इस तरह बौद्ध धर्म में हुई थी महिलाओं की भिक्षुणियों बनने की शुरुआत...जाने इसके पीछे का महत्व
पिता के निधन बाद बुद्ध कपिलवस्तु में तीन महीने रहे। उनकी मां ने भिक्षुणी बनना चाहा, तो बुद्ध ने कहा कि अभी उपयुक्त समय नहीं आया है।
पिता के निधन बाद बुद्ध कपिलवस्तु में तीन महीने रहे। उनकी मां ने भिक्षुणी बनना चाहा, तो बुद्ध ने कहा कि अभी उपयुक्त समय नहीं आया है। उनके जाने के बाद गौतमी ने उन सभी महिलाओं के साथ बैठक की, जो भिक्षुणी बनना चाहती थीं। बैठक में आवाज उठी कि महिलाएं पुरुषों से किसी तरह कम नहीं हैं। उन्हें भिक्षुणी बनने से रोकना, उनके साथ भेदभाव है। अस्पृश्य, भिक्षु बन सकते हैं तो हम क्यों नहीं?
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फिर पचास महिलाओं ने आभूषण त्यागे, सिर मुंडवाए और भिक्षा मांगते हुए वैशाली पहुंचीं। वहां उनकी मुलाकात आनंद से हुई। गौतमी ने आनंद से कहा, 'हम भिक्षुणी बनने के लिए यहां आए हैं।' आनंद ने बुद्ध को सूचित किया तो प्रमुख भिक्षुओं की एक सभा हुई। सभा ने भिक्षुणियों के लिए कुछ नियम बनाए। आनंद ने जब इन नियमों की घोषणा की तो गौतमी ने तुरंत स्वीकृति दी और पचास महिलाओं के साथ संघ में शामिल हो गयीं। आम्रपाली के आम्रवन में साधना के प्रशिक्षण साथ सबके रहने की व्यवस्था की गई। इस तरह बौद्ध धर्म में महिलाओं के धार्मिक कार्यों की नींव पड़ी
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आठ दिन बाद गौतमी ने बुद्ध से पूछा, 'हम लोग मुक्ति के मार्ग पर शीघ्र आगे कैसे बढ़ सकते हैं?' बुद्ध बोले, 'मन वश में करना पहली शर्त है। प्राणायाम करो, इससे शरीर, मन और भावनाएं- तीनों नियंत्रित होती हैं। नियंत्रण से विनम्रता, सहजता, अनासक्ति, शांति और आनंद बढ़ता है। जब ये गुण आ जाएं तो समझिए कि आपकी चेतना जाग गई, और चेतना का जागरण ही मुक्ति का मार्ग है।' इस प्रकार बुद्ध ने भिक्षु व भिक्षुणियों को समान अवसर प्रदान करके बौद्ध संघ को नई दिशा दी। आम्रपाली और गौतमी के साथ टाल-मटोल तो तब के समाज में महिला धर्माधिकारियों की अस्वीकृति को रोकने का एक उपक्रम था।