पपीते की खेती से किसान कर सकते हैं लाखों में कमाई, लेकिन न करें ये गलती
कृषि वैज्ञानिकों ने बताया कि पपीते में इन दिनों एक बीमारी लग रही है.
पपीते की खेती करने वाले किसानों के लिए बड़ी खबर आई है. कृषि वैज्ञानिकों ने बताया कि पपीते में इन दिनों एक बीमारी लग रही है. इसका नाम बैक्टीरियल क्राउन रोट (Bacterial crown rot) है. यह एक बड़ी बीमारी है इसके कारण पूरी वयस्क पेड़ सूख जाता है. इसका रोगकारक इरविनिया पपाई (Erminia papai) है. यह रोग बड़े पैमाने पर कैरिबियन देशों में, दक्षिण अमेरिका (वेनेजुएला) में एवम् सीमित मात्रा में, दक्षिण पूर्व एशिया में इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस में मौजूद है. यह उत्तरी मारियाना द्वीप, फिजी और टोंगा में भी पाया जाता है. भारत वर्ष में यह रोग मात्र तमिलनाडु में पाया जाता है.
कर सकते हैं लाखों में कमाई
एक हेक्टेयर में करीब 3 हजार तक पौधे लगते हैं. एक पौधे से आप साल भर में करीब 50 किलो या उससे भी फल पा सकते हैं. अमूमन एक पपीते का वजह 1 किलो से अधिक ही होता है. इस तरह अगर एक हेक्टेयर के उत्पादन को देखें तो आपको 3000 पौधों से करीब 1,50,000 किलो की पैदावार मिलेगी.
अगर प्रति किलो 10 रुपये का भाव भी मिल जाता है तो आपके पपीते लगभग 15 लाख रुपये के बिकेंगे. वहीं अगर जमीन आपकी अपनी है तो सिंचाई, उन्नत किस्म के बीज, निराई-गुड़ाई आदि का खर्च 1.5-2 लाख रुपये से अधिक नहीं होगा.
अगर जमीन भी किराए पर लेनी पड़े तो भी एक हेक्टेयर जमीन करीब 1-1.5 लाख रुपये किराए पर मिल जाएगी. यानी साल भर में आपकी 15 लाख रुपये तक की कमाई होगी, जिसमें से करीब 12-13 लाख रुपये का शुद्ध मुनाफा होगा. वहीं ये फसल आपको अगले साल भी फल देगी, लेकिन संख्या गिर जाएगी.
डॉ राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, पूसा-समस्तीपुर,बिहार के अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना प्रोफेसर (प्लांट पैथोलॉजी), प्रधान अन्वेषक,सह निदेशक अनुसंधान ,डॉ एस के सिंह टीवी9 डिजिटल के जरिए किसानों को इस रोग से बचने के उपाय बता रहे हैं.
रोग का लक्षण क्या है
गहरे हरे रंग का, "पानी भिगोया हुआ" – जैसे कि पानी को तने में इंजेक्ट किया गया है – तनों पर धब्बे होते हैं, और तेजी से फैलते हैं, दुर्गंध वाले गीले छालों में विकसित होते हैं, जो अक्सर एक साथ मिलकर बड़े धब्बे बनाते हैं . पपीता का शीर्ष भाग या मुकुट में रॉट्स (rots)(गलन) उत्पन्न होता हैं, पत्तियां डंठल के आधार से टूटकर तने (स्टेम ) के ऊपर गिर जाते हैं . पत्तियों पर, भूरे रंग के, सड़ांध के कोणीय पैच होते हैं, और पेटीओल्स(petioles) (पत्ती के डंठल) पर लंबे अंडाकार धब्बे होते हैं, जिससे वे टूट जाते हैं, और पत्तियां झुक जाती हैं और मर जाती हैं. फल पर, पानी से लथपथ धब्बे बनते हैं जो बीज गुहा तक पहुंच सकते हैं . यदि मौसम सूखा हो तो पत्तियों पर संक्रमण भूरे रंग के पैच बन जाते हैं, जो आंसू जैसे दिखाई देते हैं.
इस रोग का विस्तार स्थानीय रूप से हवा एवम् बारिश द्वारा और बीज के माध्यम से लंबी दूरी तक होता है,क्योंकि यह बीजजनित रोग है. यह रोग घोंघे द्वारा भी फैलता है. इस रोग के जीवाणु तने और पत्तियों को सड़ने की वजह से लंबे समय तक जीवित नहीं रहता है, लेकिन स्टेम कैंकर(stem cancer)के रूप में लंबे समय तक जीवित रह सकता है, और स्टेम के संक्रमित संवहनी ऊतकों (infected vascular tissues)के अंदर जीवित रूप में रहता है. यह मिट्टी में 2 सप्ताह से अधिक जीवित नहीं रहता है.
बीमारी को ऐसे पहचाने
नम उष्णकटिबंधीय स्थानों में, बैक्टीरियल क्राउन रोट को पपीता के सबसे महत्वपूर्ण रोगों में से एक माना जाता है. 1960 के दशक में, इस बीमारी ने वेस्ट इंडीज में पपीते के उत्पादन को नष्ट कर दिया था, और हाल ही में इसने मलेशिया में लगभग 800 हेक्टेयर में वृक्षारोपण को काफी नुकसान पहुंचाया है. 2009 में टोंगा में एक प्रकोप हुआ था जिसे अत्यधिक विनाशकारी कहा गया था. अतः इस रोग को ससमय पहचान कर अविलंब उपचारित करना अत्यावश्यक है. इस रोग में तने पर पानी से लथपथ धब्बे देखे जा सकते है और बहुत बदबूदार होते है , पत्तियां टूट कर मुख्य तने के ऊपर गिर जाता है. पत्तियों पर पानी से लथपथ धब्बे फैला हुआ सा दिखता है, और फलों पर धब्बे जो धँसा और दृढ़ हो जाते हैं, और बीज तक पहुंच सकते हैं.
बैक्टीरियल क्राउन रोट रोग को कैसे प्रबंधित करें ?
इस रोग का रोगजनक जीवाणु बीजजनित होता है. देशों को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि आयातित बीज इस जीवाणु द्वारा संदूषण से मुक्त प्रमाणित होना चाहिए , और संगरोध(quarantine) में प्रवेश के बाद निगरानी के तहत उगाया जाना चाहिए . पपीता के बीज को 50 डिग्री सेंटीग्रेट के गर्म पानी से उपचार की सलाह दी जाती हैं.
रोग से आक्रांत किसी भी हिस्से को कही भी नही फेंके बल्कि उसे अच्छे से नष्ट करे जिससे रोग के प्रसार को रोका जा सके. मृदा में इस रोग के जीवाणु केवल 2 सप्ताह तक जीवित रह सकते है.
रासायनिक दवाओं का भी इस्तेमाल करें
इस रोग को रासायनिक विधि (chemical method)से प्रबंधित करने के लिए कॉपर फफूंद नाशक(copper fungicide) की 2.5 ग्राम/ लीटर +जीवाणु नाशक की 1ग्राम/3लीटर पानी में घोल कर छिड़काव 15दिन के अंतराल पर दो छिड़काव करने से रोग की उग्रता में कमी आती है.