जनता से रिश्ता वेबडेस्क | Sita Ji Born Story In Ramayan: यूं तो निमिवंश में जितने भी राजा हुए सब जनक कहलाते थे और ब्रह्मज्ञानी होने के कारण उन सब को विदेह की संज्ञा दी गई फिर भी जनक के नाम से सर्वाधिक प्रसिद्ध सीता जी के पिता जी ही हुए हैं. उनका नाम सीरध्वज भी था. दरअसल हल की नोक को सीर कहते हैं. एक बार मिथिला राज्य में भयंकर सूखा और अकाल पड़ा. राज्य के विद्वानों ने चर्चा की कि यदि राजा स्वयं खेत को जोत कर यज्ञ करें तो वर्षा होगी. बस महाराज हल चलाने के लिए खेत में उतर पड़े जिस समय वे हल चला रहे थे तभी हल की नोक लगने से पृथ्वी से एक कन्या निकली जिन्हें जनक जी घर ले आए और उन्हें अपनी सगी पुत्री मान लालन पालन करने लगे. यही कन्या जगज्जननी माता सीता हुईं.
माहेश्वर धनुष को उठाने वाले से सीता के विवाह की घोषणा
जनक जी ब्रह्मज्ञानी थे, प्रजापालन का कार्य अच्छी तरह से करते थे. ऋषि महर्षि उनके पास ज्ञान चर्चा करने और ब्रह्मज्ञान सीखने आते थे. वे शिवजी के इतने बड़े भक्त थे कि उन्होंने अपना माहेश्वर धनुष उन्हें धरोहर के रूप में दे रखा था. एक बार घर की साफ सफाई करते हुए सीता जी ने उस प्रलयंकारी विशाल धनुष को एक हाथ से हटा दिया और सफाई करने के बाद फिर उसे यथा स्थान पर रख दिया. बस इस घटना को देख महाराजा जनक ने घोषणा कर दी कि जो भी कोई हमारे इस माहेश्वर धनुष को उठा लेगा उसी के साथ अपनी पुत्री का विवाह करुंगा.
राम-लक्ष्मण को देख कर सुध बुध को बैठे राजा जनक
महर्षि विश्वामित्र श्री राम और लक्ष्मण को लेकर मिथिलापुरी पधारे, इस सूचना को पाते ही महाराजा जनक अपने मंत्रियों और पुरोहितों के साथ उनका सत्कार करने पहुंचे. विधिवत ऋषि का पूजन और कुशलक्षेम पूछने के बाद रुकने का निवेदन किया. ऋषि ने दोनों को पूजन के लिए पुष्प लेने भेज दिया था. जब दोनों भाई ऋषि के सामने पुष्प लेकर पहुंचे तो जनक जी दोनों को निहारते हुए अपनी सुध-बुध खो बैठे. बड़ी मुश्किल से अपने को संभालते हुए ऋषि विश्वामित्र से कहा,
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा, उभय बेष धरि की सोई आवा ।
सहज बिरागरूप मनु मोरा, थकित होत जिमि चंद्र चकोरा।
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा, बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा।
जब लक्ष्मण जी ने राजा जनक को डपट दिया
महाराज जनक का संकेत समझ कर कहा, ये दोनों रघुकुल नरेश महाराजा दशरथ के पुत्र हैं और मेरे पास शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. महाराज का आतिथ्य स्वीकार कर वे भी राम लक्ष्मण के साथ मिथिला में रुक गए. इधर महाराज को घोषणा के आधार पर सीता के स्वयंवर का आयोजन हुआ जिसमें विभिन्न स्थानों के राजा पधारे किंतु जब किसी भी राजा से धनुष टस से मस नहीं हुआ तो महाराजा ने निराश होते हुए स्वयंवर सभा को संबोधित करते हुए कहा कि लगता है अब यह धरा वीरों से विहीन हो गई है. अब तो मेरी बेटी सीता का विवाह नहीं हो सकेगा और वह कुंवारी ही रहेगी. यह बात लक्ष्मण जी को बहुत खराब लगी और उन्होंने लगभग डांटते हुए कहा कि आपका कथन ठीक नहीं है, रघुकुल के बड़े कुमार यहां उपस्थित हैं जो वीरों के भी वीर हैं.
इसके बाद श्री राम ने धनुष को तोड़ दिया तो परशुराम जी उपस्थित हुए और शिव जी का धनुष तोड़ने पर बहुत कुछ कहा सुना पर धीर गंभीर ब्रह्मज्ञानी जनक जी बीच में नहीं बोले और गंभीर बने रहे.