इंसान की हर ख्वाहिश, हर अध्यात्म की अंतिम खोज है भगवान श्री कृष्णा
उनके शरीर का रोम-रोम अध्यात्म है।
हफीज किदवई। उनके शरीर का रोम-रोम अध्यात्म है। उस शरीर की हर हरकत अध्यात्म है, उस हरकत से उपजी कलाएं अध्यात्म हैं, उन कलाओं से निकली शिक्षा अध्यात्म है। श्रीकृष्ण यानी हमारे कान्हा का जीवन अध्यात्म का एक अध्याय नहीं बल्कि तमाम अध्यायों का ऐसा पाठ्यक्रम है, जो मनुष्य जीवन की उत्कृष्टता की सभी ऊंचाइयों को पूरा करता है। कान्हा के हर रूप में जो ज्ञान है, कोई भी एक जीवन में उसे ग्रहण नहीं कर सकता। इसलिए कान्हा को मानने वाले, चाहने वाले, उनसे प्रेम करने वाले उन्हें अधिकाधिक प्राप्त करने की लालसा में उनके दीवाने हुए फिरते हैं।
यदि मैं चाहूं कि उन्हें अल्फाज में पिरो दूं, तो यह नामुमकिन है। संगीत में उतार दूं, तो यह भी नहीं हो सकता। खूबसूरत रंगों से उनका अक्स उतार दूं, तो यह भी हमारे बस से बाहर की बात है। प्रचलित हर कला का सहारा ले भी लूं फिर भी कुछ न कुछ छूट ही जाएगा। हमारे कान्हा में इतना कुछ है, जिन्हें समेट पाना कला से बाहर की बात है। उनके मोर मुकुट को छूता हूं, तो उंगली पर नाचता शौर्य का प्रतीक चक्र छूट जाता है। गोपियों संग मुस्कुराहट को पकड़ता हूं, तो अर्जुन के सारथी कृष्ण दूर चले जाते हैं। माखन में डूबे कान्हा के हाथ को देखता हूं, तो द्रौपदी के पास खड़े कृष्ण धुंधला जाते हैं। सुदामा के लिए एकटक खड़े कान्हा को अपनाता हूं, तो कुरुक्षेत्र में ललकारते कृष्ण बचकर निकल जाते हैं। एक वक्त में राधा की मुस्कान में मुस्कुराते कन्हैया दिखते हैं, तो कंस से जूझते कृष्ण बिछड़ जाते हैं। मैं अपने कान्हा को पूरा का पूरा समेटना चाहता हूं, पर वह मुट्ठी में बंद रेत की तरह धीरे-धीरे निकल जाते हैं।
मेरे कान्हा मेरे हाथों से हर बार निकल जाते हैं। उन्हें ताज बीबी की कलम में पकड़ने चलता हूं तो रसखान के घर निकल जाते हैं। जब रसखान के चबूतरे पर बैठता हूं तो रहीम के पास चले जाते हैं, जब रहीम की चौखट खटखटाता हूं तो मीरा के पास आ बैठते हैं। मीरा के पास पहुंचने का साहस करता हूं तो हजरत तुराब के दरवाजे पर चले जाते हैं, जब उधर घूमता हूं तो मौलाना हसरत मोहानी के यहां चले जाते हैं। मैं अपने कान्हा को ढूंढकर समझना चाहता हूं, पर वह अपनी कलाओं से हमें सिखाकर आगे बढ़ जाते हैं।
मैं उनकी मुस्कान में डूब जाना चाहता हूं। मैं भ्रम में हूं कि वह एक कृष्ण हैं। मैं उस एक चेहरे में अपने हर तरह के चेहरे को देखता हूं। मुझे कान्हा का चेहरा आईना लगता है। वह तो पानी भी है। जैसे देखो, वैसे कान्हा। सबके लिए सबके कान्हा। मैं बांसुरी में फंसी उनकी उंगलियों को देखता हूं, तो कभी पांव के अंगूठे में फंसी धरती को। आप कुरुक्षेत्र में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा को तोड़ने वाले कान्हा की उस बारीक नजर को समझने की कोशिश कीजिए, जिसमें वह संदेश दे रहे हैं कि हमारी किसी भी प्रतिज्ञा से बड़ा है अन्याय को रोकना। कान्हा हमें अच्छाई और बुराई के बीच की महीन से महीन रेखा का अंतर बताने में कामयाब रहे हैं, इसलिए उनके जीवन का प्रभाव प्रत्येक मनुष्य पर पड़े बिना रह ही नहीं सकता। यदि हम देखें तो इंसान की हर ख्वाहिश हर भूख, जो ज्ञान और अध्यात्म की तरफ ले जाती है, उसके लिए कान्हा ही अंतिम खोज होंगे।