पितरों के नाम का श्राद्ध करना क्यों हैं जरूरी, जानें पितृ पक्ष की पौराणिक कथा

Update: 2023-10-03 13:36 GMT
हर साल पितृ पक्ष के दौरान अपने पितरों के नाम का श्राद्ध उनके परिवार को करना चाहिए. लेकिन जो लोग ऐसा नहीं करते उन्हें पितृदोष लगता है. ऐसे लोगों के घर में दरिद्रता आ जाती है, आर्थिक हानि होती है, तरक्की के मार्ग खुलने से पहले बंद हो जाते हैं और जो लोग पितृ पक्ष के दौरान अपने पितरों के नाम का श्राद्ध तर्पण करते हैं. उनके लिए उनकी पसंद के पकवान बनाते हैं उन पर पितरों की कृपा हमेशा बनीं रहती है. श्राद्ध करना क्यों जरूरी है, पितृ पक्ष की महत्त्वता को समझने के लिए ये पौराणिक कथा जानिए.
पौराणिक कथा के अनुसार एक बार की बात है एक गांव में जोगे और भोगे नाम के दो भाई थे. दोनों अलग-अलग रहते थे. जोगे धनी था और भोगे निर्धन. लेकि दोनों में परस्पर बड़ा प्रेम था. जोगे की पत्नी को धन का अभिमान था, किंतु भोगे की पत्नी बड़ी सरल हृदय थी.
पितृ पक्ष आने पर जोगे की पत्नी ने अपने पति से पितरों का श्राद्ध करने के लिए कहा तो जोगे इसे व्यर्थ का कार्य समझकर टालने लगा, लेकिन उसकी पत्नी समझती थी कि अगर ऐसा नहीं करेंगे तो लोग बातें बनाएंगे. लेकिन फिर भी पितरों का श्राद्ध करने की बजाए उसने अपने मायके से लोगों को बुलाकर दावत देने की सोची. उसे अपने मायके वालों को दावत पर बुलाने और अपनी शान दिखाने का यह उचित अवसर लगा.
जोगे की पत्नी ने अपने पति से कहा कि आप ये सोच रहे हैं कि मैं परेशान हो जाऊंगी दावत का काम कैसे करुंगी तो आप चिंता ना करें, मुझे इसमें कोई परेशानी नहीं होगी. मैं भोगे की पत्नी को बुला लूंगी. दोनों मिलकर सारा काम कर लेंगी, फिर उसने जोगे को अपने पीहर न्यौता देने के लिए भेज दिया. दूसरे दिन उसके बुलाने पर भोगे की पत्नी सुबह-सवेरे आकर काम में जुट गई. उसने रसोई तैयार की. अनेक पकवान बनाए फिर सभी काम निपटाकर अपने घर आ गई. आखिर उसे भी तो पितरों का श्राद्ध-तर्पण करना था.
इस अवसर पर न जोगे की पत्नी ने उसे रोका, न वह रुकी. इतने में दोपहर हो गई. पितर भूमि पर उतरे. जोगे-भोगे के पितर पहले जोगे के यहां गए तो क्या देखते हैं कि उसके ससुराल वाले वहां भोजन पर जुटे हुए हैं. निराश होकर वे भोगे के यहां गए. वहां क्या था? मात्र पितरों के नाम पर अगियारी दे दी गई थी. पितरों ने उसकी राख चाटी और भूखे ही नदी के तट पर जा पहुंचे.
थोड़ी देर में सारे पितर इकट्ठे हो गए और अपने-अपने यहां के श्राद्धों की बढ़ाई करने लगे. जोगे-भोगे के पितरों ने भी अपनी आप बीती सुनाई. फिर वे सोचने लगे- अगर भोगे समर्थ होता तो शायद उन्हें भूखा न रहना पड़ता, मगर भोगे के घर में तो दो लोगों की रोटी भी खाने को नहीं थी. यही सब सोचकर उन्हें भोगे पर दया आ गई. अचानक वे नाच-नाचकर गाने लगे-भोगे के घर धन हो जाए. भोगे के घर धन हो जाए.
थोड़े समय बाद शाम हो गयी. भोगे के बच्चों को कुछ भी खाने को नहीं मिला था. उन्होंने मां से कहा- भूख लगी है. तब उन्हें टालने की गरज से भोगे की पत्नी ने कहा- जाओ! आंगन में हौदी औंधी रखी है, उसे जाकर खोल लो और जो कुछ मिले, बांटकर खा लेना
बच्चे वहां पहुंचे, तो क्या देखते हैं कि हौदी मोहरों से भरी पड़ी है. वे दौड़े-दौड़े मां के पास पहुंचे और उसे सारी बातें बताईं. आंगन में आकर भोगे की पत्नी ने यह सब कुछ देखा तो वह भी हैरान रह गई.
इस प्रकार भोगे भी धनी हो गया, मगर धन पाकर वह घमंडी नहीं हुआ. दूसरे साल का पितृ पक्ष आया. श्राद्ध के दिन भोगे की स्त्री ने छप्पन प्रकार के व्यंजन बनाएं. ब्राह्मणों को बुलाकर श्राद्ध किया. भोजन कराया, दक्षिणा दी. जेठ-जेठानी को सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन कराया. इससे पितर बड़े प्रसन्न तथा तृप्त हुए. उसे जीवनभर खुश रहने का आशीर्वाद देकर गए.
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