इस प्रधानमंत्री ने की थी 1975 के बाद आपातकाल लगाने की हिम्मत, देश के सबसे भयावह दौर की पूरी कहानी
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर दाग की तरह नजर आने वाली इमरजेंसी को याद रखना जरूरी है
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर दाग की तरह नजर आने वाली इमरजेंसी को याद रखना जरूरी है. देश अब उस भयावह दौर की याद से उबर चुका है. लेकिन उस दौर की कहानी, पीढ़ियों को बताती रहेगी कि लोकतंत्र और आज़ादी का असल मतलब क्या होता है.
25 जून, 1975 को आकाशवाणी से इंदिरा गांधी घोषणा करती हैं. उस दिन एक आवाज़ और चंद अल्फाज़ ने देश के साठ करोड़ सात सौ तिरसठ लोगों की आज़ादी पर ताला लगा दिया था. जब देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दिल्ली आकाशवाणी से आपातकाल का ऐलान किया था. भारत की राजनीति में 25 और 26 जून की रात सबसे काली रात थी. इस रात के बारह घंटों में पूरा हिंदुस्तान बदल गया. 25 जून को शाम पांच बजे जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ सविनय अवज्ञा आंदोलन का एलान किया और इसके सात घंटे के अंदर इंदिरा गांधी ने एक ऐसा फैसला किया जिससे देश हतप्रभ रह गया था. हालांकि इसकी बुनियाद पड़ी थी दो हफ्ते पहले.
इलाहाबाद हाईकोर्ट का 12 जून 1975 का फैसला
12 जून को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने ऐसा फैसला सुनाया जिससे इंदिरा गांधी के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका पर हाईकोर्ट ने रायबरेली से इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध ठहरा दिया. इंदिरा गांधी बड़ी मुश्किल में थीं, उधर जयप्रकाश नारायण दो साल से सरकार की नींव हिलाने में जुटे थे. दो महीने पहले ही मार्च महीने में तीन लाख से पांच लाख लोग राष्ट्रपति का घेराव करने पहुंचे थे और 144 खंभों वाली संसद से इंदिरा गांधी को बेदखल करने की मांग बुलंद करने लगे थे. जबकि 25 जून को जयप्रकाश नारायण ने नई-नई लोक संघर्ष समिति का एलान कर दिया और सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ दिया.
इंदिरा के ख़िलाफ़ चल रही आंधी.. जिसने बढ़ाई बेचैनी
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. हाईकोर्ट का फैसला और जेपी आंदोलन में उलझी इंदिरा गांधी को घर में ही चुनौती देने की पृष्ठभूमि तैयार की जा रही थी. 24 जून को कांग्रेस नेता चंद्रशेखर के घर तीन रेसकोर्स लेन में कांग्रेस के 54 सांसद चाय की चुस्कियां ले रहे थे. चंद्रशेखर का ये शक्ति प्रदर्शन भी हिंदुस्तान की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री के दिल में जल्द से जल्द कुछ करने की बेताबी बढ़ा रहा था. इसके कुछ घंटों के भीतर ही जब दिल्ली में अंधेरा छा रहा था, तभी इंदिरा गांधी ने अपने भरोसेमंद नेताओं की मीटिंग तलब की.
दिल्ली में जैसे जैसे अंधेरा बढ़ने लगा, इंदिरा गांधी के खास सिपहसालारों की मीटिंग में हलचल बढ़ती गई. इस मीटिंग में दो हस्तियां सबसे अहम किरदार निभा रही थीं. जिसमें पहले थे इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी. इंदिरा गांधी के पुत्रमोह ने सन सत्तर में मारुति उद्योग से सामने आए संजय गांधी को बेलगाम कर रखा था. मां के प्रधानमंत्री बनने के बाद वो प्राइम मिनिस्टर्स हाउस को सत्ता का केंद्र बना चुके थे. पार्टी और सरकार में संजय गांधी की हैसियत इतनी बढ़ चुकी थी कि कांग्रेस से ज्यादा हैसियत उस यूथ कांग्रेस की होने लगी थी. जिसकी अगुवाई खुद संजय गांधी कर रहे थे.
