प्रकृति से जुड़ी हिन्दू संस्कृति, तीज त्योहार और परंपराएं

हिंदू धर्म में प्रकृति के सभी तत्वों की पूजा, प्रार्थना का प्रचलन और महत्व है

Update: 2021-06-03 13:04 GMT

हिंदू धर्म में प्रकृति के सभी तत्वों की पूजा, प्रार्थना का प्रचलन और महत्व है, क्योंकि हिंदू धर्म मानता हैं कि प्रकृति से ही हमारा जीवन संचालित होता है। इसीलिए प्रकृति को देवता, भगवान और पितृदेव माना गया है। हिन्दू संस्कृति के अधिकतर तीज त्योहार और पर्व परंपराएं प्रकृति से ही जुड़ी हुई हैं। आओ जानते हैं इस संबंध में 15 तथ्‍य।

1. मौसम परिवर्तन की सूचना देते त्योहार : वर्ष में 6 ऋतुएं होती हैं- 1. शीत-शरद, 2. बसंत, 3. हेमंत, 4. ग्रीष्म, 5. वर्षा और 6. शिशिर। ऋतुओं ने हमारी परंपराओं को अनेक रूपों में प्रभावित किया है। बसंत, ग्रीष्म और वर्षा देवी ऋतु हैं तो शरद, हेमंत और शिशिर पितरों की ऋतु है। वसंत में नववर्ष, धुलैंडी और नवरात्रि, ग्रीष्म में देवशयनी एकादशी और गुरु पूर्णिमा, वर्षा में श्रावण सोमवार, शरद में शारदीय नवरात्रि और देवोत्थान एकादशी, हेमंत में दीपावली और गोवर्धन पूजा, शिशिर में मकर संक्रांति और महाशिवरात्रि मौसम परिवर्तन की सूचना देते हैं।
2. नवसंवत्सर : नवसंवत्सर की शुरुआत चैत्र प्रतिपदा से सूर्य के गति बदलने से होती है। महाराष्ट्र में इसे गुड़ी पड़वा, आंध्रप्रदेश में युगदि या उगादि तिथि, सिंधु प्रांत में 'चेटी चंडो' और कश्मीर में यह पर्व 'नौरोज' के नाम से मनाया जाता है। यह प्रकृति में नवजीवन का पर्व है।
3. संक्रांति दिवस : सूर्य के एक राशि से दूसरी राशि में जाने को ही संक्रांति कहते हैं। एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति की अवधि ही सौर मास है। वैसे तो सूर्य संक्रांति 12 हैं, लेकिन इनमें से 4 संक्रांति ही महत्वपूर्ण हैं जिनमें मेष, तुला, कर्क और मकर संक्रांति हैं। मकर संक्रांति से सूर्य उत्तरायण होता है और कर्क संक्रांति से दक्षिणायन।
4. छठ पूजा : छठ पूजा अथवा छठ पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है। षष्ठी तिथि (छठ) एक विशेष खगोलीय अवसर है। उस समय सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं। उसके संभावित कुप्रभावों से मानव की यथासंभव रक्षा करने का सामर्थ्‍य इस परंपरा में है। छठ पर्व के पालन से सूर्य (तारा) प्रकाश (पराबैंगनी किरण) के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा संभव है।
5. बसंत पंचमी : जब फूलों पर बहार आ जाती है, खेतों में सरसों का सोना चमकने लगता है, जौ और गेहूं की बालियां खिलने लगती हैं, आमों के पेड़ों पर बौर आ जाते हैं और हर तरफ तितलियां मंडराने लगती हैं, तब वसंत पंचमी का त्योहार आता है। वसंत ऋतु में मानव तो क्या, पशु-पक्षी तक उल्लास भरने लगते हैं। यह प्रेम इजहार का दिवस भी है।
6. गंगा दशहरा : भारतीय धार्मिक पुराणों के अनुसार गंगा दशहरा के दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। इस दिन स्वर्ग से गंगा का धरती पर अवतरण हुआ था इसलिए यह महापुण्यकारी पर्व माना जाता है।
7. धुलेंडी और होली : होली-धुलेंडी का त्योहार भी मौसम परिवर्तन की सूचना देता है। शरद ऋतु की समाप्ति और बसंत ऋतु के आगमन का यह काल पर्यावरण और शरीर में बैक्टीरिया की वृद्धि को बढ़ा देता है। इसीलिए आग और साफ सफाई का महत्व बढ़ जाता है।
8. आंवला नवमी पूजा : महिलाओं द्वारा यह नवमी पुत्ररत्न की प्राप्ति के लिए मनाई जाती है। आंवला नवमी को अक्षय नवमी के रूप में भी जाना जाता है। इस दिन द्वापर युग का प्रारंभ हुआ था। आंवले का हमारे जीवन में बहुत महत्व है यह निरोगी बनाकर लंबी आयु प्रदान करता है।
