जानकर हैराह हो जाओगे की भारत में योग को प्राचीन भारतीय ऋषि मुनियों ने भविष्य के लिए कैसे तैयार किया है

Update: 2024-06-25 05:58 GMT

भारत में योग को प्राचीन भारतीय ऋषि मुनियों ने भविष्य के लिए:- 

योग (संस्कृत: योगः ) प्राचीन भारतीय ऋषिमुनियों और तत्त्ववेत्ताओं द्वारा by sages and philosophers प्रतिपादित एक विशिष्ट आध्यात्मिक प्रक्रिया है। पतंजलि ने 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' को योग कहा है। व्यास ने समाधि को ही योग माना है। योगवासिष्ठ के अनुसार योग वह युक्ति है जिसके द्वारा संसार सागर से पार जाया जा सकता है।
योग के कई सारे अंग और प्रकार होते हैं, जिनके जरिए हमें ध्यान, समाधि और मोक्ष तक पहुंचना होता हैै। 'योग' शब्द तथा इसकी प्रक्रिया और धारणा हिन्दू धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म में ध्यान प्रक्रिया से सम्बन्धित है। योग शब्द भारत से बौद्ध पन्थ के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्रीलंका में भी फैल गया है और इस समय सारे सभ्य जगत्‌ में लोग इससे परिचित हैं। सिद्धि के बाद पहली बार ११ दिसम्बर २०१४ को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रत्येक वर्ष २१ जून को विश्व योग दिवस के रूप में मान्यता दी है।
हिन्दू धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म में योग के अनेक सम्प्रदाय हैं, योग के विभिन्न लक्ष्य हैं तथा योग के अलग-अलग व्यवहार हैं। परम्परागत योग तथा इसका आधुनिक रूप विश्व भर में प्रसिद्ध हैं।
सबसे पहले 'योग' शब्द का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। इसके बाद अनेक उपनिषदों में इसका उल्लेख आया है After this it has been mentioned in many Upanishads। कठोपनिषद में सबसे पहले योग शब्द उसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जिस अर्थ में इसे आधुनिक समय में समझा जाता है।
माना जाता है कि कठोपनिषद की रचना ईसापूर्व पांचवीं और तीसरी शताब्दी ईसापूर्व के बीच के कालखण्ड में हुई थी। पतञ्जलि का योगसूत्र योग का सबसे पूर्ण ग्रन्थ है। इसका रचनाकाल ईसा की प्रथम शताब्दी या उसके आसपास माना जाता है। हठ योग के ग्रन्थ ९वीं से लेकर ११वीं शताब्दी में रचे जाने लगे थे। इनका विकास तन्त्र से हुआ।
पश्चिमी जगत में "योग" को हठयोग के आधुनिक रूप में लिया जाता है जिसमें शारीरिक फिटनेस, तनाव-शैथिल्य तथा विश्रान्ति (relaxation) की तकनीकों की प्रधानता है। ये तकनीकें मुख्यतः आसनों पर आधारित हैं जबकि परम्परागत योग का केन्द्र बिन्दु ध्यान है और वह सांसारिक लगावों से छुटकारा दिलाने का प्रयास करता है। पश्चिमी जगत में आधुनिक योग का प्रचार-प्रसार भारत से उन देशों में गये गुरुओं ने किया जो प्रायः स्वामी विवेकानन्द की पश्चिमी जगत में प्रसिद्धि के बाद वहाँ गये थे।
व्युत्पत्ति, परिभाषा एवं प्रकार
योग शब्द युज् धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। धातुपाठ में युज्‌ शब्द के तीन अर्थ उपलब्ध होते हैं There are three meanings of the word YUJ in Dhatupatha - समाधि, संयोग, संयमन । लेकिन योगशात्र का प्रतिपादक शब्द निःसन्देह दिवादिगणीय "युज्" धातु से बना है जिसका व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है 'समाधि' । व्यास जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है - "योगः समाधिः"। वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योगे’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा। आगे योग में हम देखेंगे कि आत्मा और परमात्मा के विषय में भी योग कहा गया है।
पाणिनीय गणपाठ में तीन 'युज्' धातुओं का पाठ मिलता हैं - In the Paniniya Ganapatha, we find the mention of three 'Yuj' metals 
१) युज् समाधौ – दिवादिगणीय
२) युजिर् योगे – रुधादिगणीय
३) युज् संयमने - चुरादिगणीय
युज् समाधौ – दिवादिगणीय युज् धातु का अर्थ है, समाधि । समाधि का प्रकृति प्रत्यय अर्थ है, सम्यक् स्थापन। दूसरे अर्थ मे समाधि की सिद्धि के लिए जुड़ना ।
युजिर् योगे – रुधादिगणीय युज् धातु का अर्थ है, जुड़ना, जोड़ना, मेल करना, संयोग करना अर्थात् इस दु:ख रूप संसार से वियोग तथा ईश्वर से संयोग का नाम योग है । भगवद्गीता में भी वर्णन मिलता है - तं विद्यात् दुखंसंयोगवियोगं योग संज्ञितम् । 
युज् संयमने – चुरादिगणीय युज् धातु का अर्थ है, संयमन अर्थात् मन का संयम अथवा मन का नियमन । मन को संयमित करना ही योग है।
इस प्रकार योग का अर्थ हुआ - "योग साधनाओं को अपनाते हुए मन को नियन्त्रित कर, संयमित कर, आत्मा का परमात्मा से मिलन" ।
परिभाषा ऐसी होनी चाहिए जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से मुक्त हो, योग शब्द के वाच्यार्थ का ऐसा लक्षण बतला सके जो प्रत्येक प्रसंग के लिये उपयुक्त हो और योग के सिवाय किसी अन्य वस्तु के लिये उपयुक्त न हो। भगवद्गीता प्रतिष्ठित ग्रन्थ माना जाता है। उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, सन्यासयोग, कर्मयोग। वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं। पतंजलि योगदर्शन में 'क्रियायोग' शब्द देखने में आता है। पाशुपत योग और माहेश्वर योग जैसे शब्दों के भी प्रसंग मिलते है। इन सब स्थलों में योग शब्द के जो अर्थ हैं वह एक दूसरे से भिन्न हैं ।
गीता में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है 'योगः कर्मसु कौशलम्‌' At one place in the Gita, Lord Krishna has said 'Yoga: Karmasu Kaushalam'
( कर्मों में कुशलता ही योग है।) यह वाक्य योग की परिभाषा नहीं है। कुछ विद्वानों का यह मत है कि जीवात्मा और परमात्मा के मिल जाने को योग कहते हैं। इस बात को स्वीकार करने में यह बड़ी आपत्ति खड़ी होती है कि बौद्धमतावलम्बी भी,
जो परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं। यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं। पतञ्जलि ने योगसूत्र में, जो परिभाषा दी है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।
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