Spotrs.खेल: नितिन शर्मा। भारत ने पैरालंपिक में ऐतिहासिक प्रदर्शन किया है। एक पैरालंपिक खेलों में सबसे ज्यादा मेडल 20 आ गए हैं। अभी और मेडल आने की उम्मीद है। भारत को महिलाओं की 400 मीटर टी20 क्लासिफिकेशन में स्प्रिंटर ज्योति जीवनजी ने ब्रॉन्ज मेडल दिलाया। 21 वर्षीय खिलाड़ी ने फाइनल में 55.82 सेकंड में रेस पूरा करके सनसनी मचा दी। वह यूक्रेन और तुर्की की एथलीट्स से पीछे रहीं। तेलंगाना की रहने वाली दीप्ति का जन्म वारंगल जिले के कल्लेडा गांव में हुआ था। बचपन से ही एथलेटिक्स में उनकी रुचि थी। जन्म से ही बौद्धिक रूप से कमजोर होने की वजह से उन्हें गांववालों और रिश्तेदारों के ताने सुनने पड़े। तमाम कठिनाइयों को पार करके उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई। इसमें नेशनल बैडमिंटन कोच पुलेला गोपीचंद का अहम योगदान रहा। उनकी एक सलाह से दीप्ति की पूरी दुनिया बदल गई।
कंस्ट्रकशन पाइप की डिलीवरी करके लौटे पिता तो मिली खुशखबरी
ज्योति जीवनजी मंगलवार (4 सितंबर) रात को जब ब्रॉन्ज मेडल जीतीं तो उनके पिता ट्रक क्लीनर जीवनजी यधागिरी अपने घर लौटे थे। उन्होंने जिले के दूसरे गांव में कंस्ट्रकशन पाइप की डिलीवरी पूरी की थी। ट्रक कर्मचारी अपनी पत्नी धनलक्ष्मी जीवनजी को पूरे दिन फोन करके दीप्ति के फाइनल के लिए बचे समय के बारे में पूछते रहे।
बड़े दिन भी काम से नहीं ली छुट्टी
जीवनजी यधागिरी ने द इंडियन एक्सप्रेस को फोन पर बताया, ” भले ही यह हम सभी के लिए एक बड़ा दिन है, लेकिन मैं काम से छुट्टी नहीं ले सकता था। यही मेरी रोजी-रोटी है और पूरे दिन मैं दीप्ति के पेरिस में पदक जीतने के बारे में सोचता रहा और ड्राइवर एल्फर से कहता रहा कि वह अन्य दोस्तों और उनके परिवारों को दीप्ति के पदक का जश्न मनाने के लिए बुलाएंगे। उसने हमेशा हमें खुशी दी है और यह पदक भी उसके लिए बहुत मायने रखता है।”
बच्चे की शक्ल-सूरत को लेकर गांववालों और रिश्तेदारों के ताने सुनने पड़ते थे
27 सितंबर, 2003 को गांव की डिस्पेंसरी में दंपत्ति को उनके पहले बच्चे का जन्म हुआ। बच्ची का सिर छोटा था और चेहरे असामान्य था। होंठ फटा हुआ और नाक भी सही नहीं था। दंपत्ति को अपने बच्चे की शक्ल-सूरत को लेकर गांववालों और रिश्तेदारों के ताने सुनने पड़ते थे। 5,000 से ज्यादा की आबादी वाले इस गांव के निवासी कपास के साथ-साथ आम की खेती पर भी निर्भर हैं। जीवनजी परिवार के पास आधा एकड़ जमीन है।
जमीन का हिस्सा बेचना पड़ा
यधागिरी अतिरिक्त कमाई के लिए गांव के खेतों में मजदूर का काम करते थे, लेकिन उनके पिता रामचंद्रिया की मृत्यु के बाद परिवार को अपनी जमीन का हिस्सा बेचना पड़ा।
दीप्ति की मां बताती हैं, “जब दीप्ति का जन्म हुआ, तो गांव वालों और हमारे कुछ रिश्तेदारों ने उसके लिए अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया। उनमें से बहुत से लोग चाहते थे कि हम उसे अनाथालय में दे दें। जैसे-जैसे वह बड़ी हुई, वह शारीरिक तौर पर काफी एक्टिव थीं, लेकिन जब दूसरे बच्चे उसे चिढ़ाते थे तो वह भावुक हो जाती थी।”
छोटी बहन के साथ गुड़ मिला चावल खाती थीं दीप्ति
मां ने दीप्ति को लेकर आगे बताया, “उसे छोटी बहन अमूल्या के साथ खेलना और उसके साथ गुड़ मिला चावल खाना अच्छा लगता था। जब मेरे ससुर की मृत्यु हुई, तो ऐसे दिन भी आए जब हम केवल चावल खाते थे और वह पूरे परिवार के लिए कठिन समय था, क्योंकि हम दोनों कभी 150-200 रुपये कमाते थे और कभी कुछ कमाई नहीं होती थी।”
बियानी वेंकटेश्वरलू ने दीप्ति की खूबी पहचानी
