ये देश जलवायु परिवर्तन को छोड़ विस्थापन से निपटने में जुटे, अब तक खर्च किए कई अरब डॉलर
दुनिया के कई हिस्से जलवायु खतरों से बुरी तरह से प्रभावित हो चुके हैं। नतीजा यह है कि लोगों को विस्थापित होना पड़ रहा है।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। दुनिया के कई हिस्से जलवायु खतरों से बुरी तरह से प्रभावित हो चुके हैं। नतीजा यह है कि लोगों को विस्थापित होना पड़ रहा है। एक तरफ इस प्रकार की चुनौतियों से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर प्रयास हो रहे हैं। वहीं, दूसरी ओर दुनिया के सात बड़े कार्बन उत्सर्जक देश जलवायु विस्थापितों के अपने देश में घुसने को लेकर आशंकित हैं। नतीजा यह है कि वह अपनी सीमाओं से होने वाली संभावित घुसपैठ को रोकने के लिए बड़े पैमाने पर निवेश कर रहे हैं। यह राशि उनके जलवायु खतरों से निपटने के लिए किए जा रहे उपायों की तुलना में कई गुना ज्यादा है।
टीएनआई संगठन की तरफ से जारी रिपोर्ट 'ग्लोबल क्लाइमेट वॉल' में बताया गया है कि कैसे सात धनी देश जलवायु विस्थापितों को रोकने के लिए अपनी सीमाओं को चाक-चौबंद बनाने में जुटे हैं। अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, जापान, जर्मनी और फ्रांस ने 2013 से 2018 के बीच अपनी सीमाओं पर विस्थापितों को रोकने के उपायों पर 33.1 अरब डॉलर (लगभग 2482.5 अरब रुपये) की राशि खर्च की। जबकि, इस दौरान इन देशों ने जलवायु खतरों से निपटने के लिए महज 14.4 अरब डॉलर (लगभग 1080 अरब रुपये) खर्च किए। यानी सीमाओं पर 2.3 गुना ज्यादा खर्च किया।
कनाडा सबसे आगे
-रिपोर्ट के मुताबिक कुल कार्बन उत्सर्जन में इन सात देशों की हिस्सेदारी 48 फीसदी के करीब है। हालांकि, उनका ज्यादा जोर विस्थापितों को रोकने पर है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कनाडा जलवायु खतरों से निपटने से करीब 15 गुना ज्यादा अपनी सीमाएं दुरुस्त करने पर खर्च कर रहा है। सीमा पर उसके जरिये 1.5 अरब डॉलर (करीब 112.5 अरब रुपये), जबकि जलवायु वित्त पोषण पर महज 10 करोड़ डॉलर (करीब 750 करोड़ रुपये) खर्च किए गए हैं।
सीमाओं की फिक्र ज्यादा
-रिपोर्ट पर गौर करें तो ऑस्ट्रेलिया ने जलवायु खतरों से निपटने और विस्थापितों को रोकने के उपायों से जुड़े मदों में क्रमश: 2.7 अरब और 20 करोड़ डॉलर, अमेरिका ने 19.6 अरब और 1.8 करोड़ डॉलर तथा ब्रिटेन ने 2.7 अरब और 1.4 अरब डॉलर खर्च किए हैं। काप-26 से पूर्व आई यह रिपोर्ट आंखें खोलने वाली है। यह बताती है कि ऐतिहासिक रूप से जलवायु खतरों के लिए जिम्मेदार देश अभी भी इन खतरों से निपटने के लिए पर्याप्त उपाय नहीं कर रहे हैं।