9. वट सावित्री : वट सावित्री व्रत पति की लंबी आयु, सौभाग्य, संतान की प्राप्ति की कामना पूर्ति के लिए किया जाता है। वट को 'बरगद' भी कहते हैं। इस वृक्ष में सकारात्मक शक्ति और ऊर्जा का भरपूर संचार रहता है। इसके सान्निध्य में रहकर जो भी मनोकामना की जाती है वह पूर्ण हो जाती है। स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार यह पर्व ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा और कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाया जाता है।
10. तुलसी विवाह और पूजा : भारत में तुलसी का महत्वपूर्ण स्थान है। देवता जब जागते हैं तो सबसे पहली प्रार्थना हरिवल्लभा तुलसी की ही सुनते हैं इसीलिए तुलसी विवाह को देव जागरण के पवित्र मुहूर्त के स्वागत का सुंदर उपक्रम माना जाता है। कार्तिक मास में विष्णु भगवान का तुलसीदल से पूजन करने का माहात्म्य अवर्णनीय है।
11. शीतलाष्टमी : माता शीतला का पर्व किसी न किसी रूप में देश के हर कोने में होता है। कोई माघ शुक्ल की षष्ठी को, कोई वैशाख कृष्ण पक्ष की अष्टमी को तो कोई चैत्र कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाते हैं। हिन्दू व्रतों में केवल शीतलाष्टमी का व्रत ही ऐसा है जिसमें बासी भोजन किया जाता है। शीतला माता का मंदिर वटवृक्ष के समीप ही होता है। शीतला माता के पूजन के बाद वट का पूजन भी किया जाता है।
12. अश्वत्थोपनयन व्रत : इसे अश्वत्थ उपनयन व्रत भी कहते हैं। अश्‍वत्थ अर्थात पीपल का वृक्ष। सर्वाधिक ऑक्सीजन निस्सृत करने के कारण इसे प्राणवायु का भंडार कहा जाता है। सबसे अधिक ऑक्सीजन का सृजन और विषैली गैसों को आत्मसात करने की इसमें अकूत क्षमता है। इसीलिए बुरे शकुनों (अपशकुनों), आक्रमणों, महामारियों, कुष्ठ जैसे रोगों में अश्वत्व-पूजा की जाती है। उपनयन संस्कार से जुड़े अश्वत्थ वृक्ष की पूजा वैशाख माह में करते हैं।
13. गोवर्धन और गाय पूजा : कार्तिक शुक्ल दूज को गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव मनाने की परंपरा है। यह त्योहार भी प्रकृति पूजा से जुड़ा हुआ है। श्रीकृष्‍ण ने इंद्र पूजा को बंद करवा कर इसी की पूजा करने को कहा था। श्रीकृष्‍ण के समय भी गाय और गोवर्धन पूजा का प्रचलन बढ़ा। कार्तिक शुक्ल पक्ष अष्टमी को गोपाष्टमी के रूप में मनाया जाता है। इस दिन गोबर से गोवर्धन की आकृति बनाकर उसके समीप विराजमान कृष्ण के सम्मुख गाय तथा ग्वाल-बालों की रोली, चावल, फूल, जल, मौली, दही तथा तेल का दीपक जलाकर पूजा और परिक्रमा की जाती है। ग्रामीण क्षेत्र में अन्नकूट महोत्सव इसलिए मनाया जाता है, क्योंकि इस दिन नए अनाज की शुरुआत भगवान को भोग लगाकर की जाती है।
14. अन्य पूजा : इसी प्रकार से आम, केले, शमी, कैथ, बिल्व, अशोक, नारियल, अनार, नीम आदि वृक्षों से जुड़े भी तीज त्योहार है।
15. यज्ञ और प्रकृति : हिंदू धर्मानुसार पांच तरह के यज्ञ होते हैं जिनमें से दो यज्ञ- देवयज्ञ और वैश्वदेवयज्ञ प्रकृति को समर्पित है। देवयज्ञ से जलवायु और पर्यावरण में सुधार होता है तो वैश्वदेवयज्ञ प्रकृति और प्राणियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का तरीका है। हवन करने को 'देवयज्ञ' कहा जाता है। हवन में सात पेड़ों की समिधाएँ (लकड़ियाँ) सबसे उपयुक्त होतीं हैं- आम, बड़, पीपल, ढाक, जाँटी, जामुन और शमी। हवन से शुद्धता और सकारात्मकता बढ़ती है। रोग और शोक मिटते हैं। वैश्वदेवयज्ञ को भूत यज्ञ भी कहते हैं। पंच महाभूत से ही मानव शरीर है। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ या वैश्वदेव यज्ञ कहलाता है। अर्थात जो कुछ भी भोजन कक्ष में भोजनार्थ सिद्ध हो उसका कुछ अंश उसी अग्नि में होम करें जिससे भोजन पकाया गया है। फिर कुछ अंश गाय, कुत्ते और कौवे आदि प्राणियों को दें।


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