शरीर और मन स्वस्थ रहे तो अभीष्ट समर्थता प्राप्त हो सकती है । चिंतन और चरित्र सही हो तो फिर सज्जनोचित व्यवहार भी बन पड़ता है, शिष्टाचार और मित्रता का सहयोगी क्षेत्र सुविस्तृत होता है, यह बड़ी उपलब्धियाँ हैं। हम सुधरें तो जग सुधरे की उक्ति छोटी होते हुए भी अत्यंत मार्मिक और सारगर्भित है। दूसरों की सेवा सहायता करने में आरंभिक किंतु अत्यंत प्रभावी तरीका यह है कि जैसा दूसरों को देखना चाहते हैं वैसा स्वयं बनकर दिखाएँ। दूसरे अपनी इच्छा अनुसार बनें या ना बनें, चलें या न चलें, यह संदिग्ध है, क्योंकि सभी पर अपना प्रभाव अधिकार कहाँ है ? पर अपना आपा तो पूर्णतया अपने अधिकार क्षेत्र में है। जब शरीर को इच्छा अनुसार चलाया जा सकता है, जब अपने पैसे को इच्छानुरूप खर्च किया जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि अपने स्वभाव और क्रियाकलापों को इस ढाँचे में न ढाला जा सके, जिसे शालीनता का प्रतीक-प्रतिनिधि कहा जा सके ।
श्रेष्ठ शुभारंभ अपने घर से ही किया जाना चाहिए। घर का दीपक जलता है तो आंगन से लेकर पड़ोस तक में प्रकाश फैलाता है। दूसरों को प्रभावित करने, बदलने से पहले यदि उसी स्तर का स्वयं अपने को बना लिया जाए तो निश्चित रूप से आधी समस्या हल हो जाती है। अपनी और आँखें बंद रखी जाएँ और दूसरों को सुधारने समझाने के लिए निकल पड़ा जाए तो बात बनती नहीं, अभीष्ट सफलता मिलती नहीं। विफलता की ऐसी निराशा भरी घड़ी आने से पूर्व अच्छा यह है कि कम से कम अपने को तो उस स्तर का बना ही लिया जाए जैसा कि अन्यान्य लोगों को देखना चाहते हैं।
उपरोक्त प्रवचन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक समग्र स्वास्थ्य संवर्धन कैसे ? पृष्ठ-27 से लिया गया है।