जानिए गर्भगृह मंदिरस्थापत्य का क्या अर्थ होता है, और मंदिर में यह कौन से भाग में होता है

Update: 2024-06-25 07:17 GMT
गर्भगृह मंदिरस्थापत्य का शब्द:- Garbhagriha Temple Architecture Term
गर्भगृह मंदिर का वह भाग है जिसमें देवमूर्ति की स्थापना की जाती है।
परिचय Introduction
वास्तुशास्त्र के अनुसार देवमंदिर के ब्रह्मसूत्र या उत्सेध की दिशा में नीचे से ऊपर की ओर उठते हुए कई भाग होते हैं। पहला जगती, दूसरा अधिष्ठान, तीसरा गर्भगृह, चौथा शिखर और अंत में शिखर के ऊपर आमलक और कलश।
जगती मंदिरनिर्माण के लिए ऊँचा चबूतरा है जिससे प्राचीन काल में मंड भी कहा जाता था। इसे ही आजकल कुरसी कहते हैं। इसकी ऊँचाई और लंबाई, चौड़ाई गर्भगृह के अनुसार नियत की जाती है। जगती के ऊपर कुछ सीढ़ियाँ बनाकर अधिष्ठान की ऊँचाई तक पहुँचा जाता था 
The height of the adhishthan was reached by making some stairs,
इसके बाद का भाग (मूर्ति का कोठा) गर्भगृह होता है जिसमें देवता की मूर्ति स्थापित की जाती है।
प्राय: द्वार बहुत अलंकृत बनाया जाता था उसके स्तंभ कई भागों में बँटे होते थे। प्रत्येक बाँट को शाखा कहते थे। द्विशाख, त्रिशाख, पंचशाख, सप्तशाख, नवशाख तक द्वार के पार्श्वस्तंभों का वर्णन मिलता है। इनके ऊपर प्रतिहारी या द्वारपालों की मूर्तियाँ अंकित की जाती हैं
 
Statues of guards or gatekeepers are carved on top.। एवं प्रमथ, श्रीवक्ष, फुल्लावल्ली, मिथुन आदि अलंकरण की शोभा के लिए बनाए जाते हैं। गर्भगृह के द्वार के उत्तरांग या सिरदल पर एक छोटी पूर्ति बनाई जाती है, जिसे लालाटबिंब कहते हैं। प्राय: यह मंदिर में स्थापित देवता के परिवार की होती है ; जैसे विष्णु के मंदिरों में या तो विष्णु के किसी अवतारविशेष की या गरुड़ की छोटी मूर्ति बनाई जाती है। गुप्तकाल में मंदिर के पार्श्वस्तंभों पर मकरवाहिनी गंगा और कच्छपवाहिनी यमुना की मूर्तियाँ अंकित की जाने लगीं।
गर्भगृह के तीन ओर की भित्तियों में बाहर की ओर जो तीन प्रतिमाएँ बनाई जाती हैं, उन्हें रथिकाबिंव कहते हैं। ये भी देवमूर्तियाँ होती हैं जिन्हें गर्भगृह की प्रदक्षिणा करते समय प्रणाम किया जाता है।
गर्भगृह की लंबाई चौड़ाई प्राय: छोटी ओर बराबर होती है। प्रदक्षिण पथ से घिरे मंदिरों में प्राय: अँधेरा रहती है, इस कारण उन्हें सांधार कहते हैं। गर्भगृह मंदिर का हृदयस्थान है। यह पूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा हो जाने के बाद अत्यंत पवित्र माना जाता है।
विष्णु आदि की मूर्तियाँ प्राय: पिछली दीवार के सहारेरखी जाती हैं placed against the back wall और शिवलिंग की स्थापना गर्भगृह के बीचोबीच होती हैं। देवतत्त्व की दृष्टि से गर्भगृह अत्यंत मांगलिक और महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। यही मंदिर का ब्रह्मस्थान है। देवगृह के भीतरी भाग में दीवारों पर प्राय: और कोई रचना नहीं करते किंतु इसके अपवाद भी हैं। देवगृह की छत प्राय: सपाट होती हैं किंतु शिखर सहित मंदिरों में इसका भी अपवाद देखा जाता है। आरंभकाल में देवगृह या मंडोवर की रचना संयत और सादी होती थी। 
बीच का निकला हुआ भाग या निर्गम रथ और दोनों कोनों के अंत:प्रविष्ट भाग प्रतिरथ कहलाते हैं। यदि निर्गम और प्रवेशवाले भागों की संख्या पाँच हुई तो बीच का भाग रथ, उसके दोनों ओर के भाग प्रतिरथ ओर दोनों कोनों के कोणर देवगृह का उठान नीचे की खुरशिला से लेकर कलश तक,
वास्तु और शिल्प के सुनिश्चित नियमों के अनुसार बनाया जाता है। उसमें एक एक घर के पत्थरों के नाम the names of the stones of each house in it, रूप या अलंकरण निश्चित हैं, किंतु उनके भेद भी अनंत हैं। गर्भगृह प्राय: चौकोर होता है, किंतु चतुरस्र आकृति के अतिरिक्त आयताकार बेसर (द्वयस्र) अर्थात एक ओर गोल तथा एक ओर चौकोर और परिमंडल ये आकृतियों भी स्वीकृत हैं, किंतु व्यवहार में बहुत कम देखी जाती हैं।
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