शेख अब्दुल्ला की पुण्यतिथि आज, जिनके बगैर कश्मीर का भारत में विलय कठिन होता

कश्मीर के देश से विलय में शेख अब्दुल्ला का बड़ा हाथ रहा. शेरे-कश्मीर कहलाने वाले इस नेता की आज पुण्यतिथि है.

Update: 2021-09-08 06:02 GMT

फाइल फोटो 

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। कश्मीर के देश से विलय में शेख अब्दुल्ला का बड़ा हाथ रहा. शेरे-कश्मीर कहलाने वाले इस नेता की आज पुण्यतिथि है. जिस समय देश का बंटवारा हो रहा था, तब शेख अब्दुल्ला कश्मीर के सबसे बड़े नेता थे. जिन्ना के लाख चाहने के बाद भी वो उनके साथ नहीं गए और ना ही कश्मीर के पाकिस्तान में विलय के पक्ष में थे. वो उन चुनिंदा नेताओं में थे, जो कश्मीर को भारत से मिलाने पर यकीन रखते थे. हालांकि बाद में कश्मीर साजिश के आरोप में उन्हें 11 साल जेल की सलाखों के पीछे बिताने पड़े. तब उन्हें कश्मीर से तीन हजार किलोमीटर दूर तमिलनाडु में हाउस अरेस्ट रखा गया था.

