहिए, न कि अपशकुन करके समाज को बांटना चाहिए।
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार