Jagannath Rath Yatra: भगवान जगन्नाथ के साथ जानिए रथ और महाप्रसाद की अनोखी बातें
भगवान जगन्नाथ रथयात्रा भारत में मनाए जाने वाले धार्मिक महामहोत्सवों में सबसे प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
भगवान जगन्नाथ रथयात्रा भारत में मनाए जाने वाले धार्मिक महामहोत्सवों में सबसे प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। यह रथयात्रा न केवल भारत अपितु विदेशों से आने वाले पर्यटकों के लिए भी ख़ासी दिलचस्पी और आकर्षण का केंद्र बनती है। भगवान श्रीकृष्ण के अवतार 'जगन्नाथ' की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है। सागर तट पर बसे पुरी शहर में होने वाली जगन्नाथ रथयात्रा उत्सव के समय आस्था का जो विराट वैभव देखने को मिलता है, वह और कहीं दुर्लभ है। इस रथयात्रा के दौरान भक्तों को सीधे प्रतिमाओं तक पहुंचने का बहुत ही सुनहरा अवसर प्राप्त होता है। हालांकि पिछले दो बार से कोरोना की वजह से ऐसा हो पाना मुश्किल है।
जगन्नाथ रथयात्रा 9 दिवसीय महोत्सव होता है। यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है। देश-विदेश से लाखों लोग इस पर्व के साक्षी बनने हर वर्ष यहां आते हैं, लेकिन कोरोना की वजह से इसके रंग फीके पड़ते नजर आ रहे हैं। भारत के चार पवित्र धामों में से एक पुरी के 800 वर्ष पुराने मुख्य मंदिर में योगेश्वर श्रीकृष्ण जगन्नाथ के रूप में विराजते हैं। साथ ही यहां बलभद्र एवं सुभद्रा भी हैं।
इतिहास
पौराणिक कथाओं के अनुसार 'राजा इन्द्रद्युम्न' भगवान जगन्नाथ को 'शबर राजा' से यहां लेकर आये थे तथा उन्होंने ही मूल मंदिर का निर्माण कराया था जो बाद में नष्ट हो गया। इस मूल मंदिर का कब निर्माण हुआ और यह कब नष्ट हो गया इस बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं है। 'ययाति केशरी' ने भी एक मंदिर का निर्माण कराया था। वर्तमान 65 मीटर ऊंचे मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में चोल 'गंगदेव' तथा 'अनंग भीमदेव' ने कराया था। परंतु जगन्नाथ संप्रदाय वैदिक काल से लेकर अब तक मौजूद है।
9 दिवसीय महोत्सव
पुरी का जगन्नाथ मंदिर के 9 दिवसीय महोत्सव की तैयारी का श्रीगणेश अक्षय तृतीया को श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण से हो जाता है। कुछ धार्मिक अनुष्ठान भी किए जाते हैं।
गरुड़ध्वज
जगन्नाथ जी का रथ 'गरुड़ध्वज' या 'कपिलध्वज' कहलाता है। 16 पहियों वाला यह रथ 13.5 मीटर ऊंचा होता है जिसमें लाल व पीले रंग के वस्त्र का प्रयोग होता है। विष्णु का वाहक गरु़ड़ इसकी रक्षा करता है। रथ पर जो ध्वज है, उसे 'त्रैलोक्यमोहिनी' या 'नंदीघोष' रथ कहते हैं।
तालध्वज
बलराम का रथ 'तलध्वज' के नाम से पहचाना जाता है। यह रथ 13.2 मीटर ऊंचा 14 पहियों का होता है। यह लाल, हरे रंग के कप़ड़े व लक़ड़ी के 763 टुक़ड़ों से बना होता है। रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मताली होते हैं। रथ के ध्वज को 'उनानी' कहते हैं। 'त्रिब्रा', ;घोरा', 'दीर्घशर्मा' व 'स्वर्णनावा' इसके अश्व हैं। जिस रस्सी से रथ खींचा जाता है, वह 'वासुकी' कहलाता है।
पद्मध्वज या दर्पदलन
सुभद्रा का रथ 'पद्मध्वज' कहलाता है। 12.9 मीटर ऊंचे 12 पहिए के इस रथ में लाल, काले कप़ड़े के साथ लकड़ी के 593 टुकड़ों का प्रयोग होता है। रथ की रक्षक 'जयदुर्गा' व सारथी 'अर्जुन' होते हैं। रथध्वज 'नदंबिक' कहलाता है। 'रोचिक', 'मोचिक', 'जिता' व 'अपराजिता' इसके अश्व होते हैं। इसे खींचने वाली रस्सी को 'स्वर्णचूड़ा' कहते हैं। दसवें दिन इस यात्रा का समापन हो जाता है।
