जब अर्जुन ने द्रौपदी के पिता को किया कैद

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Update: 2023-06-05 19:04 GMT

The story of द्रोणाचार्य |  आचार्य द्रोण महर्षि भारद्वाज के पुत्र थे। उन्होंने पहले अपने पिता के पास वेद-वेदांतों का अध्ययन किया और बाद में उनसे धनुर्विद्या सीखी। पांचाल-नरेश का पुत्र द्रुपद भी द्रोण के साथ भारद्वाज आश्रम में शिक्षा पा रहा था। दोनों में गहरी मित्रता थी। कभी-कभी राजकुमार द्रुपद उत्साह में आकर द्रोण से यहां तक कह देता था कि पांचाल देश का राजा बन जाने पर मैं आधा राज्य तुम्हें दे दूंगा। शिक्षा समाप्त होने पर द्रोणाचार्य ने कृपाचार्य की बहन से ब्याह कर लिया। उससे उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम उन्होंने अश्वत्थामा रखा। द्रोण अपनी पत्नी और पुत्र को बड़ा प्रेम करते थे। द्रोण बड़े गरीब थे।

वह चाहते थे कि किसी तरह धन प्राप्त किया जाए और स्त्री-पुत्र के साथ सुख से रहा जाए। उन्हें खबर लगी कि परशुराम अपनी सारी सम्पत्ति ब्राह्मणों को बांट रहे हैं तो भागे-भागे उनके पास गए लेकिन उनके पहुंचने तक परशुराम अपनी सारी संपत्ति वितरित कर चुके थे और वन गमन की तैयारी कर रहे थे।

द्रोण को देखकर वह बोले, ‘‘ब्राह्मण श्रेष्ठ आपका स्वागत है, पर मेरे पास जो कुछ था वह मैं बांट चुका। अब यह मेरा शरीर और मेरी धनुर्विद्या ही बाकी बची है। बताइए मैं आपके लिए क्या करूं?’’

तब द्रोण ने उनसे सारे अस्त्रों का प्रयोग, उपसंहार तथा रहस्य सिखाने की प्रार्थना की। परशुराम ने द्रोण को धनुर्विद्या की पूरी शिक्षा दे दी।

कुछ समय बाद राजकुमार द्रुपद के पिता का देहावसान हो गया और द्रुपद राजगद्दी पर बैठा। द्रोणाचार्य यह सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और राजा द्रुपद से मिलने पांचाल देश को चल पड़े। उन्हें द्रुपद की बातचीत याद थी। सोचा यदि आधा राज्य न भी देगा तो कम से कम कुछ धन तो जरूर ही देगा।

द्रोणाचार्य जब उससे मिलने पहुंचे तो ऐश्वर्य के मद में मत्त हुए द्रुपद को उनका आना बुरा लगा। वह बोला, ‘‘मुझे मित्र कह कर पुकारने का तुम्हें साहस कैसे हुआ? सिंहासन पर बैठे हुए एक राजा के साथ एक दरिद्र प्रजनन की मित्रता कभी हुई है? लड़कपन में लाचारी के कारण हम दोनों को जो साथ रहना पड़ा, उसके आधार पर तुम द्रुपद से मित्रता का दावा करने लगे।’’

द्रोणाचार्य बड़े लज्जित हुए और उन्होंने निश्चय किया कि मैं इस अभिमानी राजा को सबक सिखाऊंगा। एक दिन हस्तिनापुर के राजकुमार नगर के बाहर कहीं गेंद खेल रहे थे कि इतने में उनकी गेंद एक अंधे कुए में जा गिरी। युधिष्ठिर उसे निकालने का प्रयत्न करने लगे तो उनकी अंगूठी भी कुएं में गिर पड़ी। सभी राजकुमार कुएं के चारों ओर खड़े हो गए और पानी के अंदर चमकती हुई अंगूठी को झांक-झांक कर देखने लगे, पर उसे निकालने का उपाय उनको सूझ नहीं रहा था।

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