जानिए जिनोम सिक्वेंसिंग लैब के बारे में...
कम होते-होते कोरोना संक्रमण के मामले एक बार फिर से बढ़ते दिख रहे हैं
कम होते-होते कोरोना संक्रमण के मामले एक बार फिर से बढ़ते दिख रहे हैं. दुनिया के कई दूसरे देशों में डेल्टा प्लस (Delta Plus coronavirus) से भी आगे वायरस का नया स्ट्रेन आ चुका है, जो ज्यादा संक्रामक माना जा रहा है. ऐसे में लगातार एक शब्द सुना जा रहा है- जीनोम सीक्वेंसिंग (genome sequencing). विशेषज्ञों के मुताबिक जीनोम सीक्वेंसिंग से म्यूटेट हो रहे वायरस का पूरा बायोडाटा निकल जाता है कि वो कैसा दिखता है और कैसे हमला करता है. ये सीक्वेंसिंग इलाज में मदद करती है.
पहले से होता रहा इस्तेमाल
साल 2019 के आखिर में चीन के वुहान में कोरोना के शुरुआती मामले आए, जो पिछले डेढ़ सालों से दुनिया में तबाही मचा रहे हैं. इस दौरान वायरस लगातार अपना रूप बदल रहा है और मूल स्ट्रेन से काफी आगे निकल चुका. ऑरिजिनल वायरस से अलग, नए रूपों को पहचानने के लिए वैज्ञानिक मरीजों का सैंपल लेकर उसकी जांच कर रहे हैं. यही है जीनोम सीक्वेंसिंग. वैसे तो ये तरीका दशकों में वायरस, बैक्टीरिया की स्टडी के लिए इस्तेमाल आता रहा, लेकिन कोरोना की भयावहता बढ़ने के साथ जीनोम सीक्वेंसिंग के बारे में जानना और जरूरी हो चुका.
म्यूटेशन को समझने के लिए जीनोम सीक्वेंसिंग
वायरस खुद को लंबे समय तक प्रभावी रखने के लिए लगातार अपनी जेनेटिक संरचना में बदलाव लाते रहते हैं ताकि उन्हें मारा न जा सके. ये सर्वाइवल की प्रक्रिया ही है, जिसमें जिंदा रहने की कोशिश में वायरस रूप बदल-बदलकर खुद को ज्यादा मजबूत बनाते हैं. ये ठीक वैसा ही है, जैसे हम इंसान भी खुद को बेहतर बनाने के लिए कई नई चीजें सीखते और आजमाते हैं. बस वायरस भी इसी फॉर्मूला पर काम करता है और अपने अंदर बदलाव लाता है. यही म्यूटेशन है.
म्यूटेशन से अलग-अलग बदलाव हो सकता है
कई बार म्यूटेशन के बाद वायरस पहले से कमजोर हो जाता है. वहीं कई बार म्यूटेशन की ये प्रक्रिया वायरस को काफी खतरनाक बना देती है. ऐसे में ये जब होस्ट सेल यानी हमारे शरीर की किसी कोशिका पर हमला करते हैं तो कोशिका कुछ ही घंटों के भीतर वायरस की हजारों कॉपीज बना देती है. इससे शरीर में वायरस लोड तेजी से बढ़ता है और मरीज जल्दी ही बीमारी की गंभीर अवस्था में पहुंच जाता है.
इसी से मिलती है वायरस की जेनेटिक जानकारी
वायरस में बदलाव होने पर कई बार मौजूदा दवाएं या वैक्सीन काम नहीं करती. ऐसे में उनके फॉर्मूला में बदलाव लाना होता है. इसी दौरान काम आती है जीनोम सीक्वेंसिंग. असल में मानव शरीर जैसे DNA से मिलकर बनता है, वैसे ही वायरस भी या तो DNA या फिर RNA से बनता है. कोरोना वायरस RNA से बना है. जीनोम सीक्वेंसिंग वो तकनीक है, जिससे इसी RNA की जेनेटिक जानकारी मिलती है. आसान भाषा में कहें तो वायरस कैसा है, कैसे हमला करता है और कैसे बढ़ता है, ये जानने में जीनोम सीक्वेंस ही काम आता है.
कैसे होती है जीनोम सीक्वेंसिंग
इसमें मरीज के शरीर से वायरस का सैंपल लिया जाता है और लैब में बेहद ताकतवर कंप्यूटर के जरिए उसकी आनुवंशिक संरचना का पता लगाते हैं. इससे उसका जेनेटिक कोड निकल आता है.
कहां हुआ है बदलाव
सीक्वेंसिंग की मदद से वैज्ञानिक समझ पाते हैं कि वायरस में म्यूटेशन कहां पर हुआ. अगर म्यूटेशन कोरोना वायरस के स्पाइक प्रोटीन में हुआ हो, तो ये ज्यादा संक्रामक होता है. जैसा कि अभी हो रहा है. यहां बता दें कि स्पाइक प्रोटीन कोरोना वायरस की वो कांटेदार संरचना है, जिसके जरिए वो इंसानी शरीर में प्रवेश करता है.
अभी तक इतने हजार सीक्वेंसिंग हो चुकी
भारत में जीनोम सीक्वेंसिंग के जरिए कोरोना वायरस को समझने की शुरुआत काफी पहले से हो चुकी है. जीनोम इवॉल्यूशन एनालिसिस रिसोर्स फॉर कोविड-19 (GEAR-19) के मुताबिक, देश ने अब तक 5,898 जीनोम सीक्वेंस जमा किए हैं. लेकिन ये देश में कुल मामलों का केवल 0.05 प्रतिशत है. यानी अभी और काम बाकी है.
भारत में कहां-कहां जीनोम सीक्वेंसिंग
हमारे यहां जीनोम सीक्वेंसिंग के लिए इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी (नई दिल्ली), सीएसआईआर-आर्कियोलॉजी फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी (हैदराबाद), डीबीटी - इंस्टीट्यूट ऑफ लाइफ साइंसेज (भुवनेश्वर), डीबीटी-इन स्टेम-एनसीबीएस (बेंगलुरु), डीबीटी - नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ बायोमेडिकल जीनोमिक्स (NIBMG),आईसीएमआर- नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (पुणे) जैसी कई लैब हैं.