बाहुड़ा यात्रा
आषाढ़ शुक्ल दशमी को जगन्नाथ जी की वापसी यात्रा शुरू होती है। इसे बाहुड़ा यात्रा कहते हैं। शाम से पूर्व ही रथ जगन्नाथ मंदिर तक पहुंच जाते हैं। जहां एक दिन प्रतिमाएं भक्तों के दर्शन के लिए रथ में ही रखी रहती हैं। अगले दिन प्रतिमाओं को मंत्रोच्चार के साथ मंदिर के गर्भगृह में पुन: स्थापित कर दिया जाता है। मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की सौम्य प्रतिमाओं को श्रद्धालु एकदम निकट से देख सकते है। भक्त एवं भगवान के बीच यहां कोई दूरी नहीं रखी जाती। काष्ठ की बनी इन प्रतिमाओं को भी कुछ वर्ष बाद बदलने की परंपरा है। जिस वर्ष अधिमास रूप में आषाढ़ माह अतिरिक्त होता है उस वर्ष भगवान की नई मूर्तियां बनाई जाती हैं। यह अवसर भी उत्सव के रूप में मनाया जाता है। पुरानी मूर्तियों को मंदिर परिसर में ही समाधि दी जाती है।
रथ का निर्माण
भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के लिए रथों का निर्माण लकड़ियों से होता है। इसमें कोई भी कील या कांटा, किसी भी धातु का नहीं लगाया जाता। यह एक धार्मिक कार्य है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहा है। रथों का निर्माण अक्षय तृतीया से 'वनजगा' महोत्सव से प्रारम्भ होता है तथा लकड़ियां चुनने का कार्य इसके पूर्व बसंत पंचमी से शुरू हो जाता है। पुराने रथों की लकड़ियां भक्तजन श्रद्धापूर्वक ख़रीद लेते हैं और अपने–अपने घरों की खिड़कियां, दरवाज़े आदि बनवाने में इनका उपयोग करते हैं।
सामुदायिक पर्व
रथयात्रा एक सामुदायिक पर्व है। घरों में कोई भी पूजा इस अवसर पर नहीं होती है तथा न ही कोई उपवास रखा जाता है। जगन्नाथपुरी और भगवान जगन्नाथ की कुछ मौलिक विशेषताएं हैं। यहां किसी प्रकार का जातिभेद नहीं है। जगन्नाथ के लिए पकाया गया चावल वहां के पुरोहित निम्न कोटि के नाम से पुकारे जाने वाले लोगों से भी लेते हैं। जगन्नाथ को चढ़ाया हुआ चावल कभी अशुद्ध नहीं होता, इसे 'महाप्रसाद' की संज्ञा दी गयी है। इसकी विशेषता रथयात्रा पर्व की महत्ता है। इसका पुरी के चौबीस पर्वों में सर्वाधिक महत्व है। रथ तीर्थ यात्रियों और कुशल मज़दूरों द्वारा खींचे जाते हैं। भावुकतापूर्ण गीतों से यह 'महा उत्सव' मनाया जाता है।
महाप्रसाद
मंदिर की रसोई में एक विशेष कक्ष रखा जाता है, जहां पर महाप्रसाद तैयार किया जाता है। इस महाप्रसाद में अरहर की दाल, चावल, साग, दही व खीर जैसे व्यंजन होते हैं। इसका एक भाग प्रभु का समर्पित करने के लिए रखा जाता है तथा इसे कदली पत्रों पर रखकर भक्तगणों को बहुत कम दाम में बेच दिया जाता है। जगन्नाथ मन्दिर को प्रेम से संसार का सबसे बड़ा होटल कहा जाता है। मंदिर की रसोई में प्रतिदिन बहत्तर क्विंटल चावल पकाने का स्थान है। इतने चावल एक लाख लोगों के लिए पर्याप्त हैं। चार सौ रसोइए इस कार्य के लिए रखे जाते हैं। जगन्नाथजी के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप स्वयं बल्लभाचार्य के द्वारा प्राप्त हुआ। कहते हैं कि महाप्रभु बल्लभाचार्य की निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुंचने पर मंदिर में ही किसी ने प्रसाद दे दिया। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ।