आंवले की खेती से करें कमाई, कृषि वैज्ञानिक ने दी 8 बेस्ट टिप्स

आंवले की खेती (Gooseberry) लगभग पूरे भारतवर्ष में की जाती है

Update: 2022-02-14 10:00 GMT

आंवले की खेती (Gooseberry) लगभग पूरे भारतवर्ष में की जाती है. आंवला (Amla ki Kheti) का प्रयोग हम विभिन्न तरह की बीमारियों से बचने के लिए करते है .यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण औषधीय फल है . यह विटामिन C (Vitamin C)का सर्वोत्तम स्रोत है . यह हमें विभिन्न रोगों से बचाता है, लेकिन यदि इसमे लगने वाले रोगों से इसे न बचाया जाय, तो आंवला का अच्छा फल प्राप्त करना बहुत मुश्किल है.डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर, बिहार के सह निदेशक अनुसन्धान, डॉक्टर एस के सिंह ने TV9 हिंदी के जरिए बताया कि आंवले की रोपाई के बाद उसका पौधा 4-5 साल में फल देने लगता है. 8-9 साल के बाद एक पेड़ हर साल औसतन 1 क्विंटल फल देता है. प्रति किलो 15-20 रुपये में बिकता है. यानी हर साल एक पेड़ से किसान को 1500 से 2000 रुपये की कमाई होती है.

आइए अब इसके बारे में विस्तार से जानते हैं.
डॉक्टर एस के सिंह के मुताबिक, पिछले दो वर्षो से अत्यधिक वर्षा होने की वजह से आंवला के पौधों के सूखने की समस्या ज्यादा देखी जा रही है.इस रोग की वजह से आंवला के पेड़ की छाल का फटना, पत्तियों का झड़ा तथा पौधों के सूखने की समस्या देखी जा रही है. पेड़ के सूखने की समस्या अत्यधिक वारिश, पाले के कारण ज्यादा देखी जा रही है , यह रोग फुजेरियम नामक कवक द्वारा पाया गया है .इस रोग से बचने के लिए आंवला के छोटे पौधों को पाले से बचने के लिए ढकना चाहिए तथा पौधे के आस पास की मिट्टी को हमेशा नम रखना चाहिए, जिससे पाले का असर कम हो. छोटे पौधों के थालों में घास-फूस या काली पालीथीन बिछाने से रोग में कमी पाई गई है.रोग के शुरुवाती लक्षण दिखाई देते ही कार्बेन्डाजिम या रोको एम नामक फफूंदनाशक की 2 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोल कर आस पास की मिट्टी को खूब अच्छी तरह से भीगा देना चाहिए.
रतुवा रोग (रस्ट ) आंवला में लगने वाला रस्ट रोग एक कवक द्वारा लगता है जिसे रवेलिया इम्बलिकी कहते है .यह रोग आंवला की एक प्रमुख समस्या है. इस रोग से फलों पर आरंभ में काले छोटे फफोले जैसी उभरी हुई संरचनाये दिखाई देती हैं, जो बाद में एक दूसरे से मिल कर बड़े धब्बे के रूप में विकसित हो जाते हैं. धब्बे एक दूसरे से जुड़ कर फल के काफी क्षेत्र को घेर लेते हैं. इन धब्बों के ऊपर पतली चमकीली झिल्ली दिखाई देती है.जो बाद में फट जाती है ,जिससे काले बीजाणु बाहर आ जाते हैं. फल खराब दिखते हैं और बाजार में इनकी कीमत नहीं मिलती है. फल पर धब्बे बनाने से पहले यह रोग कारक पत्तियों पर गुलाबी भूरे छोटे-छोटे उभार के रूप में नजर आते हैं , जो अलग-अलग या समूह में विकसित होते हैं तथा बाद में इसका रंग गहरा भूरा हो जाता है. ऐसा समझा जाता है, कि रोग फल से पत्तियों पर तथा पत्तियों से फल पर नहीं आता जाता रहता है .इस रोग के प्रबंधन के लिए घुलनशील गंधक की 4 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करने से या टिल्ट या क्लोरोथैलोनिल नामक फफूंदनाशक के 0.2 प्रतिशत के घोल से दो या तीन छिड़काव 15 दिन के अन्तराल पर जुलाई अगस्त से करने पर रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है.
