IIA वैज्ञानिकों की टीम ने विकसित किया एल्गोरिदम, बाह्यग्रहों की देगा सटीक जानकारी

बाह्यग्रहों से पृथ्वी तक आने के बाद संकेतों में दूसरे संकेतों से व्यवधान पड़ने के कारण इन्हें स्पष्टता और सटीकता से समझने में परेशानी होती है

Update: 2021-11-14 15:33 GMT

बाह्यग्रहों (Exoplanet) से पृथ्वी तक आने के बाद संकेतों में दूसरे संकेतों से व्यवधान पड़ने के कारण इन्हें स्पष्टता और सटीकता से समझने में परेशानी होती है. पर भारतीय इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स (IIA) वैज्ञानिकों की टीम ने एक ऐसा एल्गोरिदम (Algorithm) विकसित किया है जो बाह्यग्रहों के आंकड़ों की सटीकता को बढ़ा देगा. क्रिटिकल नॉइज ट्रीटमेंट अल्गॉरिदम सुदूर अंतरिक्ष से मिलने वाले संकेतों के आंकड़ों (Data) में संक्रमण को कम करने का काम करता है जिससे आंकड़ों की सटीकता बढ़ती है. संकेतों में यह संक्रमण पृथ्वी के वायुमडंल, उपकरण प्रभावों में हुए व्यवधानों और अन्य कारकों की वजह से हुआ है. इससे बाह्यग्रहों की वातावरण का ज्यादा सटीकता से अध्ययन किया जा सकेगा.

नासा का TESS
आईआईए की प्रोफेसर सूजैन सेनगुप्ता की अगुआई में हुआ यह अध्ययन हाल ही में एमेरिकन एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी के एस्ट्रॉनॉमिकल जर्नल में पियर रीव्यू के लिए प्रकाशित हुआ है. बाह्यग्रह हमारे सौरमंडल के बाहर मौजूद खास ग्रह होते हैं. नासा का ट्रांजिटिंग एक्सोप्लैनेट सर्वे सैटेलाइट (TESS) विशेषतौर पर ऐसे बाह्यग्रहों की खोज करने के लिए डिजाइन किया गया है.
ट्रांजिट पद्धति का उपयोग
टेस (TESS) जैसे वेधशालाएं ट्रांजिट पद्धति का उपयोग करती हैं इसका उद्देश्य अपने तारे का चक्कर लगा रहे बाह्यग्रहों की मौजूदगी की अप्रत्यक्ष तौर से पहचान करना है. इसके लिए फोटोमेट्री का उपयोग किया जाता है जो प्रकाश की तीव्रता (Intensity) की मानवीय आंख के लिहाज से समझे जानी वाली चमक के आधार पर मापन करती है.
संकेतों की सटीकता
भारत के केंद्रीय विज्ञान और तकनीक मंत्रालय ने अपने बयान में बताया कि यदि बाह्यग्रहों की विशेषताएं बहुत अधिक सटीकता से समझी जा सके, तो खगोलविद पृथ्वी जैसे आवासयोग्य बाह्यग्रह को खोज आसान हो जाएगी. इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही आईआईए के खगोलविद अपने शोध में टेस और भारत में धरती पर स्थापित प्रकाशकीय टेलीस्कोप से मिले आंकड़ों का उपयोग कर रहे थे.
हासिल किए आंकड़े
शोधकर्ताओं ने बाह्यग्रहों के संकेतों को हासिल करने के लिए लद्दाख के हैनले में भारतीय खगोल वेधशाला के हिमालयन चंद्रा टेलीस्कोप, तमिलनाडु कावालुर की वेणु बापू वेधशाला के जगदीश चंद्र भट्टचार्य टेलीस्कोप का उपयोग किया और फोटोमैट्रिक ट्राइंट पद्धति के लिए बहुत सारे ग्रहों के फोटोमैट्रिक आंकड़े हासिल किए.
कैसे काम करती है यह पद्धति
फोटोमैट्रिक ट्राइंट पद्धति में तारों से आने वाली रोशनी में बदलाव का अध्ययन किया जाता है. ऐसा तब होता है जब कोई ग्रह अपने तारे का चक्कर लगाते हुए पृथ्वी के टेलीस्कोप और तारे के बीच में आ जाता है जिससे उस तारे से आने वाली रोशनी की चमक फीकी पड़ जाती है. नियमित अंतराल पर बदलाव से साफ हो जाता है कि कोई ग्रह ही तारे का चक्कर लगाते हुए बीच में आ रहा है.
संकेतों में सुधार
फोटोमैट्रिक ट्रांजिट अवलोकनों से ग्रह को आकार और उनकी परिक्रमा काल की जानकारी मिलती है. बहुत से स्रोतों से आने वाले व्यवधान संकेत इन बदलाव के संकेतों में गड़बड़ी ला देते हैं जिससे बाह्यग्रहों की सटीक जानाकारी हासिल करने एक मुश्किल काम हो जाता है. क्रिटिकल नॉइज एल्गॉरिदम में इन ट्रांजिट संकेतों को सुधारने कै क्षमता है जो पृथ्वी पर या फिर अंतरिक्ष में स्थापित टेलीस्कोप से लिए जाते हैं जिससे इनके आंकड़ों में पहले से बहुत अधिक सटीकता मिल जाती है.
शोधकर्ताओं ने अपने एल्गॉरिदम की प्रभावोत्पादकता को दर्शाया और उसकी मदद से उन्होंने बाह्यग्रह KELT-7 बैंड और अन्य आंकड़ों का विश्लेषण किया. इसके अलावा उन्होंने जगदीश चंद्र भट्टाचार्य टेलीस्कोप से WASP-43b और हिमालयन चंद्रा टेलीस्कोप से HAT-P-54 b के संकेतों का भी विश्लेषण किया.


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