जानिए शार्क, गाय और चूहों तक ये सभी जानवर कोविड के इलाज और वैक्सीन निर्माण में क्या-क्या योगदान दे रहे है?

डब्ल्यूएचओ ने बताया- पांच वैक्सीन में सहायक तत्व के तौर पर स्क्वालीन मिलाया जा रहा है जो शार्क मछलियों के लीवर में पाए जाने वाले तेल से निकलता है

Update: 2020-10-08 10:04 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। कोविड के खिलाफ दुनिया को बेहद प्रभावी टीके की जरूरत है और टीके के ज्यादा-से-ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए इसमें सहायक तत्व (Adjuvant) मिलाने की जरूरत होती है। सहायक तत्व किसी वैक्सीन के छोटे से डोज को ही बहुत कारगर बना देता है। जब पूरी दुनिया को वैक्सीन की जरूरत है तो इसके छोटे-से-छोटे डोज से ही पूरी दुनिया में उपलब्धता सुनिश्चित हो सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने कहा है कि दुनियाभर में 176 टीकों के विकास पर काम हो रहा है। सात टीकों में सहायक तत्व मिलाए जा रहे हैं। डब्ल्यूएचओ ने कहा कि पांच वैक्सीन में सहायक तत्व के तौर पर स्क्वालीन (Sqalene) मिलाया जा रहा है जो शार्क मछलियों के लीवर में पाए जाने वाले तेल से निकलता है।


वैक्सीन के लिए मारे जाएंगे 5 लाख शार्क!

आकलन के मुताबिक, अगर इनमें एक वैक्सीन भी आखिरी टेस्ट में सफल रहा तो इसमें स्क्वालीन मिलाने के लिए करीब 5 लाख शार्कों को मारा जाएगा। ध्यान रहे कि शार्क मछली तो विशालकाय होती है, लेकिन उसमें से अधिकतम तीन किलो स्क्वालीन ही निकलता है। चूंकि एक वैक्सीन में 10 मिलीग्राम स्क्वालीन मिलाना पड़ता है, इसलिए एक शार्क से 30 लाख कोरोना वैक्सीन की ताकत बढ़ाई जा सकती है।

हर साल मारे जा रहे 27 लाख शार्क

पशु कार्यकर्ताओं का कहना है कि शार्क का शिकार तेजी से बढ़ने की आशंका है क्योंकि कोविड से लड़ने के लिए नए-नए वैक्सीन की तलाश हो रही है। पता हो कि स्क्वालीन का इस्तेमाल सनस्क्रीन और दूसरे सौंदर्य प्रसाधनों में इस्तेमाल पहले से ही हो रहा है। इसके लिए हर साल 27 लाख शार्क मारे जा रहे हैं।


​गाय

कुछ बायोटेक्नॉलजी कंपनियां अनुवांशिक रूप से संवर्धित गायों (Genetically Engineered Cows) में मानव ऐंटीबॉडीज बनाने की कोशिश कर रही हैं। अमेरिकी न्यूज चैनल सीएनएन की रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिका की एसएबी बायोथिराप्यूटिक्स ने सैकड़ों गायों में विशेष अनुवांशिकी का संवर्धन किया है जिनमें आंशिक रूप से इंसानों का प्रतिरोधी तंत्र (Human Immune Systems) हैं।

इंसानों के मुकाबले दोगुनी मात्रा में मिलता है ब्लड प्लाज्मा

वैक्सीन ट्रायल के लिहाज से चूहों एवं उसकी के समान एक अन्य जानवर हैमस्टर के मुकाबले गायें अधिक उपयोगी होती हैं। एनपीआर के मुताबिक, प्रत्येक गाय से ढेर सारा ब्लड प्लाज्मा लिया जा सकता है। हर गाय प्रत्येक महीने 30 से 45 लीटर ब्लड प्लाज्मा देने में सक्षम होती है। इतने ब्लड प्लाज्मा से सैकड़ों मरीजों का इलाज हो सकता है। साथ ही, गाय के ब्लड प्लाज्मा में इंसानों या चूहों के मुकाबले ज्यादा ऐंटीबॉडीज पाए जाते हैं। रिपोर्ट कहती है कि इंसानों एक लीटर खून से जितना प्लाज्मा निकलता है, उससे दोगुनी मात्रा में गायों के खून से निकाला जा सकता है।