आंवला के पौधों जिनमें स्केल कीट का प्रकोप ज्यादा होता है, उनमें काली फफूंद का भी प्रकोप देखने को मिलता है . आवंला के काली फफूंदी रोग में कई प्रकार की फफूंद देखी गयी है. काली फफूंद रोग (सूटी मोल्ड) में पत्तियों, टहनियों तथा फूलों पर मखमली काली फफूंदी विकसित होती है. जो कीट द्वारा छोड़े गए चिपचिपे पदार्थ के ऊपर विकसित होती है. यह फफूंदी सतह तक ही सीमित रहती है और पत्तियों टहनियों, फूल आदि में अन्दर इसका प्रकोप नहीं होता है.इसके प्रबंधन के लिए आवश्यक है की 2 प्रतिशत स्टार्च का छिड़काव किया जाय. अधिक प्रकोप होने की अवस्था में स्टार्च में 0.05 प्रतिशत मोनोक्रोटोफॉस तथा 0.2 प्रतिशत कॉपर ओक्सी क्लोराइड मिला कर छिड़काव करना चाहिए.
नीली फफूंद (ब्लू मोल्ड ) ,पेनीसीलियम सिट्रिनम नामक कवक द्वारा होता है.यह रोग आंवले का एक ऐसा रोग है, जो सभी आंवला उगाने वाले क्षेत्रों में पाया जाता है| आरम्भ में फलों पर भूरे जलसिक्त धब्बे बनते हैं और रोग के बढ़ने पर फलों में फफूंद के तीन प्रकार के रंग एक के बाद एक दिखाई देते हैं.पहले चमकीला पीला रंग फिर भूरा रंग तथा अंत में हरा नीला रंग विकसित होता है, जो सतह पर उभरती फफूंद के कारण होता है. फल की सतह पर पीली बूंदें भी दिखाई देती हैं. फलों से बदबू भी आने लगती है. पूरा फल बाद में दानेदार नीली हरी फफूंद से ढका हुवा नजर आता है. इस रोग के प्रबंधन के लिए फलों की तुड़ाई अत्यन्त सावधानीपूर्वक करनी चाहिए जिससे उसमें किसी प्रकार की चोट न लगे, चोट लगने से फलों पर नीली फफूंद का प्रकोप होने की संभावना रहती है. भण्डारण में साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखना चाहिए तथा भंडारण स्थल को शोधित कर लेना चाहिए. आंवला के फलों को बोरेक्स या नमक से उपचारित करने से रोग को रोका जा सकता है. फलों पर तुड़ाई से 20 दिन पूर्व कोर्बेन्डाजिम या थायोफनेट मिथइल 0.1 प्रतिशत से छिडकाव करके भी रोग नियंत्रित किया जा सकता है.
यह रोग नवम्बर माह में आमतौर पर देखा जाता है| इस रोग में धब्बे अधिकतर अनियताकार तथा भूरे रंग के होते हैं. आरम्भ में भूरे रंग के धब्बे बनते हैं, जो धीरे-धीरे बढ़ते हैं और बाद में ये धब्बे सूखे भूरे हो जाते हैं. जिनके किनारे हल्के भूरे होते हैं तथा ग्रसित भाग पर रूई की तरह सफेद फफूंद दिखाई देती हैं.संक्रामित फल के अन्दर का हिस्सा सूखा, गहरा भूरा नजर आता है. फल सड़न अल्टरनेरिया अल्टरनेटा द्वारा भी होता है . गिरे हुए फलों में अल्टरनेरिया अल्टरनेटा द्वारा सड़न पैदा होती है. जिससे फल पूर्णतय खराब हो जाते है.इससे बचाव के लिए आंवला के फल तोड़ने के 15 दिनों पूर्व 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम का छिड़काव करना चाहिए. फल तुड़ाई पूरी सावधानी से करनी चाहिए, जिससे फलों में किसी प्रकार की चोट न लगे. आंवला के फलों को स्वच्छ पात्रों में भण्डारित करना चाहिए. फलों के भण्डारण तथा परिवहन के समय पूर्ण स्वच्छता बरतनी चाहिए. भण्डारण स्थान स्वच्छ होना चाहिए . फलों का उपचार बोरेक्स या नमक से करना चाहिए जिससे रोग का प्रकोप न हो.
