स्टॉकहोम | यूरोपीय देश स्वीडन में एक बार फिर कुरान जलाने की तैयारी की जा रही है. विरोध प्रदर्शन के लिए एक शख्स को इसकी इजाजत दी गई. पहले भी ऐसा हो चुका है, जिसकी वजह से NATO में उसे सदस्यता नहीं मिल सकी. इसके बाद भी स्वीडन अड़ा हुआ है. यहां तक कि बहुत से यूरोपियन देश उसके पाले में आ रहे हैं. वहां मुस्लिम चरमपंथ को घटाने के नाम पर कई बदलाव हो रहे हैं.
यूरोप में मुस्लिम आबादी सीरिया, इराक और युद्ध से जूझते देशों से आती गई. शुरुआत में यहां शरणार्थियों को लेकर सरकारें काफी उदार थीं. इसमें उनका खुद का भी हित था. कम आबादी वाले देशों के पास पैसे भरपूर थे और उन्हें काम करने के लिए मैनपावर की जरूरत थी. तो इस तरह से 60 के दशक से यूरोप में मुस्लिम आबादी बढ़ने लगी. यहां तक सबकुछ बढ़िया-बढ़िया दिखता रहा. यूरोप और मुस्लिम दोनों एक-दूसरे की जरूरतें पूरी करते रहे, लेकिन फिर चीजें बदलीं.
एक शख्स जिसका नाम सलवान मोमिका बताया जा रहा है, उसने इस घटना को अंजाम दिया है। वह सेंट्रल मस्जिद के बाहर पुलिस अधिकारियों के पीछे से दो स्वीडिश झंडे लहराते हुए दिखाई दिए। उस समय स्वीडन का राष्ट्रगान बज रहा था। कानों में एयरपॉड्स पहने और मुंह में सिगरेट लटकाकर उसने कुरान को बार-बार फाड़ा और फिर उसमें आग लगा दी। मोमिका एक इराकी शरणार्थी हैं और उनकी मंशा स्वीडन में कुरान को बैन कराना है।
स्वीडन में इस घटना ने मुस्लिम समुदाय को नाराज कर दिया है। करीब 200 लोगों ने प्रदर्शन कर कुरान का बड़े पैमाने पर मजाक उड़ाया। मगर पुलिस की तरफ से इसे ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई और उसे पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया। देश में पिछले कुछ समय से इस्लाम के खिलाफ प्रदर्शन जारी हैं। यह ताजा घटना ऐसे समय में हुई है जब नाटो का एक शिखर सम्मलेन होने वाला है जिसमें स्वीडन की सदस्यता पर फैसला होना है। नाराज तुर्की, स्वीडन की नाटो सदस्यता के खिलाफ है।
पिछले साल यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद से ही स्वीडन, नाटो सदस्यता की मांग कर रहा है। लेकिन गठबंधन के सदस्य तुर्की ने इसमें अड़ंगा डाल दिया है। तुर्की ने स्वीडन पर उन लोगों को शरण देने का आरोप लगाया है जिन्हें वह आतंकवादी मानता है। साथ ही उसने स्वीडन से ऐसे लोगों के प्रत्यर्पण की मांग भी की है। तुर्की के विदेश मंत्री हाकन फिदान ने एक ट्वीट में स्वीडन में हुई घटना की निंदा की। उन्होंने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस्लाम विरोधी विरोध प्रदर्शन की अनुमति देना हरगिज बर्दाश्त नहीं है।
वहीं, अमेरिकी विदेश विभाग के उप प्रवक्ता वेदांत पटेल ने कहा कि धार्मिक ग्रंथों को जलाना 'अपमानजनक और दुखद' है। मगर उन्होंने तुर्की और हंगरी से बिना किसी देरी के स्वीडन को नाटो की सदस्यता की मंजूरी का भी आग्रह किया है।
नहीं. प्यू रिसर्च सेंटर का डेटा कहता है कि अगर इसी वक्त यूरोप अपने बॉर्डर सीलबंद कर दे तो भी कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा. मुस्लिम आबादी बढ़ती ही जाएगी. इसकी वजह ये है कि वहां रह रही ज्यादातर मुस्लिम आबादी की औसत उम्र 13 साल है. ये फर्टिलिटी की उम्र में जाने पर ज्यादा संतानों को जन्म दे सकेंगे, जबकि यूरोपियन आबादी बड़ी उम्र की है और जन्मदर भी लगातार गिर रही है.
फ्रांस और जर्मनी इसमें सबसे ऊपर हैं. साल 2016 में फ्रांसीसी मुस्लिमों की आबादी 57 लाख पार कर चुकी थी. इसके बाद जर्मनी का नंबर आता है, जहां 49 लाख मुस्लिम बसे हुए हैं. यूनाइटेड किंगडम, इटली, नीदरलैंड, स्पेन, बेल्जियम, स्वीडन जैसे देश इनके बाद हैं. यूरोपियन यूनियन के तहत आने वाले साइप्रस में कुल आबादी का करीब 26 मुस्लिम ही हैं.
खुली सोच और पहनावे वाले यूरोपियन देशों में मुस्लिम अपने रहन-सहन को लेकर ज्यादा कट्टर दिखने लगे. वे बाजार, अस्पताल, स्कूल-कॉलेज हर जगह दिखने लगे. यही बात यूरोप को परेशान करने लगी. अपनी घटती आबादी से वे पहले से डरे हुए थे. इसी समय यूरेबिया टर्म आया. यानी यूरोप का अरबीकरण. इस थ्योरी पर यकीन करने वाले मानते हैं कि मुस्लिम किसी छिपे हुए एजेंडा के तहत उनके यहां पहुंचे हैं. वे आबादी बढ़ाती जाएंगे और फिर उनके देश पर कब्जा कर लेंगे.
साल 2008 में एक किताब आई- स्टील्थ जेहाद. इसके लेखक रॉबर्ट स्पेंसर ने माना कि इस्लाम हर देश का इस्लामीकरण कर देगा, अगर वक्त रहते रोक न लगाई गई तो. किताबों का असर था या आसपास माइनोरिटी के बढ़ने का, कि यूरोप और स्कैंडिनेवाई देश भी यही मानने लगे. नॉर्वेजियन सेंटर फॉर होलोकास्ट एंड माइनोरिटी स्टडीज ने एक पोल में पाया कि 31% नॉर्वेजियन आबादी मानती है कि आज नहीं तो कल, मुस्लिम उनके देश को हड़प लेंगे.
साल 2021 में फ्रांस की नेशनल असेंबली ने एक विवादित बिल पास किया, जिसका नाम था- इस्लामिस्ट सेपरेटिज्म. इसके तहत कट्टरपंथ को रोकने के लिए कई कदम उठाए गए. जैसे, इसके तहत उन स्कूल और शिक्षण संस्थानों को बंद करवाया जा सकेगा, जो शिक्षा के बहाने ब्रेनवॉश करते हैं. फ्रांस में फ्रेंच इमाम ही होंगे और विदेश से सीखकर आने वाले या विदेशी लोगों को इमाम नहीं बनाया जाएगा. दूसरे देशों से धार्मिक संगठनों के लिए आने वाले फंड पर नजर भी रखी जाएगी ताकि ये समझा जा सके कि पैसे कहां से आते हैं और उनका क्या हो रहा है.