शाहजहांपुर : शहीद रोशन सिंह के गांव का बेचैनी भरा रास्ता

मन्मथनाथ गुप्त सरीखे न जाने कितने असहयोगी गांधी-मार्ग से हटकर क्रांतिमार्ग की ओर अग्रसर हो गए।

Update: 2021-12-24 01:48 GMT

शाहजहांपुर जिले में देवहा नदी के किनारे बसे शहीद रोशन सिंह के गांव नवादा दरोवस्त जाने वाला मार्ग हर बार हमारे लिए बेचैनी भरा रहा है। 1992 में हमने यहां ग्रामीणों और साथी संस्कृतिकर्मियों की मदद से रोशन सिंह की जन्मशती पर बड़ा आयोजन किया था और उनके जन्म स्थान पर चहारदीवारी और द्वार का निर्माण कराया। इसी जगह पर बाद में उनकी प्रतिमा स्थापित हुई।

रोशन सिंह का यह गांव बड़ी आबादी वाला है, जिसमें अब शहीद के नाम पर डिग्री कॉलेज का भवन निर्माणाधीन है। रोशन सिंह के कुछ परिजन अब भी अपने पैतृक घर में रहते हैं। इस गांव में प्रतिवर्ष रोशन सिंह को याद करने के जलसे अब प्रशासनिक और राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते क्रांतिकारी चेतना से अपनी प्रतिबद्धता जाहिर नहीं करते।
रोशन सिंह की एक प्रतिमा उस खुदागंज कस्बे में भी लगी है, जहां हिंदी साहित्यकार धर्मवीर भारती का पैतृक घर है। एक बार गणेश शंकर विद्यार्थी ने 17 मील पैदल चलकर इस नवादा गांव की यात्रा की थी। मसला यह था कि तब यहां हलके के दारोगा ने दुष्प्रचारित कर दिया था कि रोशन सिंह की पुत्री से विवाह करने वाले भी राजद्रोही समझे जाएंगे।
गणेशशंकर जी ने सुना, तो दौड़े आए। उन्होंने पुलिस अधिकारी की खूब लानत-मलानत की और स्वयं विवाह के समय जरूरी जिम्मेदारियां पूरी कीं। उस अवसर पर उन्होंने कहा कि रोशन सिंह की गैर-मौजूदगी में लड़की का पिता मैं हूं।
क्रांतिकारी दल के नेता रामप्रसाद 'बिस्मिल' के नेतृत्व में 9 अगस्त, 1925 को हुए 'काकोरी कांड' में जो लोग ब्रिटिश सरकार की गिरफ्त में आए, उनमें रोशन सिंह प्रमुख थे। उनका विवाह हो चुका था। 1921 के असहयोग आंदोलन में एक जत्थे का नेतृत्व करते हुए वह बरेली पहुंचे, तो उन्हें जेल में डाल दिया गया। इस घटनाक्रम ने उनका जीवन बदल दिया। बाद में वह 'बिस्मिल' के संपर्क में आकर क्रांतिकारी संग्राम से ऐसे जुड़े कि फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।
काकोरी के मामले में जिन चार क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दी गई, उनमें वह उम्र में सबसे बड़े थे। लखनऊ की अदालत में इस मुकदमे की संपूर्ण अवधि में उन्होंने स्वयं को एक अजेय क्रांतिकारी साबित किया। बंदी जीवन में उन्होंने बांग्ला सीखी और अत्यंत अनुशासित व सात्विक जीवन जिया।
जज ने जब उन्हें फांसी की सजा सुनाई, तो अंग्रेजी न जानने के कारण वह समझ नहीं पाए। साथियों ने बताया कि उन्हें भी 'बिस्मिल' के साथ फांसी का हुक्म मिला है। यह सुनकर रोशन सिंह खुशी से उछल पड़े और 'बिस्मिल' की ओर देखकर बोले, 'क्यों पंडित, मुझसे आगे जाना चाहते थे, लेकिन यह ठाकुर पीछा छोड़ने वाला नहीं है।' रोशन सिंह का यह हौसला देखकर सभी की आंखों में आंसू आ गए।