इस मीटिंग में दूसरे सबसे अहम किरदार थे पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे.. जिनको नक्सलियों के खिलाफ चलाए अभियान के बाद लोकतंत्र का तानाशाह माना जाने लगा था. और पश्चिम बंगाल को दिल्ली के करीब ला चुके जिस नेता को संजय गांधी की बातों से ज्यादा इत्तेफाक रहता था. कहा जाता है कि जब बाकी नेता इंदिरा गांधी को कुर्सी छोड़ देने की सलाह दे रहे थे. संजय गांधी और सिद्धार्थ शंकर रे ने ही बेहद खतरनाक सलाह दी और इंदिरा गांधी को वही खतरनाक फैसला सबसे अच्छा लगा. आधी रात हो रही थी और प्रधानमंत्री ने सिपहसालारों की मीटिंग खत्म करने के बाद दो नेताओं को एक दस्तावेज के साथ रायसीना हिल्स की ओर रवाना कर दिया.
रायसीना हिल्स में काली रात का काला फैसला
पूरा देश सो रहा था और तभी कांग्रेस के दो नेता सिद्धार्थ शंकर रे और आर के धवन राष्ट्रपति भवन पहुंच रहे थे. दोनों ने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से मुलाकात की और जब वो राष्ट्रपति भवन से बाहर निकले तो देश उन्नीस महीने की तानाशाही और दहशतगर्दी के अंधेरे में गुम होने जा रहा था.
25 जून, 1975 को रात 12 बजे जब कुछ नेता इंदिरा गांधी को किसी और के हवाले कुर्सी कर देने की सलाह दे रहे थे, संजय गांधी अपनी मां इंदिरा को समझा रहे थे कि कुर्सी से हटने का मतलब होगा कुर्सी गंवाना. इस सलाह के बाद इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति से संविधान के तहत संविधान का उल्लंघन करके जिस फैसले पर हस्ताक्षर कराए.. वो फैसला था धारा 352 के तहत देश में आपातकाल लागू करने का. आधीरात में जब पूरा देश बेसुध सो रहा था, तब देश की राजधानी में अंधेरे में काल कोठरी खाली की जा रही थीं.
मेंटिनेंस ऑफ इंटरनल सेक्युरिटी एक्ट- मीसा और डीआईआर के हथियार निकाले जा रहे थे. पहले से तय ठिकानों पर छापे मारे जा रहे थे. जिनमें से मुख्य शिकार थे जयप्रकाश नारायण. पुलिस ने रात के अंधेरे में ही जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर लिया. 25 और 26 जून की रात जयप्रकाश नारायण के अलावा मोरारजी देसाई, चरण सिंह, अशोक मेहता, अटल बिहारी वाजपेयी समेत कई सांसद जेल की सलाखों के पीछे भेज दिए गए. भोर की रोशनी फूटने से पहले कांग्रेस के बागी सांसद चंद्रशेखर और मोहन धारिया समेत 30 सांसद काल कोठरी में कैद कर दिए गए. संपूर्ण क्रांति की अलख जगा रहे नानाजी देशमुख, जॉर्ज फर्नांडीज, बलराज मधोक जैसे कुछ ही नेता गिरफ्तारी के लिए निकली टीम की आंखों में धूल झोंकने में कामयाब हुए और फरार हो गए.
उस सुबह लोगों के घर अखबार भी नहीं पहुंचे
गुप्त मीटिंगों में आपातकाल के फैसले के साथ हर अखबार के दफ्तरों की बिजली काट दी गई, पेपर नहीं छपने दिए गए. अगली सुबह जब देश उन्नीस महीने की अंधेरगर्दी की आगोश में जा रहा था, संविधान और कानून खत्म किए जा रहे थे तो अवैध फाइलों पर कानूनी मुलम्मा भी चढ़ाया जा रहा था. सुबह करीब छह बजे देश के कैबिनेट मंत्रियों को सोते से जगाया गया. उन्हें आपातकाल लागू करने का फैसला सुनाया गया. फैसला लागू हो जाने के बाद फैसले पर कैबिनेट की मुहर लगाई गई. इसके बाद इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो का रुख किया और 26 जून को सुबह आठ बजे प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा- उसमें खौफनाक फैसले के बीच एक भरोसा दिलाने की कोशिश भर थी, जो कभी भी पूरा नहीं होनी थी.