परिवार ने 2000 के दशक के अंत में गांव के ग्रामीण विकास फाउंडेशन (RDF) स्कूल में युवा दीप्ति का दाखिला कराया। पीई शिक्षक बियानी वेंकटेश्वरलू ने दीप्ति को स्कूल के मैदान में अपने दोस्तों के साथ दौड़ते हुए देखा। कोच ने तब स्कूल के मालिक राममोहन राव से दीप्ति को ट्रैक पर दौड़ते हुए देखने और उसे ट्रेनिंग में मदद करने का आग्रह किया। युवा खिलाड़ी स्कूल स्तर पर सक्षम एथलीट्स के साथ प्रतिस्पर्धा भी करती थी और 100 मीटर के साथ-साथ 200 मीटर की दौड़ में भी हिस्सा लेती थी।
अलग लेन में दौड़ने के कारण अयोग्य घोषित
बियानी वेंकटेश्वरलू ब्रेन स्ट्रोक से उबर रहे हैं। उन्होंने अपनी पत्नी की मदद से बताया, “सामान्य दौड़ के दौरान भी, दीप्ति की दौड़ने की शैली, टेक-अप, फिनिशिंग रन लगभग परफेक्ट था। हमें केवल एक ही समस्या का सामना करना पड़ा कि वह अपनी लेन में दौड़ने पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रही थी। उसने अपने करियर की शुरुआत में एक स्टेट मीट में खिताब जीता था, लेकिन एक अलग लेन में दौड़ने के कारण उसे अयोग्य घोषित कर दिया गया था। इसलिए हम उसे अन्य बच्चों के साथ धीमी गति से दूसरी लेन में दौड़ाते थे ताकि उसे लेन रनिंग समझने में मदद मिले। उसकी ताकत थी तेज शुरुआत और इससे उसे सक्षम शरीर वाले धावकों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में बहुत मदद मिली।”
माता-पिता के पास बस का किराया भी नहीं था
2019 में खम्मम में एक स्टेट मीट में खिताब जीतने पर दीप्ति को SAI कोच एन रमेश ने देखा। द्रोणाचार्य पुरस्कार विजेता कोच सिडनी ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम के फिटनेस ट्रेनर थे। उन्होंने द इंडियन एक्सप्रेस को अपने शिष्य की हैदराबाद की पहली बस यात्रा के बारे में पहले बताया था, “उसके माता-पिता पहले तो थोड़ा हिचकिचाए, लेकिन फिर वेंकटेश्वरलू सर और मैंने उन्हें समझाया कि दीप्ति की बेहतरी के लिए उसे उचित ट्रेनिंग मिलना चाहिए और अपना करियर बनाना चाहिए। उस समय, उनके पास हैदराबाद यात्रा के लिए बस का किराया भी नहीं था। चूंकि दीप्ति कई प्रयासों के बाद अच्छी याददाश्त के साथ चीजों को समझती थी, इसलिए हम पहले उसे कागज पर सिंथेटिक ट्रैक लेआउट ड्राइंग समझाते थे और उसे धीमी गति से दौड़ाते थे।”
पुलेला गोपीचंद की सलाह
उसी वर्ष रमेश के मित्र राष्ट्रीय बैडमिंटन कोच पुलेला गोपीचंद ने दीप्ति को ट्रेनिंग लेते देखा और कोच को सलाह दी कि वह दीप्ति का टेस्ट सिकंदराबाद में बौद्धिक रूप से दिव्यांग व्यक्तियों के राष्ट्रीय सशक्तीकरण संस्थान में करवाएं। तीन दिनों के परीक्षण के बाद, पैरा प्रतियोगिताओं में प्रतिस्पर्धा करने के लिए युवा खिलाड़ी का मूल्यांकन किया गया। उन्होंने उसी वर्ष पैरा नेशनल्स में प्रतिस्पर्धा की और फिर मोरक्को में वर्ल्ड पैरा ग्रैंड प्रिक्स में 400 मीटर का खिताब जीतने के अलावा ऑस्ट्रेलिया में पैरा ओशिनिया पैसिफिक गेम्स में भी खिताब जीता।
गोपीचंद ने क्या कहा
गोपीचंद ने भी पहले द इंडियन एक्सप्रेस के साथ गोपीचंदमित्र फाउंडेशन के माध्यम से दीप्ति को की गई मदद के बारे में जानकारी दे चुके हैं। दीप्ति की कहानी एक उदाहरण है कि खेल एक व्यक्ति, उसके परिवार और ईको सिस्टम के लिए क्या कर सकते हैं। गोपीचंद ने कहा, “उसके जैसे एथलीट को अपने सफर के हर कदम पर मानसिक और साथ ही भावनात्मक और आर्थिक रूप से देखभाल की आवश्यकता होती है, जब विश्व पैरा के लिए श्रेणी का मूल्यांकन किया जाना था, तो कोच रमेश और सुरेश ने सुनिश्चित किया कि यह समय पर हो जाए और वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार हो जाए।”