कृष्ण-सुदामा
भगवान जब भक्त के मित्र जाएं तब वो मित्रता कैसी होती है. इसी की मिसाल है कृष्ण सुदामा की मित्रता. बाल सखा सुदामा के साथ बाल कृष्ण ने ढेरों अठखेलियां की. द्वारका के राजा बने तो बचपन के मित्रों से मेलजोल खत्म ही हो गया. पर गरीब सुदामा को कृष्ण की मित्रता में ही जीवन में आगे बढ़ने का मार्ग नजर आ रहा था. पत्नी के समझाने पर सुदामा कृष्ण के राजमहल भी पहुंचे. सोचिए वो भी क्या मित्रता थी कि जिसे निभाने के लिए द्वारकाधीश नंगे पैर द्वार तक दौड़े चले आए. सुदामा को खुद अपने साथ महल के भीतर ले गए. सुदामा अपने कष्ट मित्र को बता तो नहीं सके पर कृष्ण भी मित्र के मन की बात भांप गए. कृष्ण ने उन्हें क्या क्या भेंट दी इसका अंदाजा तो उन्हें भी घर वापस पहुंच कर ही हुआ.
कृष्ण-अर्जुन
वो द्वारकाधीश हैं. वो सखा हैं. वो गुरू हैं. वो मार्गदर्शक हैं. वो सबसे बड़े रक्षक हैं. कृष्ण जैसा मित्र तो जीवन में कितने अहम स्थान भर जाते हैं. अर्जुन को जीवन में एक सच्चा मित्र मिला वो थे भगवान कृष्ण. जीवन के हर पड़ाव पर कृष्ण ने एक सच्चे मित्र की तरह अर्जुन का साथ दिया. द्रोपदी के स्वयंवर में विजय प्राप्त करनी हो. सुभद्रा से विवाह रचाना हो. या युद्ध भूमि पर दुश्मनों का सामना करना हो. कृष्ण ने हर पल सच्चे मित्र की भांति अर्जुन को सही राह दिखाई. महाभारत के रण से ठीक पहले एक मित्र ने मित्र को जो संदेश दिया उसे आज भी सारी दुनिया 'गीता' के नाम से जानती है
कर्ण-दुर्योधन
महाभारत का महाकाव्य भी अद्भुत है. इसमें एक तरफ कृष्ण अर्जुन जैसे सच्चे और सच्चाई की राह पर चलने वाले मित्र मिलते हैं. तो कर्ण और दुर्योधन की मित्रता की कथा भी सुनने मिल जाती है. एक मित्र जिसने मित्रता पर सर्वस्व न्यौछावर कर दिया है. अपनी अच्छाई, अपने सिद्धांत भी. और एक मित्र जिसने कभी दूसरे की निष्ठा को परखा भी नहीं. ये अद्भुत संयोग न होते तो शायद महाभारत का अंत कुछ और हो सकता था. पर कर्ण ने सच्चाई जानने के बाद भी मित्रता नहीं छोड़ी.
राम-सुग्रीव
रामायण में राम और सुग्रीव की मैत्री की कहानी भी अद्भुद है. बाली के अत्याचारों से परेशान अपने मित्र सुग्रीव की मदद भगवान राम करते हैं और फिर माता सीता की खोज और उन्हें लाने में सुग्रीव तन-मन से साथ देते हैं. यही तो है मित्रता समय पड़ने पर मित्र एक-दूसरे की सहायता में सदैव तत्पर रहें.