जानें कहां से आया पृथ्वी पर पानी, जांच में हुआ इस रहस्य का खुलासा
धरती का करीब 71 फीसदी हिस्सा पानी से भरा हुआ है और इसमें भी 96.5 जल समुद्र में मौजूद है।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। धरती का करीब 71 फीसदी हिस्सा पानी से भरा हुआ है और इसमें भी 96.5 जल समुद्र में मौजूद है। पृथ्वी पर इतना पानी कहां से आया, यह हजारों साल से इंसान के लिए रहस्य बना हुआ है। इसको लेकर वैज्ञानिकों के बीच काफी बहस भी हो चुकी है। इस महारहस्य से अब पर्दा उठता दिखाई दे रहा है। एक नए अध्ययन से पता चला है कि धरती पर गिरने वाले उल्कापिंडों से यहां पर पानी आया। वैज्ञानिकों का यह नया शोध अरबों साल पहले गिरे कई उल्कापिंडों के शोध पर आधारित है। इन प्राचीन उल्कापिंडों में से कई के अंदर पानी मिला है। आइए जानते हैं पानी को लेकर इस नए शोध के बारे में सब कुछ....
कार्बनमय कॉन्ड्राइट उल्कापिंडों की जांच से हुआ खुलासा
पिछले कई वर्षों से बहुत से वैज्ञानिकों का मानना था कि पृथ्वी पर पानी उल्कापिंडों के जरिए आया। उस समय पृथ्वी एक विशाल खगोलीय निकाय का हिस्सा थी। हालांकि ये वैज्ञानिक अपने इस दावे को सही साबित नहीं कर पाए क्योंकि धरती पर जिन उल्कापिंडों का अध्ययन किया गया, वे अरबों साल पहले गिरे थे। इसके फलस्वरूप इन उल्कापिंडों के अंदर पानी नहीं पाया गया। इन वैज्ञानिकों के दावे को अब आधार मिलता दिखाई दे रहा है। हालांकि पिछली सदी में गिरे कार्बनमय कॉन्ड्राइट उल्कापिंडों के एक नए शोध से वैज्ञानिकों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा है। ये प्राचीन उल्कापिंड करीब 4.5 अरब साल पहले बने थे, उस समय सोलर सिस्टम का विकास हो रहा था। ये उल्कापिंड उस समय एक विशाल ऐस्टरॉइड के हिस्सा थे।
यूरेनियम और थोरियम के वितरण ने दिया पानी का संकेत
इस नए शोध में उल्कापिंडों के अंदर यूरेनियम और थोरियम के वितरण का अध्ययन किया गया है। यूरेनियम जहां पानी के साथ घुलनशील है, वहीं थोरियम इसमें सक्षम नहीं है। इस तरह से अगर इन उल्कापिंडों पर पानी था तो इसके सबूत यूरेनियम और थोरियम के वितरण में मिलेगा क्योंकि वे घुल गए होंगे। चर्चित पत्रिका जर्नल साइंस में छपे शोध में नौ उल्कापिंडों का अध्ययन किया गया। इस दौरान शोधकर्ताओं को उसकी जानकारी मिल गई जिसकी उन्हें तलाश थी। हालांकि दोनों ही तत्वों का जीवनकाल कम है, इसलिए इन चट्टानों पर पानी का आना अंतिम कुछ करोड़ साल पहले हुआ होगा। शोध पेपर में कहा गया है, 'कार्बनमय कॉन्ड्राइट उल्कापिंडों के बारे में माना जाता है कि वे अपने पैरंट बॉडी का टूटा हुआ हिस्सा हैं जो सोलर सिस्टम के बाहरी हिस्से में चक्कर लगा रहा है।
भविष्य में ऐस्टरॉइड की जांच से खुलेंगे कई और राज
साइंस जर्नल में छपे शोध पत्र में कहा गया है, 'इन उल्कापिंडों के अंदर लिक्विड वॉटर के साथ प्रतिक्रिया के साक्ष्य मौजूद हैं जिसके बारे में माना जाता है कि वे अरबों साल पहले या तो खो गए या फिर पूरी तरह से जम गए। चूंकि कई रेडियो एक्टिव आइसोटोप्स अपने कम जीवनकाल की वजह से गायब हो गए, इसलिए उल्कापिंडों का पिछले करोड़ों साल के अंदर ही पानी के साथ संपर्क वाला होना जरूरी था।' टीम ने कहा कि न केवल पृथ्वी के प्राचीन इतिहास में पानी आया बल्कि इसका आना लगातार जारी है। उनका मानना है कि इस आइडिया का इस्तेमाल धरती पर गिर रहे ऐस्टरॉइड के नमूनों की जांच करने में किया जा सकता है। जापान की अंतरिक्ष एजेंसी ने हाल ही में इसी तरह की घटना को अंजाम देते हुए एक ऐस्टरॉइड Ryugu से नमूने इकट्ठा किए हैं। ये अनमोल नमूने अब जांच की प्रक्रिया में हैं।
जापान ने 30 करोड़ किलोमीटर दूर से मंगाया 'काला सोना'
जापान की स्पेस एजेंसी JAXA ने धरती से करीब 30 करोड़ किलोमीटर अनंत अंतरिक्ष में दूर विचरण कर रहे ऐस्टरॉइड रियगु (Ryugu) से नमूने मंगाए हैं। ऐस्टरॉइड से मिले नमूने चारकोल की तरह से बिल्कुल काले नजर आ रहे हैं। इन नमूनों को जापानी Hayabusa 2 अंतरिक्ष यान ने पिछले साल इकट्ठा किया था। जापानी विशेषज्ञों ने कहा कि ऐस्टरॉइड Ryugu से आए ये नमूने मोटाई में 0.4 इंच के हैं और चट्टान की तरह से कठोर हैं। जापानी प्रफेसर उसूई ने बताया कि ऐस्टरॉइड से आए नमूनों के दोनों सेट Ryugu की सतह पर मिट्टी के नीचे स्थित चट्टान की अलग-अलग कठोरता को दिखाते हैं। उन्होंने कहा कि एक संभावना यह भी है कि दूसरी बार यान ऐसी जगह पर उतरा जहां पर सतह के नीचे कठोर चट्टान थी। रियगु एक जापानी नाम है जिसका मतलब 'ड्रैगन का महल' होता है। रियगु एक ऐसा ऐस्टरॉइड है जो पृथ्वी के बेहद करीब है। यह आकार में करीब 1 किलोमीटर का है। धरती से रियगु की दूरी करीब 30 करोड़ किलोमीटर है। इन अनमोल नमूनों के अब साइंस ऑब्जर्वेशन ऑपरेशन किए जाएंगे और धरती और चांद को साइंटिफिक इंस्ट्रुमेंट्स की मदद से ऑब्जर्व किया जाएगा।