शोध में किया गया दावा- अमीर देशों ने पहुंचाया है गरीब देशों को भारी जलवायु नुकसान

शोध में किया गया दावा

Update: 2022-07-13 14:41 GMT
यह बहस नई नहीं है कि दुनिया में जलवायु की वर्तमान दशा और ग्लोबल वार्मिंग के लिए अमीर देश (Rich Nations)ज्यादा जिम्मेदार हैं इसलिए इसकी भरपाई के लिए उन्हें ज्यादा कीमत अदा करनी चाहिए. तमाम जलवायु सम्मेलनों में यह एक बड़ा मुद्दा रहा है. कई पर्यावरण एक्टिविस्ट के साथ सरकारों के अधिकारी और वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि अमीर देशों को तो गरीब देशों (Poor Countries) को हर्जाना भी देना चाहिए क्योंकि औद्योगिक राष्ट्रों इतिहास मे सबसे ज्यादा ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित (Greenhouse Gases Emissions) की हैं. लेकिन दो डार्ट माउथ वैज्ञानिकों के नए अध्ययन ने यह गणना की है कि बड़े उत्सर्जक देशों ने दूसरे देशों पर कितना आर्थिक प्रभाव डाला है.
क्लाइमेट चेंज जर्नल में प्रकाशित अध्यन में इस अध्ययन में बताया गया है कि इस अध्ययन के आंकड़ों को अदालतों और अंतरराष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं में उपयोग में लाया जा सकता है. उनसे इस दलील को मजबूती मिलेगी कि अमीर देशों ने ज्यादा कोयला, तेल और गैस जलाया है इसलिए उन्हें उत्सर्जन के नुकसान का भुगतान गरीब देशों (Poor Countries)को करना चाहिए. आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका (USA) सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक (Carbon Emitter) देश हैऔर उसने 1990से 2014 के बीच दूसरे देशों को 19 खरब डॉलर का नुकसान पहुंचाया है. इसमें से 310 अरब डॉलर का ब्राजील को, 257 अरब डॉलर का भारत को, 124 अरब डॉलर इंडोनेशिया को, 104 अरब डॉलर वेनेजुएला को , 74 अरब डॉलर नाइजीरिया को नुकसान पहुंचाया है. वहीं अमेरिका ने खुद के कार्बन प्रदूषण से खुद को ही 183 अरब डॉलर का फायदा पहुंचाया है. 
विकासशील देशों (Developing Nations) ने अमीर देशों (Rich Nations) को इस बात के लिए तो मना लिया है कि उन्हें कार्बन उत्सर्जन (Carbon Emission) कम करने में भविष्य में मद मिल जाए, लेकिन वे पहले से हो चुके नुकसान की भरपाई के लिए कुछ नहीं हासिल कर सके. इस तरह के चर्चाओं में अमेरिका और चीन जैसे देशों ने कभी अपनी जिम्मदारी स्वीकार नहीं की है. इस अध्ययन के मुख्य लेखक क्रिस्टोपर चालियान ने बताया कि इस अध्ययन ने इस पर्दे को हटाने का काम किया है.
इस अध्ययन में शामिल नहीं रहीं जलवायु विशेषज्ञ एडेल थॉमस का कहना है कि इस तरह के वैज्ञानिक अध्ययन दर्शाते हैं कि उच्च उत्सर्जनकर्ताओं (High Emitters) के पास अब कोई बहाना नहीं है वे इस नुकसान से निपटने के लिए अपनी जिम्मेदारियों से बचें. उनके मुताबिक हालिया अध्ययन अब ज्यादा तेजी और व्यापक तौर पर दर्शा रहे है कि नुकसान और घाटाn(Loss and Damage) पहले से ही विकासशील देशों (Developing Nations) को बहुत परेशान कर रहा है. 
शोधकर्ताओं का कहना है कि यह पहला अध्ययन है जो उत्सर्जनकर्ता देशों (Emitting Countries) का संबंध प्रभावित देशों से जोड़ रहा है. इसमें लाभ लेने वाले देशों में कनाडा और रूस के अलावा अमेरिका (USA) और जर्मनी जैसे देश तक शामिल हैं. शोधकर्ताओं का यहां तक कहना है कि कम उत्सर्जन कर्ता देशों को ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है. वे इसी असमानता पर ज्यादा जोर देना चाहते हैं.
शोधकर्ताओं ने जलवायु प्रतिमानों (Climate Models) और सिम्यूलेशन के जरिए अमीर देशों के उत्सर्जन का अध्ययन किया और उनका आर्थिक अध्ययनों के जरिए नुकसान झेलने वाले देशों पर पड़े प्रभावों का अध्ययन किया. इन अध्ययनों ने तापमान में इजाफ का हर देश में हुए नुकसान से संबंध की पड़ताल की थी. शोधकर्ताओं का यहां क कहना है कि वे वास्तव में अंगोला के आर्थिक हालात के लिए अमेरिका (USA) के "दोष के फिंगरप्रिंट" तक निकाल सकते हैं. अध्ययन में बताया गया है कि 1990 से केवलअमेरिका और चीन (China) मिल कर दुनिया के जलवायु नुकसान के एक तिहाई हिस्से के जिम्मेदार हैं.
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