भवसागर पार कराने वाले गुरु ईश्वर-तुल्य हैं

Update: 2022-07-12 11:55 GMT

-ललित गर्ग-

भारतीय संस्कृति में गुरु पूर्णिमा का विशेष महत्व है, यह अध्यात्म-जगत विशेषतः सनातन धर्म का महत्वपूर्ण उत्सव है, इसे अध्यात्म जगत की बड़ी घटना के रूप में जाना जाता है। आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहा जाता है, हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार इस दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था, इसलिये इसे व्यास पूर्णिमा भी कहते है। इस दिन से ऋतु परिवर्तन भी होता है। इसदिन शिष्य अपने गुरु की पूजा करते हैं और अपने गुरु को यथाशक्ति दक्षिणा, पुष्प, वस्त्र, उपहार आदि भेंट करते हैं। ज्योतिषी कहते हैं कि इस दिन गुरु के आशीर्वाद से धन-सम्पत्ति, सुख-शांति, वैभव एवं समस्त इच्छाओं की पूर्ति का वरदान पाया जा सकता है। इस वर्ष गुरु पूर्णिमा खास इसलिये है कि रुचक, भद्र, हंस एवं शश नाम के चार विशेष योग बन रहे हैं।

गुरु-पूर्णिमा गुरु-पूजन का पर्व है। सन्मार्ग एवं सत-मार्ग पर ले जाने वाले महापुरुषों के पूजन का पर्व, जिन्होंने अपने त्याग, तपस्या, ज्ञान एवं साधना से न केवल व्यक्ति को बल्कि समाज, देश और दुनिया को भवसागर से पार उतारने की राह प्रदान की है। पर्वों, त्यौहारों और संस्कारों की भारतभूमि में गुरु का स्थान सर्वोपरि माना गया है। पश्चिमी देशों में गुरु का कोई महत्व नहीं है, वहां विज्ञान और विज्ञापन का महत्व है परन्तु भारत में सदियों से गुरु का महत्व रहा है। यहां की माटी एवं जनजीवन में गुरु को ईश्वरतुल्य माना गया है, क्योंकि गुरु न हो तो ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग कौन दिखायेगा? गुरु ही शिष्य का मार्गदर्शन करते हैं और वे ही जीवन को ऊर्जामय बनाते हैं।

भौतिकवादी युग में गुरु के प्रति आस्था में न्यूनता आई है, जिसके परिणाम स्वरूप जीवन में अशांति, असुरक्षा और मानवीय गुणों का अभाव हो रहा है। गुरु पूर्णिमा के मौके पर वे लोग परेशान होते हैं जिनके कोई गुरु नहीं हैं कि वे किसकी पूजा करके आशीर्वाद प्राप्त करें। ऐसे लोगों की चिंता का समाधान तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा किया है कि ...जै जै जै हनुमान गोसाई, कृपा करहु गुरुदेव की नाई। उन्होंने कहा है कि अगर किसी का गुरु नहीं है तो वह हनुमानजी को अपना गुरु बना सकता है। श्री गुरु चरण के स्मरण मात्र से ही आत्मज्योति का विकास हो जाता है। भारतीय संस्कृति में गुरु पद को सर्वाेपरि माना गया है. जीव को ईश्वर की अनुभूति और साक्षात्कार कराने वाली मान प्रतिमा गुरु ही हैं। इस कारण गुरु का साक्षात् त्रिदेव तुल्य स्वीकार किया है-

गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः

गुरुःसाक्षात् परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।

हमारी प्राचीन गुरुकुल परम्परा एवं गुरुकुल संस्कृति ने महर्षि, तपस्वी, राष्ट्रभक्त, चक्रवर्ती सम्राट और जगद्गुरु तक के सुयोग्य महापुरुष उपलब्ध कराए हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने भी गुरु महिमा को सर्वाेपरि माना है। जनकपुरी में ऋषि विश्वामित्र की सेवा इसका प्रमाण है। भारतीय संस्कृति में गुरु आश्रय रहित व्यक्ति को अत्यंत हेय माना गया है। वर्तमान समय में भौतिकवादी जन समुदाय में गुरु के प्रति आस्था का प्रायः अभाव सा होता जा रहा है। विशेष कर युवा वर्ग, जिसके परिणामस्वरूप जीवन में अशांति, असुरक्षा एवं तनाव व्याप्त है और मानवीय गुणों का अभाव हो रहा है। हमारे देश के ऋषि-महर्षि, तीर्थंकर और महात्मा गौतम बुद्ध, महावीर जैसी दिव्य विभूतियों ने गुरु पद से अपने उपदेशों से उदार भावना स्थापित की।

गुरु की सन्निधि, प्रवचन, आशीर्वाद और अनुग्रह जिसे भी भाग्य से मिल जाए उसका तो जीवन कृतार्थता से भर उठता है। क्योंकि गुरु बिना न आत्म-दर्शन होता और न परमात्म-दर्शन। गुरु भवसागर पार पाने में नाविक का दायित्व निभाते हैं। वे हितचिंतक, मार्गदर्शक, विकास प्रेरक एवं विघ्नविनाशक होते हैं। उनका जीवन शिष्य के लिये आदर्श बनता है। उनकी सीख जीवन का उद्देश्य बनती है। अनुभवी आचार्यों ने भी गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है- गुरु यानी वह अर्हता जो अंधकार में दीप, समुद्र में द्वीप, मरुस्थल में वृक्ष और हिमखण्डों के बीच अग्नि की उपमा को सार्थकता प्रदान कर सके।

