कोहली vs रहाणे vs रोहित शर्मा…कप्तानी को लेकर चर्चा से ज्यादा शोर-शराबा

टीम इंडिया की खुशकिस्मती है

Update: 2021-01-30 10:50 GMT

टीम इंडिया (Team India) की टेस्ट टीम का कप्तान कौन हो? विराट कोहली या अजिंक्य रहाणे? वनडे टीम की अगुवाई कौन करे? विराट या रोहित शर्मा? क्या टी20 की कप्तानी दुनिया की सबसे बड़ी टी20 लीग आईपीएल (IPL) के सबसे सफल कप्तान रोहित शर्मा (Rohit Sharma) को सौंप देनी चाहिए? ये तीनों सवाल इन दिनों करोड़ों जुबान पर हैं. देश में ही नहीं विदेशों में भी. देश से बाहर इयन चैपल, माइकल वॉन, रिकी पॉन्टिंग समेत लंबी फेहरिस्त है, जो अजिंक्य रहाणे (Ajinkya Rahane) की कप्तानी के कायल हैं.


टीम इंडिया की खुशकिस्मती है कि उसके पास टेस्ट में रहाणे जैसा काबिल स्टैंड-बाय कप्तान है, जबकि दोनों छोटे फॉर्मेट में रोहित शर्मा जैसा. लेकिन ध्यान और याद ये रखना है कि जब भी विराट कोहली (Virat Kohli) अनुपस्थित रहे, तब भी टीम में उनका एग्रेशन मौजूद था. जीतने की जिद और हार न मानने की आदत वैसे ही बनी हुई थी.


रहाणे ऊपर से शांत चित दिख सकते हैं, लेकिन अंदर जीत वाले उसी 'विराट जुनून' के बगैर वह ऑस्ट्रेलिया में वह कर सकते थे, जो उन्होंने कर दिखाया? क्या आपने खिलाड़ियों की वही आक्रामकता नहीं देखी, जो विराट ने उनमें भरी है? शरीर पर गेंदें झेलते और फैंस की गालियां सुनते हुए टीम इंडिया की जुबान भले मौन थी, लेकिन ये भीतर का उबाल ही था, जो मैच-दर-मैच जीत में तब्दील हो रहा था.

विराट की ऊर्जा… रहाणे का ठंडा दिमाग
बॉलिंग कोच भरत अरुण (Bharat Arun) ने विराट और रहाणे की गौर करने वाली व्याख्या की है. उनकी बातों को गहराई से समझें, तो आप खुद-ब-खुद कप्तानी की इस बहस में नतीजे पर पहुंच सकते हैं. भरत अरुण कहते हैं,

"रहाणे अपने खिलाड़ियों का समर्थन करते हैं और शांत दिखते हैं. गेंदबाज गलती भी करते हैं, तो उन्हें कप्तान का डर नहीं होता, क्योंकि गेंदबाज जानता है कि रहाणे उसका समर्थन करेंगे. वहीं अगर आप खराब गेंद करते हैं, तो ऐसा लग सकता है कि विराट कोहली गुस्सा हो जाएंगे, लेकिन यह दरअसल उनके अंदर की ऊर्जा होती है."

भरत अरुण की इस तुलना से 4 नतीजे आप निकाल सकते हैं-
> रहाणे के होते हुए गेंदबाजों में डर नहीं होता है, लिहाजा वह खुलकर रिजल्ट दे सकते हैं.
> कोहली के रहते हुए गेंदबाज को उनकी ऊर्जा के साथ चलना होता है, लिहाजा वह रिजल्ट देते हैं.
> रहाणे के शांत होने से गेंदबाजों से दबाव खत्म नहीं हो जाता, क्योंकि प्लेइंग इलेवन में जगह के लिए मुकाबला कांटे का है.
> कोहली की ऊर्जा अच्छे प्रदर्शन का दबाव बना सकती है, इससे खिलाड़ियों के खेल पर असर नहीं पड़ सकता.

मतलब बिल्कुल साफ है. दो कप्तानों का अंदाज और मिजाज बदल रहा है, लेकिन मंजिल को लेकर कोई असमंजस नहीं है.

विराट नहीं थे, लेकिन उनका एग्रेशन मैदान पर था!
विराट टीम को आक्रामकता की पराकाष्ठा तक ले गए. कई बार सवाल भी उठे. क्या ये हद से ज्यादा नहीं है? लेकिन विराट की अगुवाई में जो होता रहा, वह हद से ज्यादा नहीं था. आधुनिक क्रिकेट की मजबूरी थी. सामने वाले को उसी की भाषा में जवाब देने की मजबूरी. उससे भी आगे बढ़कर औकात (शब्द थोड़ा कठोर है) दिखाने की मजबूरी. विराट की उसी आक्रामकता ने टीम में फौलादी जज्बा भरा. लड़ने-भिड़ने और कुछ भी करने का जज्बा. जिद भरी. जीत की जिद. फिर टीम ऑस्ट्रेलिया की धरती पर वह कर गई, जो कभी नहीं हुआ. जब यह हो रहा था तो विराट वहां नहीं थे.

