नई दिल्ली: तमिलनाडु के खूंखार चंदन तस्कर और उसकी बड़ी-बड़ी मूंछ की कहानियां आज भी लोगों के जेहन में हैं। देश के ज्यादातर लोग वीरप्पन के नाम से वाकिफ हैं। एकसमय था जब साउथ इंडिया के जंगलों में उसके नाम की तूती बोलती थी। वीरप्पन को अपनी मूंछें काफी पसंद थी। उसकी मूंछें उसकी पहचान बन गईं थीं।
18 अक्टूबर 2004 को वीरप्पन एक पुलिस एनकाउंटर में मारा गया था। किसी को यकीन नहीं हो रहा था कि वीरप्पन मारा गया है।
वीरप्पन, जिसका असली नाम कूज मुनिस्वामी वीरप्पन था, दक्षिण भारत का एक कुख्यात चंदन तस्कर था। उसका जन्म 18 जनवरी, 1952 को कर्नाटक के गोपीनाथ गांव में हुआ था। वह न केवल चंदन की तस्करी में शामिल था, बल्कि हाथी दांत की तस्करी, हाथियों के अवैध शिकार, पुलिस और वन्य अधिकारियों की हत्या और अपहरण के कई मामलों में भी उसका नाम आया था।
वीरप्पन का जीवन बहुत ही विवादित था। उसके गांव में, वह रॉबिन हुड की तरह देखा जाता था, लेकिन उसके अपराधों के कारण पुलिस और सरकार के लिए वह एक बड़ा खतरा था। उसके खिलाफ कई मामले दर्ज थे, और सरकार ने उसे पकड़ने के लिए मशक्कत की और करोड़ों रुपए खर्च किए।
दशकों तक वीरप्पन ने अवैध तस्करी के जरिये करोड़ों कमाए। उसको पकड़ना पुलिस के लिए लोहे के चने चाबाना जैसा था। कुछ मौके तो जरूर बने, लेकिन वीरप्पन इतना चालाक था कि वो हर बार बचकर निकल जाता था।
वीरप्पन को कैसे मारा गया था?, एसटीएफ अपना काम कर रही थी, तभी उन्हें इनपुट मिला कि वीरप्पन 18 अक्टूबर 2004 को अपनी आंख का इलाज कराने के लिए जंगल से बाहर आ रहा है। एसटीएफ चीफ विजय कुमार और उनकी टीम इस दिन का इंतजार बड़ी बेसब्री से कर रही थी। एसटीएफ ने अपनी योजना पर काम करना शुरू किया।
उन्होंने वीरप्पन के लिए एक एंबुलेंस का इंतजाम किया। तय योजना के अनुसार एंबुलेंस में वीरप्पन आकर बैठ गया। इस एंबुलेंस को एसटीएफ का आदमी ही चला रहा था। तभी उसने पूर्व निर्धारित रणनीति के अनुसार तय स्थान पर एंबुलेंस रोक दी और उतर कर भाग गया।
यह वहीं जगह थी जहां पर हथियारों से लैस एसटीएफ के 22 जवान मौजूद थे। जब तक वीरप्पन कुछ समझ पाता, उससे पहले पुलिस ने उसे चेतावनी दे दी। वीरप्पन और उसके साथियों ने एंबुलेंस के अंदर से ही फायरिंग शुरू कर दी। तभी पुलिस ने भी जवाबी कार्रवाई करते हुए एके-47 से ताबड़तोड़ फायरिंग की। करीब 20 मिनट तक चली इस फायरिंग में चंदन का सबसे बड़ा तस्कर वीरप्पन मारा गया।