सती अनुसुइया की कथा गहरे अर्थ देती है। कथा कहती है कि देवर्षि नारद से अनुसुइया के सतीत्व की कथा सुन कर त्रिदेवियों को उनसे डाह होने लगा और उन्होंने त्रिदेव को विवश कर दिया कि वे जा कर अनुसुइया की परीक्षा लें। पर क्या त्रिदेवियों के अंदर भी अहंकार आ सकता है? जो जगत की सबसे बड़ी नियामक शक्तियां हैं, जो स्वयं में सृजन, पालन और संहार की सम्पूर्ण व्यवस्था हैं, उनमें डाह जैसा क्षुद्र भाव आएगा? नहीं। वस्तुत: यह डाह नहीं था! अनुसुइया की निष्ठा का सर्वश्रेष्ठ होना स्वीकार करने से पूर्व उपजा प्रकृति सम्मत संदेह था जो सहज होने के साथ आवश्यक भी था।
किसी भी व्यक्ति को संसार में सर्वश्रेष्ठ यूं ही तो नहीं माना जा सकता न? आखिर श्रेष्ठ, कम श्रेष्ठ, अश्रेष्ठ में भेद कैसे हो? जीवन की कोई उपलब्धि बिना कठिन परीक्षा के नहीं मिलती। उपलब्धि जितनी बड़ी हो, परीक्षा भी उतनी ही कड़ी होती है। त्रिदेवियों की जिद्द के पीछे परीक्षा का विधान था न कि द्वेष। त्रिदेव जानते थे अनुसुइया के सत्य को, उनके सतीत्व को… फिर भी अपनी पत्नियों की जिद्द पर उनकी परीक्षा लेने पहुंच गए! क्यों? वस्तुत: यह गृहस्थ धर्म के प्रति समर्पण का श्रेष्ठ उदाहरण है। अपने जीवनसंगी की अनावश्यक इच्छा भी अवश्य पूरी कर देनी चाहिए यदि वह किसी को दुख न पहुंचा रही हो। अब माता अनुसुइया को देखिए। वह तात्कालिक समय के सबसे ज्ञानवान कुल की पुत्री हैं और एक प्रतिष्ठित विद्वान ऋषि की पत्नी हैं।
उनके स्वयं के ज्ञान का प्रकाश भी समस्त संसार में फैला है और उनसे त्रिदेव आ कर प्रश्न रख देते हैं कि तुम्हारे यहां भोजन तभी करेंगे जब तुम वस्त्र मुक्त हो कर भोजन परोसो। कितना कठिन है न यह पहेली सुलझाना? पर यहीं माता अनुसुइया की विद्वता और तार्किकता दिखती है। वे अपनी परीक्षा लेने आए त्रिदेव को ही परीक्षा देने पर विवश करती हुईं कहती हैं कि मुझे ज्ञात है कि आप ईश्वर हैं। आप जानते हैं मेरे सतीत्व को, अपने पति के प्रति मेरी निष्ठा को। अब मैं कुछ सिद्ध नहीं करूंगी। मेरी प्रतिष्ठा आप सिद्ध करेंगे। यदि मेरे जीवन संगी के प्रति मेरी निष्ठा अटूट है तो आप बालक रूप धारण कर मेरे पुत्र बनें। आप इससे बच ही नहीं सकते। जो सत्य है उसे असत्य नहीं बता सकते और सत्य का प्रमाण देने के लिए आपको बालक बनना ही पड़ेगा।
जितना मैंने पढ़ा है उसमें भक्त के सामने भगवान के इस तरह विवश होने का दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। यह सती अनुसुइया की विद्वता की विजय थी, उनकी तर्कशक्ति की जीत थी। त्रिदेव कैसे बालक रूप में न आते? त्रिदेव माता अनुसुइया को पुत्र रूप में मिले और उनकी परीक्षा लेने का विधान रचने वाली त्रिदेवियां स्वत: उनकी पुत्रवधू हो गर्इं और उनकी इसी उपलब्धि के कारण उन्हें पूज्य पद प्राप्त हुआ। यदि आपमें धर्म का भाव है, निरन्तर ज्ञान अर्जित करते रहने की ललक है, अपनी परम्पराओं और सम्बन्धों के प्रति अटूट निष्ठा है, तर्क की शक्ति है और अपने लिए लड़ सकने का साहस भी है, तो ईश्वर आपकी गोद में भी खेलने आ जाते हैं।