लेकिन न होकर भी विराट थे. खिलाड़ियों में उनकी आक्रामकता मौजूद थी. कभी भी हार न मानने का उनका जुनून मौजूद था. जो विराट के साथ मैदान साझा करते रहे थे, उन्होंने उस सीख को ब्रिस्बेन के मैदान पर उतारा. जो बेंच पर बैठकर करीब से देखते रहे थे उन्होंने भी क्रिकेट की उसी भाषा को सीख रखा था, जो अब विराट, उससे पहले धोनी और उससे भी पहले सौरव गांगुली ने पढ़ाई थी. तीनों टीचर (कप्तान) अलग-अलग थे. तीनों का तरीका अलग-अलग था. लेकिन गुरुमंत्र एक ही था. हम उनसे कम नहीं. जीत से कम में कोई दम नहीं.

विरासत में मिले कौशल से मिलती है जीत
क्रिकेट का खेल इतना आसान होता, तो इतना महान नहीं होता. क्रिकेट का खेल इतना आसान होता, तो ब्रिस्बेन की हमारी जीत भी महान नहीं होती. कुछ नौसिखिए खिलाड़ी रातों-रात बाजी पलट देते, तो इस जीत को सबसे बड़ी जीत नहीं कहा जा रहा होता. ब्रिस्बेन में कर गुजरने वाले खिलाड़ी अनुभव में कम थे लेकिन उनकी दक्षता में कोई कमी नहीं थी. ये दक्षता थी उनके क्रिकेटीय कौशल के साथ-साथ फौलादी मानसिक मजबूती की. ये सब-कुछ उन्हें अपने सीनियर्स से विरासत में मिली थी.

कंगारुओं की नजरें नीचीं, बिखरी बॉडी लैंग्वेज
अगर आप क्रिकेट को लंबे समय से फॉलो कर रहे हैं, तो एक बात जरूर मान रहे होंगे. दो-ढाई दशक में ऑस्ट्रेलियन्स की ऐसी फजीहत शायद ही कभी दिखी. तीसरे टेस्ट में हनुमा विहारी और रविचंद्रन अश्विन और चौथे में शार्दुल ठाकुर-वॉशिंगटन सुंदर. 4 ऐसे खिलाड़ी, जिनकी बतौर बल्लेबाज कोई खास पहचान नहीं. शार्दुल-सुंदर की तो आखिरी 11 में जगह तक नहीं थी. अनफिट खिलाड़ियों की जगह टीम में आए और आकर कंगारुओं को उल्टा ही टांग दिया. चौथे टेस्ट में ऑस्ट्रेलिया का स्कोर रहा 336 और 294. बस. वे सिराज-शार्दुल-नटराजन को नहीं झेल पाए. उन्हें वॉशिंगटन सुंदर समझ में नहीं आए.

हमारी सिर्फ बेंच स्ट्रेंथ ही मजबूत नहीं है. कह सकते हैं कि हमारे पास कम-से-कम 2 राष्ट्रीय स्तर की टीम हैं. हर खिलाड़ी का विकल्प ही नहीं है, हर खिलाड़ी के पीछे दो-दो विकल्प हैं. बिल्कुल तैयार. उतनी ही जोरदारी से अटैक के लिए तैनात.

कप्तानी पर बहस अच्छी…कोहराम बेवजह
यही टीम इंडिया की मजबूती है. साथ ही सौभाग्य भी. एक साथ तीन-तीन बिल्कुल मैच्योर और तैयार लीडरशिप. एक साथ तैयार दो-दो प्लेइंग इलेवन. यानी एक नहीं, बल्कि दो-दो बिल्कुल तैयार टीम इंडिया. ऑस्ट्रेलिया में हमने इसे साबित किया. लेकिन यह सुखद लाभ कप्तानी पर चर्चाओं की अति से हानि का कारण बन सकता है. 'कप्तान कौन?' की बहस का अंत टीम में धड़ेबाजी की शक्ल में न हो. टीम रातों-रात नहीं बल्कि खिलाड़ियों के अथक तप, सपोर्ट स्टाफ की मेहनत के साथ-साथ कप्तान, कोच और मैनेजमेंट के रणनीतिक कौशल से बनती है.

भारत में क्रिकेट की हालिया पौध को तैयार करने के सबसे बड़े सूत्रधार राहुल द्रविड़ सिर झुकाकर कहते हैं कि ऑस्ट्रेलिया में मिली कामयाबी के लिए उन्हें अनावश्यक श्रेय दिया जा रहा है, तो इसका मतलब सबको समझना है.


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