एक ऐसा दमचक्र चला, जिसमें विरोध की हर आवाज़ दबा दी गई
आपातकाल का सिर्फ सीपीआई ने समर्थन किया. शुरुआत में सीपीएम, डीएमके के किसी भी बड़े नेता को छुआ भी नहीं गया. लेकिन सीबीआई ने फोन टैप करने शुरू कर दिए, और जैसे जैसे आधार मिलता गया, नेता गिरफ्तार होने लगे. कुछ ही दिनों में आरएसएस, जमात ए इस्लामी, आनंद मार्ग और नक्सलियों समेत 26 संगठनों पर पाबंदी लगा दी गई. संगठन के मुख्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. दो साल से जिस देश में एक आंदोलन तेजी से फैल रहा था. वहां सन्नाटा छा गया.
देश के आंतरिक खतरे का हवाला देते हुए.. जनता के सारे अधिकार खत्म कर दिए गए. प्रेस पर ताला लगा दिया गया. मीडिया पर सेंसरशिप लागू कर दी गई. सोशलिस्ट पार्टी का मुखपत्र जनता, सीपीएम की मेनस्ट्रीम और पीपुल्स डेमोक्रेसी समय समय पर बंद होती गईं. चार न्यूज एजेंसियों प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, यूनाइटेड प्रेस ऑफ इंडिया, समाचार भारती और हिंदुस्तान समाचार को मर्जर के लिए मजबूर कर दिया गया. जिन अखबारों ने सरकार की चाटुकारिता से इनकार किया.. उन्हें इसके नतीजे भुगतने पड़े. यहां तक कि इंदिरा गांधी की नजदीकी मित्र अरुणा आसफ अली के अखबार द पेट्रियट ने जब संजय गांधी की प्रशंसा करने से इनकार किया तो उसे भी सरकारी विज्ञापन मिलने बंद हो गए. दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो का जमाना लौट आया. दोनों सरकारी तोते सरकार की बातें जनता तक पहुंचाने लगे.
जब सभी अखबारों पर सेंसर लग गया
आपातकाल लागू होने के बाद सभी अखबारों पर सेंसर लग गया. अखबारों में वो ही खबरें छपा करती थीं, जो सरकार चाहती थी. तब स्टेट्समैन और इंडियन एक्सप्रेस ने इसका सबसे ज्यादा विरोध जताया था. लेकिन इंदिरा गांधी के हुक्म और संजय गांधी के रवैये के आगे सभी को खामोश होना पड़ा. सरकारी सेंसर के आगे सारे अखबार सरकार के पीआर एजेंट नजर आने लगे. छपने से पहले अखबार पीआईबी भेजे जाते थे और जो अखबार सेंसर किए जाते थे. उनपर स्याही पोत दी जाती थी. जबकि विरोध में कुछ अखबार अपने कॉलम खाली छोड़ने लगे. तब अखबारों की हेडलाइन होती थी..
देश आगे बढ़ रहा है
इमरजेंसी से अनुशासन का युग आया
बेहतर भविष्य की ओर कदमताल
मजबूत और समृद्ध भविष्य के लिए आपातकाल
इस बीच जिन किताबों में चाटुकारिता की चासनी परोसी गई, वो थी-
फ्रीडम इज नॉट फ्री
एरा ऑफ डिसिप्लिन
थैंक्यू मिसेज गांधी
शायद इस दौर में खुशवंत सिंह ऐसे इकलौते पत्रकार थे. जिन्हें संजय गांधी के समर्थन से परहेज नहीं था. तब खुशवंत सिंह मुंबई में इलस्ट्रेटेड वीकली के संपादक हुआ करते थे और उन्होंने लिखा था-
मैंने देखा बॉम्बे में गुंडे गाड़ियों को तोड़ते दुकानों की खिड़कियां तोड़ते आगे बढ़ रहे थे. वो (आंदोलन करने वाले) चाहते थे कि ऐसा ही चलता रहे.
उन्होंने संजय गांधी को प्यारा गुंडा भी कहा. और कहा- संजय एक ऐसे नेता हैं जो बदलाव की जल्दबाजी में हैं. लेकिन जिसके पास प्रधानमंत्री का बेटा होने के अलावा कोई अधिकार नहीं है.