यह त्योहार गुरु-शिष्य के आत्मीय संबंधों को सचेतन व्याख्या देता है। काव्यात्मक भाषा में कहा गया है- गुरु पूर्णिमा के चांद जैसा और शिष्य आषाढ़ी बादल जैसा। गुरु के पास चांद की तरह जीए गये अनुभवों का अक्षय कोष होता है। इसीलिये इस दिन गुरु की पूजा की जाती है इसलिए इसे 'गुरु पूजा दिवस' भी कहा जाता है। प्राचीन काल में विद्यार्थियों से शुल्क नहीं वसूला जाता था अतः वे साल में एक दिन गुरु की पूजा करके अपने सामर्थ्य के अनुसार उन्हें दक्षिणा देते थे। महाभारत काल से पहले यह प्रथा प्रचलित थी लेकिन धीरे-धीरे गुरु-शिष्य संबंधों में बदलाव आ गया।

'आचार्य देवोभवः' का स्पष्ट अनुदेश भारत की पुनीत परंपरा है और वेद आदि ग्रंथों का अनुपम आदेश है। ऐसी मान्यता है कि हरिशयनी एकादशी के बाद सभी देवी-देवता चार मास के लिए सो जाते है। इसलिए हरिशयनी एकादशी के बाद पथ प्रदर्शक गुरु की शरण में जाना आवश्यक हो जाता है। परमात्मा की ओर संकेत करने वाले गुरु ही होते है। गुरु एक तरह का बांध है जो परमात्मा और संसार के बीच और शिष्य और भगवान के बीच सेतु का काम करते हैं। इन गुरुओं की छत्रछाया में से निकलने वाले कपिल, कणाद, गौतम, पाणिनी आदि अपने विद्या वैभव के लिए आज भी संसार में प्रसिद्ध है। गुरुओं के शांत पवित्र आश्रम में बैठकर अध्ययन करने वाले शिष्यों की बुद्धि भी तद्नुकूल उज्ज्वल और उदात्त हुआ करती थी।

योग दर्शन नामक पुस्तक में भगवान श्रीकृष्ण को जगतगुरु कहा गया है क्योंकि महाभारत के युद्ध के दौरान उन्होंने अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश दिया था। माता-पिता केवल हमारे शरीर की उत्पत्ति के कारण है लेकिन हमारे जीवन को सुसंस्कृत करके उसे सर्वांग सुंदर बनाने का कार्य गुरु या आचार्य का ही है। पहले गुरु उसे कहते थे जो विद्यार्थी को विद्या और अविद्या अर्थात आत्मज्ञान और सांसारिक ज्ञान दोनों का बोध कराते थे लेकिन बाद में आत्मज्ञान के लिए गुरु और सांसारिक ज्ञान के लिए आचार्य-ये दो पद अलग-अलग हो गए। भारत के महान् दार्शनिक ओशो ने जब यह कहा कि हमारी शिक्षण संस्थाएं अविद्या का प्रचार कर रही हैं तो लोगों ने आपत्ति की लेकिन वे बात सही कह रहे थे। आज हमारे विद्यालयों में ज्ञान का नहीं बल्कि सूचनाओं का हस्तांतरण हो रहा है। विद्यार्थियों का ज्ञान से अब कोई वास्ता नहीं रहा इसलिए आज हमारे पास डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, न्यायाधीश, वैज्ञानिक और वास्तुकारों की तो एक बड़ी भीड़ जमा है लेकिन ज्ञान के अभाव में चरित्र और चरित्र के बिना सुंदर समाज की कल्पना दिवास्वप्न बन कर रह गई है।

आज नकली, धूर्त, ढोंगी, पाखंडी, साधु-संन्यासियों और गुरुओं की बाढ़ ने असली गुरु की महिमा को घटा दिया है। असली गुरु की पहचान करना बहुत कठिन हो गया है। भगवान से मिलाने के नाम पर, मोक्ष और मुक्ति दिलाने के नाम पर, कुण्डलिनी जागृति के नाम पर, पाप और दुःख काटने के नाम पर, रोग-व्याधियां दूर करने के नाम पर और जीवन में सुख और सफलता दिलाने के नाम पर हजारों धोखेबाज गुरु पैदा हो गये हैं जिनको वास्तव में कोई आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं है। जो स्वयं आत्मा को नहीं जानते वे दूसरों को आत्मा पाने का गुर बताते हैं। तरह-तरह के प्रलोभन देकर धन कमाने के लिए शिष्यों की संख्या बढ़ाते हैं। जिसके बाड़े में जितने अधिक शिष्य हों वह उतना ही बड़ा और सिद्ध गुरु कहलाता है।

मूर्ख भोली-भाली जनता इनके पीछे-पीछे भागती है और दान-दक्षिणा देती है। ऐसे धन-लोलुप अज्ञानी और पाखंडी गुरुओं से हमें सदा सावधान रहना चाहिए। कहावत है कि 'पानी पीजै छान के और गुरु कीजै जान के।' सच्चा गुरु ही भगवान तुल्य है। इसीलिए कहा गया है कि 'गुरु-गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय, बलिहारी गुरु आपनो जिन गोविंद दियो मिलाय।' यानी भगवान से भी अधिक महत्व गुरु को दिया गया है। यदि गुरु रास्ता न बताये तो हम भगवान तक नहीं पहुंच सकते। अतः सच्चा गुरु मिलने पर उनके चरणों में सब कुछ न्यौछावर कर दीजिये। उनके उपदेशों को अक्षरशः मानिये और जीवन में उतारिये। सभी मनुष्य अपने भीतर बैठे इस परम गुरु को जगायें। यही गुरु-पूर्णिमा की सार्थकता है तथा इसी के साथ अपने गुरु का भी सम्मान करें।

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