शेख अब्दुल्ला का जन्म 5 दिसंबर, 1905 को श्रीनगर के पास स्थित सौरा में हुआ था. इस समय आम कश्मीरी गरीबी से जूझ रहे थे. वहीं शेख अब्दुल्ला का परिवार व्यापार से जुड़ा था इसलिए उन्हें पढ़ने-लिखने का मौका मिला. उन्होंने लाहौर और अलीगढ़ में पढ़ाई की. अलीगढ़ से साल 1930 में विज्ञान में मास्टर्स की डिग्री हासिल करने के बाद वे श्रीनगर वापस लौट आए.
शेख अब्दुल्ला ने पढ़े-लिखे अवाम को इकठ्ठा करना शुरू किया. उनके भीतर राजनीतिक और सामाजिक चेतना जगाने की बात की. उनकी कोशिशों के चलते 1932 में मुस्लिम कांफ्रेंस नाम का एक संगठन बना. साल 1938 में संगठन का नाम 'मुस्लिम कांफ्रेंस' से बदलकर 'नेशनल कांफ्रेंस' कर दिया गया.
कश्मीर में लोकप्रिय हो गए
गैर-सांप्रदायिक और मुद्दों से जुड़ा होने के कारण इससे लोग जुड़ते चले गए. जल्दी ही फिजिक्स पढ़ा-लिखा ये युवक कश्मीर में लोकप्रिय हो गया. नए आए युवक को इतना चर्चित होता देख तत्कालीन राजा हरिसिंह को जरूर इससे दिक्कत होने लगी. साल 1946 में शेख अब्दुल्ला ने जम्मू- कश्मीर में महाराजा हरि सिंह के खिलाफ 'कश्मीर छोड़ो' आंदोलन चलाया. तब महाराजा ने उन्हें जेल में डाल दिया.
1948 में कश्मीर के प्रधानमंत्री बने
बाद में जवाहरलाल नेहरू की कोशिशों से शेख अब्दुल्ला जेल से रिहा हो गए. साल 1948 में वे तत्कालीन जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री बना दिए गए. बता दें कि तब कश्मीर में मुख्यमंत्री की जगह प्रधानमंत्री शब्द का इस्तेमाल किया जाता था. वो कश्मीरियों के चहेते नेता थे. वक्त ने दोबारा पलटा खाया.
फिर 11 साल के लिए जेल में भी डाले गए
करीब 05 साल उनकी सरकार को बहुमत न होने के चलते गिरा दिया गया. अब्दुल्ला ने सदन में बहुमत साबित करने के लिए गुहार लगाई. उन्हें इसका मौका नहीं मिला. शेख अब्दुल्ला की कैबिनेट के हिस्सा रहे बख्शी गुलाम मोहम्मद को कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया गया. इसके कुछ ही दिन बाद शेख अब्दुल्ला को कश्मीर-साजिश के आरोप में लगभग 11 सालों के लिए जेल में डाल दिया गया.
वो पाक शासक अयूब खान से मुलाकातें कर रहे थे
इस आरोप के पीछे एक वजह ये भी थी कि वे पाकिस्तान के शासक जनरल अयूब खान से मुलाकातें कर रहे थे. उनपर ये आरोप भी लगे कि वो आजाद कश्मीर चाहते हैं. कश्मीर साजिश के बारे में ये भी कहा जाता है कि नेहरू के प्रिय मित्र होने के कारण कई नेता शेख अब्दुल्ला को उनकी नजरों से गिराना चाहते थे. इसी कोशिश में उनपर आजाद कश्मीर का आरोप लगाया गया.
क्या वो वाकई कश्मीर को आजाद देश बनाने वाले थे
कहा जाता है कि साल 1950 में खुफिया एजेंसियों को कई इनपुट मिले जो इसी ओर इशारा करते थे. IB के उस वक्त के चीफ बीएन मलिक ने अपनी एक किताब 'नेहरू के साथ मेरे दिन' में दावा किया था कि 1953 में शेख अब्दुल्ला ने विदेशी गुप्तचर एजेंसी के अधिकारियों के साथ बैठक की थी. इसके मुताबिक साल 1953 में वे कश्मीर को आजाद देश बनाने की बात करने वाले थे. इसके बाद ही शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया गया.
क्यों हुए फिर जेल से रिहा
शेख अब्दुल्ला के करीब 11 साल तक जेल में रहने के बाद सरकार ने उन पर से सारे आरोप वापस ले लिए थे. जब शेख अब्दुल्ला जेल से छूटकर वापस कश्मीर पहुंचे तो किसी हीरो की तरह उनका स्वागत किया गया. कहा जाता है कि नेहरू तब भारत और पाकिस्तान के रिश्तों की बेहतरी के लिए उनका साथ चाहते थे लेकिन वो नेहरू जी का आखिरी वक्त था.
शुरुआती दिन काफी मुफलिसी वाले थे
अपनी जीवनी में शेख अब्दुल्ला ने लिखा है कि उनके कश्मीर पंडित पूर्वजों ने अफगान शासन के दौरान इस्लाम अपनाया था. जब उनका जन्म हुआ, उससे 15 दिन पहले ही उनके पिता का निधन हो चुका था. घर की हालत अच्छी नहीं थी. शेख ने अपनी जीवनी में लिखा, परिवार की खस्ताहाल आर्थिक स्थिति के चलते एक समय ये भी आया, जब उन्हें घर चलाने में सहयोग करने के लिए रफूगिरी सीखनी पड़ी. अनाज की एक दुकान में नौकरी की. उन्होंने स्कूल जाने के लिए रोज 20 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था.
महाराजा हरिसिंह की नीतियों के विरोधी थे
मैट्रिक करने के बाद जब उन्होंने लाहौर में विज्ञान की पढ़ाई शुरू की तभी उनमें राजनीतिक चेतना विकसित हुई. वो कई राष्ट्रवादी नेताओं के संपर्क में आए. वहां से बीएससी करने के बाद शेख अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय में गए, जहां से उन्होंने केमेस्ट्री में एमएससी की. इसके बाद भी उन्होंने कश्मीर में मामूली तनख्वाह पर ही एक हाईस्कूल में नौकरी करनी पड़ी.महाराजा हरिसिंह की नीतियों और नौकरियों को लेकर मुस्लिम युवकों के आक्रोश को उन्होंने आवाज देने का काम किया. धीरे धीरे वो कश्मीर की राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय होने लगे. एक दिन ऐसा भी आया कि वो वहां के लोगों के बीच सबसे लोकप्रिय नेता बन गए.
जब बेटे को उत्तराधिकारी बनाया तो असंतोष पैदा हो गया
हालांकि अपने अंतिम दिनों में शेख अब्दुल्ला भी उन्हीं कमजोरियों का शिकार हुए, जो भारतीय उपमहाद्वीप में सामान्य है. अपनी पार्टी में उत्तराधिकारी का चयन उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से करने की बजाए परिवार से बेटे के रूप में किया. इसे लेकर उनकी पार्टी के प्रमुख नेताओं में असंतोष भी हुआ. केवल यही नहीं जब शेख अब्दुल्ला ने अपने फारूक को आगे करना शुरू किया तो दामाद गुलाम मोहम्मद शाह को भी ये बात बुरी लगी.
1982 में आखिरी सांस ली
1982 की गर्मियों में शेख की तबीयत काफी बिगड़ गई. 08 सितंबर 1982 को वो दुनिया से विदा हो गए. एमजे अकबर ने उनके बारे में कहा, तमाम उतार चढ़ावों के बीच वह एक हिंदुस्तानी की तरह जिए और हिन्दुस्तानी की तरह ही मरे. अपनी कमजोरियों और खूबियों के साथ वो कश्मीर के नहीं बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के बहुत महत्वपूर्ण नेता थे. इसमें भी कोई शक नहीं कि उनके ज्यादा लोकप्रिय और स्वीकार्य नेता आजतक कश्मीर में नहीं हुआ.
दो शादियां की थीं
शेख अब्दुल्ला ने दो शादियां की थीं. उनकी पहली पत्नी कश्मीरी मीरजान थीं. इसके बाद उन्होंने स्लोवाक मूल की अकबर जहां से शादी की, जो गुलमर्ग के होटल और रिसोर्ट के मालिक माइकल हैरी नेडोऊ की बेटी थीं. अकबर जहां ने राजनीति में भी सक्रिय भूमिका अदा की. वो दो बार सांसद रहीं. वर्ष 2000 में उनका निधन हो गया. वो कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला की मां थीं.


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