ईश्वर में यदि अखंड श्रद्धा रखते हैं तो बीस सिर वाले रावण को भी आप मार सकते हैं
धर्म अध्यात्म: रावण भगवान श्रीराम जी को इतने निम्न भाव से देख रहा था, कि मानो वह विशाल व अडिग हिमालय को एक नन्हें कण की संज्ञा दे रहा हो। उसकी मिथ्या व निराधार कल्पनाओं का तो मानो कोई अंत ही नहीं था। रावण भगवान श्रीराम जी के लिए कोई अच्छे शब्दों का प्रयोग नहीं कर रहा था। लेकिन अब जो शब्द उसने प्रयोग किए, उन्हें सुन तो वीर अंगद मानों क्रोध से पगला ही गए थे-
‘जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक।
खाहिं निसाचर दिवस निसि मुढ़ समुझु तजि टेक।।’
रावण बोला, कि हे वानर! जिनके बल पर तुझे इतना गर्व है, ऐसे अनेकों मनुष्यों को तो राक्षस रात-दिन खाया करते हैं। हे मूढ़! जिद्द छोड़कर समझ।
रावण के यह वचन सुन कर, वीर अंगद अत्यंत क्रोधित हो उठे। कारण कि शास्त्रों का कथन है, कि जो भी अपने कानों से भगवान श्रीविष्णु जी एवं भगवान शिव की निंदा सुनता है, उसे गो वध के समान पाप होता है-
‘जब तेहिं कीन्हि राम कै निंदा।
क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा।।
हरि हर निंदा सुनइ जो काना।
होइ पाप गोघात समाना।।’
रामचरित मानस की यह चौपाई केवल रावण-अंगद संवाद तक ही सीमित नहीं है। बल्कि हमारे वर्तमान जीवन काल के लिए भी एक सीख है। सीख यह, कि आप अगर सनातनी हैं, तो निश्चित ही आपको भगवान श्रीहरि एवं महादेव की निंदा को कभी भी अपने कानों से नहीं सुनना। लेकिन दुख का विषय है, कि हम भले ही सनातन धर्म के अनुयाई ही क्यों न हों, लेकिन हम अपने इष्टों व देवों की निंदा को बड़े सहज ही सुनते रहते हैं। हमें कोई अंतर ही नहीं पड़ता, कि हमें हमारे धर्म का निरादर करने वालों को यथा सामर्थ रोकना चाहिए। हमें लगता है, कि यह तो मंदिर के पुजारियों अथवा हमारे कथा वाचकों का ही कार्य है। जो कि एक बहुत ही निम्न स्तर की बात है। आप सोच रहे होंगे, कि विरोध करने वाले अगर बलशाली व सामर्थवान हैं और आप एक अकेले हो तो क्या तब भी उनसे भिड़ जायें। निश्चित ही यह प्रश्न चिंतन योग्य है। क्योंकि ऐसे प्रसंग में तो आपका परास्त होना अवश्यंभावी ही है। तो ऐसी परिस्थिति में आप निश्चित ही धैर्य से काम लें। क्योंकि सामने वाला व्यक्ति आपको, अपने कटु वचनों से ही तो कष्ट दे रहा है। तो आपको भी उसके शब्द बाणों को अपने शास्त्रीय तर्कों से ही काटना चाहिए। आपका विपक्षी कितना भी बलशाली क्यों न हो, अगर उसके तर्क उसे कटते दिखाई प्रतीत हों, तो निश्चित ही वह आपसे भयभीत होगा। हाँ, बाहर से भले ही वह आप पर भारी होने का नाटक करे, लेकिन भीतर से वह अवश्य ही वहाँ से भागना चाहेगा। ऐसे में हो सकता है, कि वह अपनी पराजय निश्चित जान, क्रोधित हो आपको हानि भी पहुँचाने का भाव रख सकता है, लेकिन आपको अपने मानसिक संतुलन से नहीं डिगना है। अगर लगे, कि आपके समक्ष मानव के वेश में एक पशु है, तो प्रयास करें, कि उस व्यक्ति से वार्ता को विराम दे दें। हाँ, अगर आपको लगता है, कि आप सामने वाले व्यक्ति को दण्डित करने में सामर्थ रखते हैं, तो शास्त्र सम्मत दंड देकर उसे अपने धर्म का ज्ञान देने का अवश्य प्रयास करें। याद रहे, कि उसे दंड देने का मनोरथ आपके क्रोध का पौषण करना नहीं होना चाहिए, अपितु उसे उसकी गलती का अहसास दिलाकर, अपनी शास्त्रीय विचार धारा से अवगत कराना होना चाहिए।
कारण कि धर्म चर्चा का यह अर्थ कतई नहीं होता, कि आप सामर्थवान हैं, तो सामने वाले को दंडित ही करना है। मान लीजिए, कि ऐसी परिस्थिति में, अगर आप स्वयं को निर्बल महसूस कर रहे हैं, और देख पा रहे हैं, कि आप अपने विपक्षी का किसी भी प्रकार से प्रतिकार नहीं कर पा रहे हैं, तो ऐसे में सबसे बढ़िया सूत्र है, कि आप उस स्थान से ही हट जायें। और किसी भी प्रकार से ‘हरि-हर’ की निंदा को अपने कानों से न सुनें। वहाँ से हटने के पश्चात भी, ऐसा नहीं कि आप का संघर्ष समाप्त हो गया। अब आपको एक स्वस्थ चिंतन करना है, कि आखिर मैं उनकी बातों का शास्त्रीय प्रतिकार क्यों नहीं कर पाया। इस चिंतन से आप पायेंगे, कि आप को तो आपके शास्त्रों का ज्ञान ही नहीं है। कारण कि आप कहने को तो सनातनी हैं, लेकिन कभी मंदिर अथवा देवालय जाते ही नहीं। वहाँ विराजित धार्मिक शास्त्रों को कभी पढ़ते ही नहीं। तो कहाँ से आप किसी का शास्त्रीय उत्तर दे सकते हैं। इस चिंतन से आपको स्वयं से एक संकल्प करना है, कि अपने देवालयों का नित्य दर्शन व सेवा करना, आपके जीवन का अभिन्न अंग होगा।
वीर अंगद जब रावण से चर्चा कर रहे हैं, तो वे लौकिक व अलौकिक सब प्रकार का ज्ञान रखते हैं। उससे भी परे वे अपने ईष्ट व स्वामी के प्रति अखंड श्रद्धा व विश्वास रखते हैं। यह सब अगर हममें है, तो हमारे समक्ष दस क्या, बीस सिर वाला रावण भी आ जाये, तो निश्चित ही हम विजयी भाव में रहेंगे।