भगवान शिव के प्रिय भोजन, संगीत और नृत्य जो भारतीय समाज में रचे-बसे हैं...

स्वीडन के CERN के मुताबिक शिव का तांडव कॉस्मिक डांस और शक्ति का लाइफ़ फोर्स, क्वांटम फ़िज़िक्स के ‘कॉस्मिक डांस’ के अध्ययन का रूपक मात्र है और संस्थान ने इस तरह के कलात्मक रूपकों को अलग-अलग संस्कृतियों से चुनकर जगह दी है. शाब्दिक अर्थ पर जाएं, तो नटराज का अर्थ होता है ‘मंच का भगवान’.

Update: 2022-03-01 02:12 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। शिवरात्रि, भगवान शिव (Lord Shiva) का सबसे बड़ा त्योहार है. मानते हैं कि महाशिवरात्रि (MahaShivratri) के दिन ही शिव और पार्वती (Shiv Parvati) का विवाह हुआ था और इस त्योहार से जुड़े तमाम श्रुतिफलों का सार भगवान शिव को प्रसन्न करना है. शिव भारतीय संस्कृति में ईश्वर से कहीं ज़्यादा हैं. वे संस्कृति के अलग-अलग पहलुओं पर अलग-अलग रूपों में प्रभाव छोड़ते हैं.

एक ओर जहां योगियों का ईश्वर कृष्ण को माना जाता है, वहीं शिव योगी राज अर्थात सर्वश्रेष्ठ योगी हैं. इसके साथ ही संगीत के साधकों और नृत्य के उपासकों के लिए वे गुरू भी हैं. आइए जानते हैं भारतीय संस्कृति के ऐसे ही कुछ पहलुओं को जहां शिव आराध्य से कहीं ज़्यादा हैं.
सिर्फ़ भांग, धतूरा और दूध नहीं
उत्तर भारत के पॉप कल्चर ने भगवान शिव की एक खास छवि को लोकप्रिय किया है. इसमें भांग, धतूरा, कांवड़ और खास तरह की बूटियां हैं जो आदमी को ट्रांस में ले जाती हैं, लेकिन सांस्कृतिक रूप से शिव के प्रिय भोजन में बहुत सी चीज़ें हैं. अगर सरस्वती ज्ञान और लक्ष्मी धन की देवी हैं तो पार्वती को अन्नपूर्णा माना जाता है. इसीलिए, काशी विश्वनाथ मंदिर में रोज़ रात 10 बजे उन्हें खीर का भोग लगाया जाता है. इस मान्यता के साथ कि पार्वती हर रात अपने पति को खीर बनाकर खिलाती हैं. एकादशी वाले दिन चावल से बचने के लिए, फल और मेवे का भोग लगता है. त्रयंबकेश्वर के नैवेद्य भोग में दाल-चावल, एक सूखी एक रसीली सब्ज़ी, कढ़ी, रोटी और खीर जैसा रोज़ का भोजन शामिल होता है.
इसी तरह चावल की अधिकता वाले उड़ीसा के लिंगराज मंदिर के भोजन में स्थानीय प्रभाव दिखता है. वहां भोग में खिचड़ी चढ़ती है. मूंग की दाल होती है. धान से बनी तमाम चीज़ें, सरसों पीस कर उसमें पकाई गई सब्ज़ियां होती हैं. परवल की सब्ज़ी और छोले का भोग भी लगता है. तमिलनाडु के अरुणांचलेश्वर मंदिर का भोग उत्तर भारत से बहुत अलग है. वहां मूंग की दाल की पायस है, सांबर है, अप्पम हैं और दही है. इसी तरह, तमिलनाडु के ही त्यागराज मंदिर में भगवान को प्लेन दोसा और पोंगल भी समर्पित किया जाता है. वहीं कांची के जुरारेश्वर मंदिर में एक अलग ही परंपरा है. तमिल में इसका अर्थ है बुखार के ईश्वर. वहां भगवान को गर्मा-गरम मिलगु रसम दिया जाता है. यह रसम बुखार से पीड़ित लोगों का पथ्य है. मान्यता है कि इससे शिव अपने भक्तों की बीमारी दूर करते हैं. इनके अलावा कई जगहों पर भगवान शिव और नंदी को दूब घास भी चढ़ाई जाती है और माना जाता है कि इससे उनके पशुओं के दूध देने की क्षमता बढ़ती है.
नटराज
लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर वाले, स्वीडन के CERN (Conseil Europeen pour la Recherche Nucleaire) के इंस्टिट्यूट में नटराज की एक मूर्ति लगी है. हो सकता है कि आपने सोशल मीडिया पर यह पढ़ा हो कि क्वांटम फ़िज़िक्स का आधार वेदों में दिया गया है और इसीलिए यह मूर्ति लगाई गई है. सच इससे बिल्कुल अलग है. नटराज की यह मूर्ति भारत ने इस संस्थान को तोहफ़े में दी थी. कारण है कि नटराज के रूप में शिव की प्रतिमा ब्रह्मांड में विनाश के बीच सृजन का प्रतीक है. नटराज आग की लपटों के बीच नृत्य मुद्रा में हैं.

CERN के मुताबिक शिव का तांडव कॉस्मिक डांस और शक्ति का लाइफ़ फोर्स, क्वांटम फ़िज़िक्स के 'कॉस्मिक डांस' के अध्ययन का रूपक मात्र है और संस्थान ने इस तरह के कलात्मक रूपकों को अलग-अलग संस्कृतियों से चुनकर जगह दी है. शाब्दिक अर्थ पर जाएं, तो नटराज का अर्थ होता है 'मंच का भगवान'. इसके मुताबिक ब्रह्मांड एक मंच है और उसमें होने वाली सारी चीज़ें उनके प्रदर्शन का हिस्सा हैं. नटराज की मूर्ति का इतिहास दक्षिण भारत के चोल राजवंश से जोड़ा जाता है. 9वीं से 13वीं शताब्दी तक हुए चोल शासन में मान्यता थी कि भगवान शिव ने चिदंबरम शहर में ही अपना तांडव किया था.

उसी समय से नृत्य मुद्रा में शिव की पीतल और कांसे की मूर्तियां प्रचलन में हैं. चोल राजवंश के समय में बनी नटराज की सबसे शुरुआती प्रतिमा फिलहाल दिल्ली के नेशनल म्यूज़ियम में रखी हुई है. भारत के कलात्मक इतिहास के सबसे शानदार उदाहरणों को देखना हो, तो एक बार नेशनल म्यूज़ियम जाकर इसे देख सकते हैं. वैसे भी सरकार की योजना इसे गिराकर अलग-अलग म्यूज़ियम बनाने की है. फिर यह मूर्ति कहां देखने को मिलेगी या कब देखने को मिलेगी किसी को नहीं पता है.
भैरव, भैरवी और शिवरंजनी
शिव का शब्दों और ध्वनियों के साथ जुड़ाव प्राचीन समय से माना जाता है. मान्यता है कि तांडव खत्म होने पर शिव ने 14 बार डमरू बजाया जिसके आधार पर पाणिनी मे 14 माहेश्वर सूत्रों की रचना की जिनसे वर्णमाला और तमाम रचनाएं बनीं. आज के डीजे वाले युग में कांवड़ के साथ एक खास तरह का संगीत भगवान शिव के साथ जोड़ दिया गया है, लेकिन शास्त्रीय संगीत में शिव का जुड़ाव है. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ऐसे तमाम राग हैं जो भगवान शिव को समर्पित हैं. कहा जाता है कि ये शिव की प्रिय रचनाए हैं. डमरू की ताल पर बने शिव-तांडव के तमाम वर्शन तो आपने सुने ही होंगे. सुबह गाया जाने वाला राग भैरव भगवान शिव के प्रिय रागों में से एक माना जाता है. इसमें तमाम कोमल स्वर लगते हैं और माना जाता है कि ये रूह को जगाने वाला राग है.
हिंदी सिनेमा ने अक्सर गुरू शिष्य परंपरा को दिखाते समय इस राग का इस्तेमाल किया है. फिल्म 'हम दिल दे चुके सनम' और 'बाजीराव' मस्तानी का गाना 'अलबेला साजन आयो रे' अहीर भैरव पर आधारित है.इसके अलावा 'दो आंखें बारह हाथ' का 'ऐ मालिक तेरे बंदे हम' जैसे तमाम गीत इस पर आधारित हैं. इसी तरह राग भैरवी है, जिसे सदा सुहागन राग मान जाता है, यानि इसके गानों को कभी-भी किसी भी समय गा सकते हैं. भैरवी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का सबसे प्रिय राग कहा जा सकता है. 'हमें तुमसे प्यार कितना' से लेकर 'बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं', 'जब दिल ही टूट गया', 'दोस्त दोस्त ना रहा', 'ऐ मेरे दिल कहीं और चल', 'रमैया वस्तावैया, 'जिया जले जान जले' और 'छल्ला गली-गली हंसता फिरे' तक का आधार भैरवी है.
इसी क्रम में राग शिवरंजनी है, जिसे मध्य रात्रि का राग मानते हैं. बहारों फूल बरसाओ, जाने कहां गए वो दिन, दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर जैसे गाने और एक दूजे के लिए फिल्म का सुपरहिट 'तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन अंजान' भी शिवरंजनी पर आधारित रचनाएं हैं. कुल मिलाकर, भगवान शिव एक ऐसे आराध्य हैं, जो धार्मिक कर्मकांडों से ज़्यादा संस्कृति और कला के निकट हैं. उनके तमाम रूप हैं. रुद्र नाम से भले ही रौद्र रस का खयाल आता हो, लेकिन रुद्रवीणा के स्वरों में मिठास ही होती है. मरहूम बिस्मिल्ला खां साहब बताते थे कि सुबह की अजान और राग भैरव के सुर एक जैसे लगते हैं. इस शिवरात्रि, बेलपत्र आदि से पूजा करिए, तो साथ ही उनके विविधता वाले रूप को भी याद रखिए.


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