एक और खतरनाक रिपोर्ट: 297,556,594,720,000 KG बर्फ हर साल पिघल रही, वैज्ञानिकों ने कही ये बात
कोरोना काल के बीच में एक और खतरनाक रिपोर्ट सामने आई है. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया भर के पहाड़ों पर मौजूद ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं. ये हर साल 31 फीसदी की दर से पिघल रहे हैं. जबकि, 15 साल पहले ऐसा नहीं था. ये रिपोर्ट दुनियाभर के मौसम संबंधी सैटेलाइट्स के डेटा का विश्लेषण करके बनाई गई है. वैज्ञानिक इसके पीछे इंसानों की वजह से बढ़ाए जा रहे प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को जिम्मेदार मान रहे हैं.
वैज्ञानिकों ने 20 साल के सैटेलाइट डेटा के आधार पर दुनियाभर के 2.20 लाख पहाड़ी ग्लेशियरों का अध्ययन किया है. इसके मुताबिक 328 बिलियन टन यानी 297,556,594,720,000 किलोग्राम बर्फ हर साल पिघल रही है. इतनी बर्फ साल 2015 के बाद से अब तक हर साल पिघल रही है. यह स्टडी साइंस मैगजीन नेचर में प्रकाशित हुई है.
ये इतनी बर्फ है कि अगर ये अचानक एकसाथ पिघल जाए तो स्विटजरलैंड हर साल 24 फीट पानी में डूब जाए. साल 2015 से 2019 तक लगातार 78 बिलियन टन यानी 70,760,409,720,000 किलोग्राम बर्फ हर साल पिघली है. यह दर साल 2000 से 2004 में पिघली बर्फ से कई गुना ज्यादा है. मुद्दे की बात ये है कि सैटेलाइट्स के इन आंकड़ों को कई सालों तक छिपाकर रखा गया था.
ETH ज्यूरिख के ग्लेशियोलॉजिस्ट रोमैन ह्यूगोनेट ने कहा कि बर्फ के पिघलने की दर और पानी के सूखने की दर में काफी ज्यादा अंतर है. पिछले 20 सालों में बर्फ के पिघलने की दर में दोगुना इजाफा हुआ है. दुनिया भर में सबसे ज्यादा ग्लेशियर अगर कहीं पिघले हैं तो वो अमेरिका और कनाडा से पिघले हैं.
रोमैन ने कहा कि अलास्का में स्थित कोलंबिया ग्लेशियर तो हर साल करीब 115 फीट पिघल रहा है. दुनिया के सारे ग्लेशियर पिघल रहे हैं. यहां तक बरसों तक सुरक्षित रहने वाले तिब्बत के ग्लेशियर भी अब पिघलने लगे हैं. इन्हें रोक पाना मुश्किल है. इसके लिए ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज को थामना होगा. इंसानों को प्रदूषण का स्तर कम करना होगा.
हालांकि, आइसलैंड और स्कैनडिनेविया के कुछ ग्लेशियर बाकी ग्लेशियरों की तुलना में कम पिघल रहे हैं. इसकी वजह है ज्यादा बारिश. क्योंकि बारिश का पानी उन ग्लेशियरों को वापस मजबूती दे रहा है. लेकिन बाकी ग्लेशियरों के पिघलने की सबसे बड़ी वजह है कोयले, तेल और गैस से निकलने वाली गर्मी और प्रदूषण.
वर्ल्ड ग्लेशियर मॉनिटरिंग सर्विस के डायरेक्टर माइकल जेंप ने कहा कि 10 साल पहले हम कहते थे कि ग्लेशियर क्लाइमेट चेंज के इंडिकेटर हैं. लेकिन अब ये पर्यावरणीय संकट के सबसे बड़े सबूत हैं. इनका पिघलना पूरी धरती को खतरे में डाल सकता है. इस स्टडी में पहली बार थ्रीडी सैटेलाइट इमेजरी का उपयोग किया गया है.
इससे यह पता चला कि ग्लेशियर अब अपनी निचली परत से जुड़ाव खत्म कर चुके हैं. यानी ये कभी भी खिसक सकते हैं. टूट सकते हैं या फिर हिमस्खलन जैसी स्थिति में आ सकते हैं. माइकल जेंप ने बताया कि पहले की स्टडीज में सिर्फ कुछ ही ग्लेशियरों की जांच होती थी. लेकिन इस स्टडी में हमने दुनिया के सारे ग्लेशियरों का अध्ययन किया है. यह एक चेतावनी देने वाली स्थिति है. रोमैन ह्यूगोनेट ने कहा कि भारत में ग्लेशियर से बनी झीलों का फटना और उसके बाद आई आपदा में हजारों लोगों का मरना इस बात का सबूत है कि बर्फ के ये ग्लेशियर दुनिया के किसी भी कोने में तबाही मचाने में सक्षम हैं. लेकिन सबसे बड़ा खतरा है समुद्री जलस्तर के बढ़ने का. क्योंकि समुद्री जलस्तर लगातार बढ़ रहा है क्योंकि ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका के ग्लेशियर पिघल रहे हैं.
नेशनल स्नो एंड आइस डेटा सेंटर के डायरेक्टर मार्क सेरेज ने कहा कि जैसे-जैसे हम 21वीं सदी में आगे बढ़ेंगे समुद्री जलस्तर में इजाफा सबसे बड़ी चुनौती होगी. क्योंकि अभी समुद्री जलस्तर के बढ़ने में 21 फीसदी योगदान ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका के ग्लेशियरों और हिमखंडों का है.