इलाहाबाद की मलाका जेल में 19 दिसंबर, 1927 को फांसी पर चढ़ाए जाने से छह दिन पहले अपने मित्र को लिखे पत्र में उन्होंने कहा था, 'इस सप्ताह के भीतर ही फांसी होगी। आप मेरे लिए हर्गिज रंज न करें। मेरी मौत खुशी की बाइस होगी। दुनिया में पैदा होकर मरना जरूर है। दुनिया में बदफैल करके मनुष्य अपने को बदनाम न करे और मरते वक्त ईश्वर की याद रहे, यही दो बातें होनी चाहिए और ईश्वर की कृपा से मेरे साथ ये दोनों बातें हैं।
इसलिए मेरी मौत किसी प्रकार के अफसोस के लायक नहीं है। दो साल से मैं बाल-बच्चों से अलग हूं। इस बीच ईश्वर-भजन का खूब मौका मिला, इससे मेरा मोह छूट गया और कोई वासना बाकी न रही। शास्त्रों में लिखा है कि जो धर्मयुद्ध में प्राण देता है, उसकी वही गति होती है, जो तपस्या करने वालों की। जिंदगी जिंदादिली को जान ऐ रोशन, वरना कितने मरे और पैदा होते जाते हैं। आखिरी नमस्ते!'
फांसी के दिन रोशन सिंह पहले से ही तैयार बैठे थे। जैसे ही इलाहाबाद डिस्ट्रिक्ट जेल के जेलर का बुलावा आया, वह मुस्कराते हुए मौत के तख्ते पर जा चढ़े। ठीक उसी समय उनके साथी 'बिस्मिल' गोरखपुर तथा अशफाकउल्ला खां फैजाबाद की जेलों में फांसी पर झुला दिए गए। इलाहाबाद की मलाका जेल और वहां रोशन सिंह का फांसी-स्थल अब लापता हो चुका है।
गांव नवादा का चेहरा-मोहरा भी पहले-सा नहीं रहा। यहां प्रवेश मार्ग पर विशाल 'शहीद द्वार' बन गया है। 1992 में शहीद रोशन सिंह की जीवनी लिखते हुए मैंने खास तौर पर रेखांकित किया था कि एक जमींदार से असहयोगी और फिर एक खालिस क्रांतिकारी के रूप में उनका रूपांतरण और विकास हमारे लिए बहुत अर्थवान है। जीवन का अर्थ समझने के लिए उन्हें अधिक शिक्षित होने या धर्मग्रंथों को पढ़ने-गुनने की जरूरत न थी।
नवादा गांव के पैतृक घर में शहीद रोशन सिंह की कुछ निशानियां देखकर मैं गौरवबोध से भर जाता हूं, जहां जेल से लिखे उनके कुछ पत्र, उनकी विधवा के नाम लिखी गणेशशंकर विद्यार्थी की चिट्ठियां और फांसी के बाद की उनकी दो तस्वीरें उस जिंदगीनामे को बखूबी बयान करती हैं, जिसे उन्होंने अपनी क्रांतिकारी चेतना से अर्जित किया था। उनके पुत्र ब्रजपाल सिंह और चंद्रदेव सिंह, दोनों का परिवार इस गांव में है।
चंद्रदेव गुरुकुल में पढ़े और उन्होंने 'भारत छोड़ो आंदोलन' में हिस्सेदारी की। गणेशशंकर विद्यार्थी जब तक जीवित रहे, वे निरंतर रोशन सिंह की पत्नी की आर्थिक मदद करते रहे। नवादा से वापस लौटते हुए यह सवाल बार-बार मेरा पीछा करता है कि आखिर वे कौन-से कारण थे, जिनके चलते रोशन सिंह, चंद्रशेखर आजाद और मन्मथनाथ गुप्त सरीखे न जाने कितने असहयोगी गांधी-मार्ग से हटकर क्रांतिमार्ग की ओर अग्रसर हो गए।
Tags:    

Similar News

-->