जानें मंगलनाथ मंदिर का पौराणिक इतिहास एवं भात पूजा की विधि

उज्जैन को मध्य प्रदेश की धार्मिक राजधानी माना जाता है. जहां पर द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक महाकाल का न सिर्फ पावन धाम है बल्कि यह धरतीपुत्र मंगल देवता का जन्म स्थान भी है. शिप्रा नदी के किनारे स्थित इस दिव्य धाम पर जाकर विधि-विधान से मंगल देवता की पूजा करने पर व्यक्ति के जीवन में सब मंगल ही मंगल होता है

Update: 2021-09-14 08:55 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। उज्जैन को मध्य प्रदेश की धार्मिक राजधानी माना जाता है. जहां पर द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक महाकाल का न सिर्फ पावन धाम है बल्कि यह धरतीपुत्र मंगल देवता का जन्म स्थान भी है. शिप्रा नदी के किनारे स्थित इस दिव्य धाम पर जाकर विधि-विधान से मंगल देवता की पूजा करने पर व्यक्ति के जीवन में सब मंगल ही मंगल होता है. सप्तपुरियों में से एक इस प्राचाीन नगरी में मंगल देवता का यह मंदिर अत्यंत ही सिद्ध और सभी मनोरथ को पूरा करने वाला है. इस मंदिर में मंगल देवता शिवलिंग के स्वरूप में विराजमान हैं. हालांकि लोगों का मानना है कि भगवान शिव ही मंगलनाथ के रूप में यहां पर मौजूद हैं. आइए उज्जैन के मंगलनाथ के धार्मिक महत्व को विस्तार से जानते हैं.

मंगलनाथ मंदिर की भात पूजा
मंगलनाथ मंदिर में मंगल दोष के निवारण और मनेाकामनाओं की पूर्ति के लिए प्रतिदिन भात पूजा का विधान है. ज्योतिष के अनुसार मंगल प्रधान व्यक्तियों को क्रोध बहुत आता है या फिर कहें कि उनका मन बहुत अशांत रहता है. ऐसे में उनके मन को नियंत्रित करने और और उनकी कुंडली के मंगल दोष को दूर करने के लिए उज्जैन के मंगलनाथ मंदिर में विशेष रूप से भात पूजा कराई जाती है, जिसके पुण्य लाभ से मंगल से संबंधित सभी दोष दूर हो जाते हैं और साधक के जीवन में सुख-समृद्धि का वास बना रहता है.
मंगलनाथ मंदिर का पौराणिक इतिहास
मंगलनाथ मंदिर के बारे में मान्यता है कि एक समय अंधकासुर नाम के दैत्य ने कठिन तपस्या के बल पर भगवान शिव से यह वरदान प्राप्त किया कि उसके रक्त की बूंदों से सैकड़ों दैत्य जन्म लेंगे. इसके बाद वह शिव के इस वरदान के बल पर पृथ्वी पर उत्पात मचाने लगा. तब सभी देवी-देवता भगवान शिव की शरण में गये. भगवान शंकर ने जब देवताओं की रक्षा के लिए उस राक्षस से युद्ध करना प्रारंभ किया तो उनके पसीने की एक बूंद पृथ्वी पर जा गिरी. जिसकी गर्मी से धरती फट गई और मंगल देवता का जन्म हुआ. इसके बाद भूमिपुत्र मंगलदेव ने उस दैत्य के शरीर से निकलने वाले रक्त को अपने भीतर सोख लिया और वह राक्षस मारा गया.


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