वैज्ञानिक परेशान, अचानक टूटी बड़ी बर्फीली चट्टान
अंटार्कटिका में भविष्य में बड़ी आपदा आ सकती है
अंटार्कटिका (Antarctica) में भविष्य में बड़ी आपदा आ सकती है. क्योंकि यहां के सबसे सुरक्षित और स्थिर माने जाने वाले पूर्वी इलाके में 783.8 वर्ग किलोमीटर बड़ी बर्फ की चट्टान (Ice Shelf) टूटकर सागर में बिखर गई है. यह चट्टान भारत के दूसरे बड़े शहर बेंगलुरु से आकार में 42 वर्ग किलोमीटर बड़ी है. दिक्कत ये है कि इस तरह ऐसे किसी प्राकृतिक हादसे की उम्मीद वैज्ञानिकों को नहीं थी. लेकिन अब उन्हें डर है कि कहीं इससे भविष्य में कोई बड़ी आपदा न आए.
सबसे ज्यादा हैरानी की बात ये है कि ये बर्फ की चट्टान 14 मार्च 2022 से 16 मार्च 2022 के बीच टूटकर बिखर गई. सैटेलाइट तस्वीरों से इसका खुलासा हुआ है. इस बर्फ की चट्टान का नाम है द ग्लेंजर कोंगर आइस सेल्फ (The Glenzer Conger Ice Shelf). यह पूर्वी अंटार्कटिका (East Antarctica) में स्थित है. यूनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा के ग्लेसियोलॉजिस्ट पीटर नेफ ने कहा कि द ग्लेंजर कोंगर आइस सेल्फ हजारों सालों से वहां मौजूद था. अब वहां पर ऐसी कोई आकृति दोबारा नहीं बन पाएगी.
पीटर ने बताया कि यह बात सही है कि द ग्लेंजर कोंगर आइस सेल्फ (The Glenzer Conger Ice Shelf) 1970 के दशक से थोड़ी पतली होने लगी थी. लेकिन यह आशंका नहीं थी कि यह अचानक से टूटकर बिखर जाएगी. इस बिखराव से करीब एक महीने पहले ही यहां पर तेजी से बर्फ पिघलने लगी और यह बड़ी भारी चट्टान अचानक से टूट गई.
अंटार्कटिका दो हिस्सों में बंटा है. पूर्वी अंटार्कटिका और पश्चिमी अंटार्कटिका. इन दोनों को ट्रांसअंटार्कटिक पहाड़ों की रेंज (Transantarctic Mountain Range) आधे से बांटती है. यह बात प्रमाणित है कि पश्चिमी अंटार्कटिका में बर्फ कमजोर है. वह तेजी से पिघल रही है. वहां अक्सर बर्फ की चट्टानें और आइसबर्ग टूटते रहते हैं. लेकिन यह बात पूर्वी अंटार्कटिका पर लागू नहीं होती.
पूर्वी अंटार्कटिका (East Antarctica) पूरी दुनिया में सबसे ठंडा और सूखा इलाका माना जाता है. वहां से बर्फ की चट्टानों के टूटने की खबर कभी नहीं आती. समाचार एजेंसी एपी के अनुसार पूर्वी अंटार्कटिका में यह पहली बार हुआ है कि जब मानव इतिहास में कोई इतनी बड़ी बर्फ की चट्टान टूटी हो. इससे पहले कई सौ सालों से ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है यहां.
18 मार्च 2022 को पूर्वी अंटार्कटिका में स्थित रिसर्च स्टेशन कॉन्कॉर्डिया (Concordia Research Station) ने महाद्वीप के पूर्वी किनारे पर तापमान माइनस 11.8 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया था. जो मार्च के महीने का सबसे ज्यादा तापमान वाला दिन था. थोड़ा ज्यादा नहीं, बल्कि सामान्य से 40 डिग्री सेल्सियस ज्यादा. जो अंटार्कटिका के खतरनाक बात है.
तापमान में इतना ज्यादा इजाफा एक वायुमंडलीय नदी के बहाव की वजह से है, यह ऐसी नदी है जो वायुमंडल में गर्म और नमी वाली हवा को बहा रही है. जिसकी वजह से पूरा अंटार्कटिका इस समय गर्मी की चपेट में आ गया है. कुछ स्थानों पर तो नमी बारिश में भी बदल गई. आमतौर पर वायुमंडलीय नदी को द ग्लेंजर कोंगर आइस सेल्फ (The Glenzer Conger Ice Shelf) सोख लेता है.
NASA की प्लैनेटरी साइंटिस्ट कैथरीन कोलेल्लो ने ट्वीट करके दावा किया है कि इसी वायुमंडलीय नदी की वजह से ही द ग्लेंजर कोंगर आइस सेल्फ (The Glenzer Conger Ice Shelf) टूटा है. यह इस बार इसे सोख नहीं पाया. कमजोर पड़ गया और इसमें तेजी से बिखराव हो गया.
स्क्रिप्स इंस्टीट्यूट ऑफ ओशिएनोग्राफी में ग्लेशियोलॉजी की प्रोफेसर हेलेन अमांडा फ्रिकर ने ट्वीट करके कहा कि 14 मार्च से 16 मार्च तक बेंगलुरु से बड़ी यह बर्फीली चट्टान टूटती रही. बिखरती रही. लेकिन सबसे बड़ी टूट-फूट 15 मार्च को हुई. आइस सेल्फ काल्विंग तब होती है जब नए आइसबर्ग का जन्म होता है. यानी बड़ी चट्टानों के टूटने से छोटी-छोटी कई चट्टानें बनती है. यह किसी भी बड़े आइस सेल्फ के जीवनकाल का हिस्सा है. हालांकि अचानक बढ़े तापमान से अगर यह टूट-फूट हुई है, तो हमें इसे जलवायु परिवर्तन से जोड़कर देखना चाहिए.
यूएस नेशनल आइस सेंटर के मुताबिक काल्विंग इवेंट 7 मार्च से शुरु हो गए थे. जिसकी वजह से कई आइसबर्ग का निर्माण हो रहा था. जिसमें से एक काफी बड़ा आइसबर्ग निकला. इसे सी-37 (C-37) नाम दिया गया है. यह करीब 14.8 किलोमीटर लंबा और 5.6 किलोमीटर चौड़ा है. फिलहाल वैज्ञानिक इस घटना से किसी और बड़े हादसे की उम्मीद नहीं कर रहे हैं. लेकिन वह इस बात की चेतावनी जरूर दे रहे हैं कि पूर्वी अंटार्कटिका में भी नई आपदाओं का ट्रेंड शुरु होने वाला है.
पीटर नेफ कहते हैं कि बर्फ की यह चट्टानें अंटार्कटिका के ग्लेशियर्स को पिघलने से बचाते हैं. ये ग्लेशियर तक पहुंचने वाली गर्मी को रोकने के लिए बफर का काम करते हैं. ये असल में एक इंसुलेटर का काम करते हैं. अगर पूर्वी अंटार्कटिका के ग्लेशयर पिघले तो अगले कुछ दशकों में समुद्री जलस्तर बहुत तेजी से बढ़ेगा. जिससे कई देशों और द्वीपों को खतरा पैदा हो जाएगा.