यह रोग आंवले की पत्तियों व फलों पर सितम्बर अक्टूबर में दिखाई देता है| पत्तियों पर पहले छोटे, गोल, भूरे, पीले किनारों वाले धब्बे नजर आते है. धब्बों का मध्य भाग हल्का भूरा तथा काले पिन के सिरे से उभार सहित दिखाई देता है. फलों पर धंसे हुए भूरे धब्बे बनते हैं. जिनके मध्य में पिन के सिरे से गोलाई में गहरे काले उभार दिखाई देते हैं. धब्बे विभिन्न आकार तथा साइज के बनते हैं. अधिक नमी होने पर धब्बे से बीजाणु अधिक मात्रा में निकलते हैं, साथ ही फल सिकुड़े से नजर आते हैं और फिर सड़ जाते हैं.इस रोग के प्रबंध के लिए आवश्यक है की फल लगने से पूर्व साफ़ नामक फफूंदनाशक की 2 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर घोल कर छिडकाव करे तथा इसी घोल से फल की तुड़ाई से 20 से 25 दिन पूर्व पुनः छिडकाव करे .
आंवला में मृदू सड़न रोग को दिसम्बर से फरवरी के मध्य अधिक देखा जाता है. धुंए से भूरे काले, गोल धब्बे फलों पर 2 से 3 दिनों में विकसित होते हैं. संक्रमित भाग पर जलसिक्त भूरे रंग का धब्बा बनाता है, जो पूरे फल को करीब 8 दिनों में आच्छादित कर फल के आकार को विकृत कर देता है. ऐसे तो रोग छोटे तथा परिपक्व फल, दोनों को प्रभावित करता है, किन्तु परिपक्व फलों में इसका प्रकोप अधिक होता है. इस रोग के बढ़ने का कारण फलों में चोट लगना है. इस रोग से बचाव के लिए तुड़ाई से 20 दिन पूर्व आंवला के फलों पर डाइफोलेटान (0.15 प्रतिशत), डाइथेन एम- 45 या साफ़ (0.2 प्रतिशत) से छिडकाव करने से रोग की रोकथाम की जा सकती है.
आन्तरिक सड़न आंवला के फलों में देखी गयी है. आंवला की प्रजाति फ्रान्सिस में यह रोग सबसे अधिक होता है. बनारसी प्रजाति में भी इसका प्रकोप पाया गया है|. जब अन्तः उत्तक कड़ी लगती है, तब यह सबसे पहले अन्दर की ओर से भूरा होना आरम्भ करती है और बाद में मध्य उत्तक तथा अन्त में बाहरी भूरी काली नजर आती है. आमतौर पर सितम्बर के दूसरे तथा तीसरे सप्ताह में यह दिखाई देती है. रोग के बढ़ने पर ये भाग कार्कनुमा कड़ा हो जाता है तथा रिक्त स्थान बनते हैं, जो गोंद से भरे होते हैं. चकैइया, एन ए- 6 तथा एन ए- 7 में यह रोग नहीं देखा गया है. अतः इन प्रजातियों को लगाना चाहिए. इस विकार के प्रबंधन के लिए जिंक सल्फेट (0.4 %) कापर सल्फेट (0.4 %) तथा बोरेक्स (0.4 %) का छिड़काव सितम्बर से अक्टूबर के मध्य करना लाभप्रद होता है.
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