इस बीच एक बहुत ही दिलचस्प घटना घटी. देश में एक पॉर्न मैगज़ीन बहुत ही फेमस हुआ करती थी. और उसकी पॉपुलैरिटी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मैगज़ीन अंग्रेजी में होने के बावजूद अंग्रेजी जानने वालों से ज्यादा अंग्रेजी ना जानने वाले उसके ग्राहक हुआ करते थे. उस मैगजीन के संपादक हुआ करते थे विनोद मेहता और जब सरकारी महकमे में सेंसर होने के लिए एक एडल्ट मैगजीन भटकने लगी तो सरकार भी दुविधा में फंस गई. सरकारी दफ्तर में चटखारे ले-लेकर मैगज़ीन पढ़ी जाने लगी. आखिर इस दुविधा पर जो फैसला हुआ.. वो बाद में मुहावरा बन गया. वो फैसला था-
एडल्ट मैगजीन सेंसर करने की जरूरत नहीं है. बस मैगजीन में पॉलिटिक्स नहीं होनी चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट का फैसला- लोगों को जीने का अधिकार नहीं है.
इस बीच जयप्रकाश नारायण की जेल में तबीयत खराब हो गई और 12 नवंबर 1975 को सेहत खराब होने की वजह से उन्हें रिहा कर दिया गया. लेकिन तब तक आंदोलन के पर काटे जा चुके थे. नाखून उखाड़े जा चुके थे. इंदिरा गांधी ने मीसा को न्याय के दायरे से बाहर निकाल दिया. इसके साथ ही मीसाबंदियों से ये हक छीन लिया गया कि वो अदालत का दरवाजा खटखटा सकें. अदालत का भी मीसा पर सरकार से जवाब तलब करने का अधिकार छीन लिया गया. तब देश लोकशाही में न्याय व्यवस्था को भी दम तोड़ते देख रही थी. इंदिरा गांधी नए कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट से भी ऊपर हो गईं और सुप्रीम कोर्ट ने एक हैरान करने वाला फैसला सुनाया था, जिसमें कहा गया था कि लोगों को जीने का अधिकार नहीं है.
आंकड़े बताते हैं कि एक लाख चालीस हजार लोगों को मीसा और डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स यानी डीआईआर के तहत गिरफ्तार किया गया. उस वक्त जेल जाने वालों को पता भी नहीं था कि वो जेल से कब लौटेंगे. लौटेंगे या नहीं लौटेंगे. खाकी में हर किसी को खौफ दिखने लगा. सादी वर्दी में सुरक्षाकर्मी भी डराने लगे. यहां तक कि जासूसी के डर से एक दूसरे से भी लोग डरने लगे. मीसाबंदियों ने जेल से निकलकर जुल्म के जो दास्तां बयां किए. उसने हर किसी को हिला दिया. उन्हें बर्फ की सिल्लियों पर लिटाया गया. पैरों पर डंडे बरसाए गए. पेड़ों पर उलटा लटका कर रखा गया. एक ऐसा अत्याचार जिससे उबरने में कई साल लग गए.
संजय गांधी का पांच सूत्री फॉर्मूला और नसबंदी
इस वक्त संजय गांधी की चौकड़ी में रक्षामंत्री बंसीलाल, इंदिरा गांधी के निजी सचिव आरके धवन और वीसी शुक्ला हुआ करते थे. जिनके इशारे पर पूरा देश नाच रहा था. आपातकाल लागू होने के पांचवें दिन ही इंदिरा गांधी के बीस सूत्री कार्यक्रमों में संजय गांधी का जो पांच सूत्री कार्यक्रम लागू किया गया.. उससे पूरा देश हाहाकार कर उठा. संजय गांधी ने जो पांच सूत्री फॉर्मूला दिया था. उसमें दो फॉर्मूले थे दहेज, जाति प्रथा को खत्म करना, तीसरा फॉर्मूला था पूरे देश को शिक्षित करना. चौथा फॉर्मूला था झुग्गियों को हटाना. पांचवां फॉर्मूला था नसबंदी का. जिसके बाद नसबंदी का सिलसिला ऐसा चला कि 19 महीने में 83 लाख लोग इसके शिकार हो गए. सरकारी अफसरों, मेडिकल टीम, पंचायतों और यहां तक कि स्कूल के टीचरों तक को नसबंदी का टारगेट दिया गया. टारगेट पूरा करने के लिए पुलिस जोर जबरदस्ती करने लगी और लोग भागे-भागे फिरने लगे.