वायरस के म्यूटेशन का जवाब देती हैं गायें

इतना ही नहीं, गायें वायरस के खिलाफ तरह-तरह की ऐंटीबॉडीज तैयार करती हैं। यानी अगर वायरस अपना रूप बदलता है यानी म्यूटेशन करता है तो गायें उसी अनुरूप ऐंटीबॉडीज भी तैयार कर लेती हैं। गायों में ऐंटीबॉडीज बनने की प्रक्रिया भी तेज होती है। सीएनएन की रिपोर्ट कहती है, 'एसएबी ने गायों में वायरस के गैर-संक्रमणकारी अंश का वैक्सीन देने के सात सप्ताह के अंदर कोविड के खिलाफ ऐंटीबॉडीज बनाना शुरू कर दिया था।'


चूहा

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को एक क्लोन वाली ऐंटीबॉडीज (Monoclonal Antibodies) का बड़ा डोज देने के बाद हॉस्पिटल से डिस्चार्ज किया गया था। इलाज का यह तरीका पिछली सदी के 70 के दशक में इजाद किया गया था और अनुसंधानकर्ता को नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया था। अब यह कोविड के खिलाफ सबसे उन्नत हथियार साबित हो रहा है। इस पद्धति से प्रयोगशाला में निर्मित ऐंटीबॉडीज वायरस के खिलाफ इंसान के इम्यून सिस्टम को बहुत तगड़ा बना देता है। हालांकि, चूहों और हैमस्टर्स के बिना यह संभव नहीं हो सकता है।

ऐंटीबॉडीज बनाने की फैक्ट्री हैं चूहे और हैमस्टर्स

दरअसल, मोनोक्लोनल ऐंटीबॉडीज बनाने की प्रक्रिया बड़ी धीमी होती है क्योंकि यह इंसानी शरीर के बाहर नकली इम्यून सिस्टम बनाता है। इसके लिए इंसानों जैसे इम्यून सिस्टम वाले विशेष चूहे संवर्धित किए जाते हैं। फिर ऐंटीबॉडीज बनाने के लिए उसे संक्रमित किया जाता है। फिर वैज्ञानिक चूहे में बने सबसे ताकतर ऐंटीबॉडीज की पहचान करते हैं। दरअसल, चूहे और हैमस्टर्स एक तरह से ऐंटीबॉडी बनाने की फैक्ट्री की तरह काम करते हैं।


मुर्गी और अंडा

कुछ विशेषज्ञ सर्दियों के सीजन में कोरोना वायरस का प्रकोप बढ़ने की आशंका जताई जा रही है। दरअसल, इस मौसम में इन्फ्लुएंजा संबंधी बीमारियां जोर पकड़ जाती हैं। इससे निपटने के लिए जो टीके लगाए जाते हैं, उनमें मुर्गियों के अंडों का इस्तेमाल होता है। आम तौर पर हर पांच में से चार फ्लू वैक्सीन के डोज मुर्गियों के अंडों से बने होते हैं। वैज्ञानिकों ने 1930 में अंडों के अंदर फ्लू वायरस विकसित करने की कोशिश क्योंकि अंडे सस्ते और बहुतायत होते हैं। समय के साथ वो और सस्ते और ज्यादा मात्रा में उपलब्ध होते जा रहे हैं, इसलिए फ्लू वैक्सीन अब भी उन्हीं से बनाए जा रहे हैं। हालांकि कोविड वैक्सीन इस तरह से नहीं बनाया जा सकता है क्योंकि कोरोना वायरस अंडों के बीच विकसित नहीं हो सकता है।



Tags:    

Similar News

-->