आदिवासियों के मुखर विरोध के चलते भाजपा के लिए झारखंड में मुफीद नहीं यूसीसी का मुद्दा
रांची (आईएएनएस) भाजपा ने अपने चुनावी पिटारे से यूनिफॉर्म सिविल कोड का मुद्दा भले ही बाहर निकाल लिया है, लेकिन झारखंड जैसे राज्य में इस मुद्दे पर वोटरों को लुभा पाना आसान नहीं होगा। पहली बात यह कि राज्य की बड़ी आदिवासी आबादी भी इसके लिए तैयार नहीं दिख रही। और दूसरी बात यह कि इस राज्य में सत्तारूढ़ झामुमो इसपर आदिवासी-अल्पसंख्यक सेंटिमेंट को भाजपा के खिलाफ इस्तेमाल करने को तैयार बैठा है।
भाजपा की झारखंड प्रदेश इकाई के नेता यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के स्वर में स्वर तो मिला रहे हैं, लेकिन इस मुद्दे पर उनके तेवरों में गर्मजोशी नहीं है। उन्हें इस बात का अहसास है कि यूसीसी पर आदिवासी समुदाय की ओर से उठ रही विरोध की आवाज अगर और तेज हुई तो सियासी तौर पर चुनौतीपूर्ण स्थिति खड़ी हो सकती है।
आदिवासी संगठनों की ओर से झारखंड में यूसीसी के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया है। बीते 8 जुलाई को आदिवासी संगठनों ने झारखंड भाजपा प्रदेश कार्यालय के समक्ष प्रदर्शन किया। प्रदर्शनकारी मध्यप्रदेश के पेशाब कांड और यूसीसी को लेकर भाजपा नेतृत्व के खिलाफ गुस्से का इजहार कर रहे थे। इसके पहले पांच जुलाई को भी कई आदिवासी संगठनों ने झारखंड राजभवन के समक्ष धरना दिया और सभा की। इन संगठनों के नेताओं का कहना है कि यूसीसी आदिवासियों के अस्तित्व पर हमला है। पिछले दस दिनों पर आदिवासी समूहों की अलग-अलग जगहों पर हुई बैठकों में भी यूसीसी के विरोध के प्रस्ताव पारित किए गए हैं।
झारखंड के आदिवासी समाज का मानस समझने वाले ज्यादातर लोग मानते हैं कि अपनी परंपराओं- प्रथाओं, वैवाहिक रीति-रिवाजों और जमीन-संपत्ति पर अधिकार के विशिष्ट कानूनों को प्रति यह समाज इतना आग्रही है कि वह इसमें किसी तरह का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करना चाहता।
झारखंड सरकार की ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल के सदस्य रह चुके सोशल एक्टिविस्ट रतन तिर्की कहते हैं कि देश के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में अंग्रेजी सरकार के वक्त से ही विशेष अधिकार वाले कानून और प्रावधान लागू रहे हैं। भारतीय संविधान की पांचवीं-छठी अनुसची में स्पष्ट तौर पर आदिवासियों के अधिकारों, विशिष्ट परंपराओं को संरक्षण दिया गया है। झारखंड में छोटानागपुर और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट में आदिवासियों की जमीन-जायदाद को लेकर विशिष्ट प्रावधान हैं। संविधान और कानून से यह संरक्षण नहीं मिला होता तो झारखंड में आदिवासियों की दशा और भी बुरी होती। यूसीसी झारखंडी आदिवासियों के इन अधिकारों का अतिक्रमण होगा। इसके खिलाफ हम विधि आयोग को लिख रहे हैं।
झारखंड की पूर्व मंत्री गीताश्री उरांव भी कहती हैं कि इससे आदिवासियों के अधिकारों का हनन होगा। आदिवासियों को संविधान में विशेष दर्जा मिला हुआ है। आदिवासियों की शादी हिन्दू मैरिज एक्ट के तहत नहीं होती है। इनके संबंध विच्छेद में भी अलग तरीका अपनाया जाता है। आदिवासियों में सामाजिक तौर पर इसका निपटारा होता है। ऐसे में यूनिफॉर्म सिविल कोड किसी हाल में स्वीकार्य नहीं है।
बीते हफ्ते झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से पत्रकारों ने यूसीसी पर उनके स्टैंड के बारे में पूछा था तो उन्होंने सीधे-सीधे जवाब देने के बजाय पीएम मोदी पर निशाना साधते हुए कहा था, “उनसे पूछो कि रोजगार कैसे दोगे, महंगाई कैसे घटाओगे? यूसीसी के पहले इसपर तो बात करें !”
झामुमो के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय प्रवक्ता सुप्रियो भट्टाचार्य यूसीसी को चुनावी और विभाजनकारी एजेंडा बताते हुए कहते हैं कि भाजपा के नेता पहले यह साफ करें कि यूसीसी में आदिवासी समुदाय को लेकर उनकी क्या सोच है? कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता राकेश सिन्हा कहते हैं कि यूसीसी का मुद्दा भाजपा ने चुनाव के मद्देनजर उछाला है, यह बात बच्चा-बच्चा समझता है। जहां तक इसपर हमारे स्टैंड की बात है तो हमारे नेता सही वक्त पर सही तरीके से अपनी राय रखेगी।
भाजपा के नए प्रदेश अध्यक्ष बने बाबूलाल मरांडी इस मुद्दे पर पार्टी का स्टैंड रखते हुए कहते हैं कि एक देश में दो कानून नहीं चल सकते। जब देश में क्रिमिनल लॉ एक तो सिविल लॉ भी एक होना चाहिए। यह तो 75 साल पहले हो जाना चाहिए था। संविधान के अनुच्छेद 44 में भी इसका स्पष्ट उल्लेख है। हालांकि मरांडी आदिवासियों के लिए बने विशिष्ट कानून और एक्ट पर यूसीसी से पड़ने वाले किसी प्रभाव के बारे में फिलहाल कुछ नहीं कहते।
दरअसल, मरांडी को भी पता है कि आदिवासियों के लिए चले आ रहे विशिष्ट कानूनी प्रावधानों और एक्ट को लेकर जब तक यूसीसी के प्रस्तावित ड्राफ्ट में सब कुछ पूरी तरह साफ नहीं हो जाता, तब तक इसपर अपनी ओर से एक वाक्य कहना भी सियासी तौर पर बूमरैंग की तरह खतरनाक हो सकता है। वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा झारखंड की 28 आदिवासी सीटों में से 26 सीटें गंवाने के कारण राज्य की सत्ता से बाहर हो गयी थी। लिहाजा, इस बार वह झारखंड में ऐसा कुछ भी नहीं होने देना चाहेगी कि आदिवासी मानस की भावनाओं पर कोई आंच आए।