नसबंदी का सबसे ज्यादा असर उत्तर प्रदेश, बिहार, चंडीगढ़, हरियाणा और पंजाब में पड़ा. कहा जाता है कि रात में पंजाब के गांव के गांव मर्दों से खाली हो जाते थे. सारे मर्द रात को खेतों में जाकर सो जाया करते थे. ताकि रोज रात को आने वाली छापामार टीमों से बच सकें. इस अभियान के ऐसे नौजवान भी भेंट चढ़ गए, जिनकी शादी नहीं हुई थी. ऐसे लोग भी भेंट चढ़ गए, जिनकी बच्चे पैदा करने की उम्र खत्म हो चुकी थी. देश में हर जगह नसबंदी कैंप खुल गए. जिसमें हर शिकार को कैश, घी या फिर रेडियो दिया जाता था. आरोप लगे कि ऐसे लोगों का कोई आंकड़ा दर्ज नहीं किया जाता था, जिनकी इस बर्बर ऑपरेशन में मौत हो जाया करती थी.
करीब एक साल बाद संजय गांधी ने इसी बर्बरता को जायज ठहराने की कोशिश की. दिल्ली में 1976 के अगस्त महीने में हम दो हमारे दो नाम से सेमिनार किया गया. जिसमें जनसंख्या वृद्धि के विस्फोटक आंकड़े रखे गए. एक वक्ता ने कहा-
हर 19वें सेकेंड में पश्चिम बंगाल में एक बच्चा पैदा होता है.. यानी हर मिनट में तीन और हर घंटे में 180 बच्चे. यहां तक कि जब दो घंटे बाद हमारा सेमिनार खत्म होगा तो पश्चिम बंगाल में 360 बच्चे पैदा हो चुके होंगे.
1975 के बाद आपातकाल लगाने की हिम्मत कोई प्रधानमंत्री नहीं जुटा पाया
तब देश की आबादी साठ करोड़ थी. और संजय गांधी ने साठ करोड़ अवाम को आतंक के दौर में झोंक दिया, जो इंदिरा गांधी के लिए भी विस्फोटक साबित हुआ. संजय गांधी और उनकी चौकड़ी की चली होती तो आपातकाल बीस सालों तक लागू रहता. लेकिन कहते हैं कि ज्योतिषियों ने एक बार फिर देश की तकदीर बदल दी. ज्योतिषियों ने इंदिरा गांधी को बताया था कि अगर वो मकरसंक्रांति के बाद कोई घोषणा करती हैं तो उसका असर शुभ होगा. और सबकुछ मंगल-मंगल करने के लिए इंदिरा गांधी ने 18 जनवरी 1977 को आपातकाल खत्म करने का ऐलान कर दिया. इंदिरा गांधी ने चुनाव कराने का एलान कर दिया और इसी के दो दिन के अंदर जेल में जनता पार्टी का जन्म हो गया. नसबंदी का दौर थम गया. विपक्ष जेल से बाहर आने लगा और इसी के साथ बदलाव का माहौल बनने लगा.
20 मार्च 1977 को मीडिया पर सेंसरशिप हटा दी गई. 21 मार्च 1977 को आपातकाल खत्म कर दिया गया. लेकिन इसके साथ ही राजनीति का एक इतिहास एक सबक बन गया. सबक कि गरीबी हटाओ के नारे से 71 की ऐतिहासिक जीत के बाद इंदिरा गांधी जनता से दूर हो गईं. 349 सीटें लेकर भी इंदिरा राज नहीं कर पाईं. तख्त उछाले गए. ताज उछाले गए और जम्हूरियत एक बार फिर जिंदा हो गई. आपातकाल का सबसे बड़ा सबक ये रहा कि 1975 के बाद देश में कभी आपातकाल लगाने की हिम्मत कोई प्रधानमंत्री नहीं जुटा पाया.