आखिर कैसे ताकतवर हुई म्यांमार में सेना? तख्तापलट के एक साल पूरे, क्या होगा भारत पर असर- एक्सपर्ट व्यू
म्यांमार में आंग सान सू ची की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार के तख्तापलट के एक साल हो गए हैं।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। म्यांमार में आंग सान सू ची की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार के तख्तापलट के एक साल हो गए हैं। तख्तापलट के बाद वहां की सेना ने अपने ही सैकड़ों नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया। इनमें दर्जनों बच्चे भी शामिल हैं। तख्तालट के खिलाफ जनता सड़क पर विरोध-प्रदर्शन करने उतरी तो सेना ने बर्बरता से कुचल दिया। म्यांमार की सेना अपने विरोधियों को प्रताड़ित करने और बड़ी संख्या में लोगों की हत्या की कई घटनाओं में शामिल थी। फरवरी 2021 में तख्तापलट के बाद से सुरक्षा बलों ने 1,500 से ज्यादा लोगों को मारा है। सवाल यह है कि म्यांमार में सैन्य शासन का इतिहास क्या है। भारत के पड़ोसी मुल्क होने के नाते इसका क्या असर होगा।
सैन्य शासन का लंबा इतिहास
प्रो. हर्ष वी पंत का कहना है कि म्यांमार में कभी अंग्रेजों की हुकूमत थी। वर्ष 1937 से पहले औपनिवेशिक सत्ता ने उसे भारत का ही एक राज्य घोषित कर रखा था। बाद में उसे भारत से अलग कर अपना एक उपनिवेश बना लिया। वर्ष 1980 के पहले इसका नाम बर्मा था। 1948 को बर्मा ब्रिटिश राज से मुक्त हुआ था। वर्ष 1962 तक वहां पर लोकतंत्र के तहत सरकारें चुनी जाती रही थीं। मगर 1962 को सेना के तत्कालीन जनरल ने विन चुनी हुई सरकार का तख्तापलट करते हुए सैन्य शासन की स्थापना कर दी। वहां के संविधान को निलंबित कर दिया गया। सैन्य शासन के उस दौर में मानवाधिकार के उल्लंघन के भी आरोप लगते रहे। उन्होंने कहा कि वहां सैन्य सरकार को सैन्य जुंटा कहा जाता था। फिर लंबे संघर्ष और कई उतार-चढ़ाव के बाद आखिरकार वहां पर लोकतंत्र बहाल हुआ। इसका श्रेय तीन दशकों से इसके लिए प्रयासरत आंग सान सू की को जाता है। एक वर्ष पूर्व म्यांमार में सेना ने लोकतांत्रिक सरकार को अपदस्थ कर दिया था।
आखिर क्या है भारत की बड़ी चिंता
1- प्रो हर्ष वी पंत का कहना है कि भारत के पड़ोसी म्यांमार में सैन्य तख्तापलट होने और शीर्ष नेताओं को हिरासत में लेने के चलते भारत को चिंतित होना लाजमी है। म्यांमार में सत्ता के लोकतांत्रिक ढंग से हस्तांतरण का भारत हमेशा से समर्थन करता रहा है। भारत की मान्यता रही है कि लोकतंत्र समर्थक शक्तियों को अलोकतांत्रिक ढंग से नहीं कुचला जाना चाहिए। भारत की लगभग 1600 किमी लंबी सीमा म्यांमार से लगती है।
2- उन्होंने कहा कि इसके अलावा भारत को इस सीमा पर अलगाववादियों के हिंसक गतिविधियों का भी सामना करना पड़ता रहा है। इसके अलावा अफगानिस्तान के बाद म्यांमार नशीले पदार्थो का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। वहां से पुर्वोत्तर में इनकी बड़ी खेप आना भारत के लिए एक बड़ी समस्या रही है। नशीले पदार्थो के अवैध व्यापार, विद्रोही गतिविधियों एवं तस्करी की बुराइयों से निपटने के लिए दोनों देशों के बीच 1993 में एक संधि भी हुई थी। भारत-म्यांमार व्यापार संबंध 1970 में हुए एक व्यापार समझौते के बाद प्रगाढ़ हुए हैं। नवंबर 2015 में वहां लोकतंत्र बहाल होने से भारत को एक और लोकतांत्रिक पड़ोसी का मिलना भी तय हो गया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी तब वैश्विक फलक पर दिखने लगे थे।
3- प्रो पंत का कहना है कि भारत और म्यांमार के बीच बेहतर संबंध रहे हैं। हालांकि, रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर दोनों देशों के बीच कुछ मतभेद रहे हैं। इसके बावजूद दोनों देशों के बीच मधुर संबंध है। म्यांमार में लोकतंत्र की अगुआई करने वाली आंग सान सू की हमेशा भारत को अपना दूसरा घर कहती रही हैं। दरअसल सू की को भारत में कई साल तक रहने का अनुभव है। उनकी मां भारत में राजदूत रही हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम लेडी कॉलेज से पढ़ाई करने वाली आंग सान सू की शिमला के इंडियन इंस्टीट्यूट आफ एडवांस स्टडी में बाकायदा फेलो भी रही हैं। जाहिर है कि उनके अंदर भारतीय संस्कृति और लोकतांत्रिक मूल्यों का वास है। ऐसे में म्यांमार को एक सही दिशा देने की उनमें पूरी क्षमता होने की उम्मीद की जा सकती है।
4- म्यांमार आसियान के 10 सदस्य देशों में से एक है। वहां के बाजार पर चीन की नजर है। म्यांमार के विद्रोहियों को चीन हथियार देकर भारत के खिलाफ उकसाता रहा है, जबकि भारत लोकतंत्र का समर्थक रहा है। ऐसे में म्यांमार की सेना का चीन की तरफ झुकाव न हो ऐसा पूरी तरह खारिज करना सही नहीं है। चीन की अपनी बेबसी है। जहां भारत को लोकतंत्र पसंद है वहीं उसे तानाशाही रवैया अच्छा लगता है। चीन दक्षिण चीन सागर में दादागिरी करता है और हिंद प्रशांत क्षेत्र में विस्तारवादी नीति पर चलने का इरादा रखता है।