सर्वोच्च न्यायालय से पति को राहत, पत्नी की मौत का दाग लिए न्याय के लिए भटका
अदालत ने इस बात पर अफसोस जताया कि यदि आपराधिक न्याय प्रणाली को आरोपी को बरी करने में 30 साल लग गए तो यह समझा जा सकता है कि देश की आपराधिक न्याय प्रणाली खुद ही आरोपी के लिए सजा बन सकती है।
नई दिल्ली: निर्दोष साबित होने में पूरी उम्र बीत गई। अपनी ही पत्नी की मौत का दाग लिए एक शख्स 30 साल से न्याय के लिए भटक रहा था। आज सुप्रीम कोर्ट ने महज 10 मिनट के भीतर उसे दोषमुक्त कर दिया। इस दौरान शीर्ष अदालत ने सिस्टम पर भी सवाल उठाए। इस बात पर अफसोस जताया कि यदि आपराधिक न्याय प्रणाली में आरोपी को बरी करने में 30 साल लग गए तो भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली स्वयं ही आरोपी के लिए सजा बन सकती है, आज इसका उदाहरण देखने को मिला।
सुप्रीम कोर्ट ने 1993 को एक महिला के आत्महत्या प्रकरण में उसके पति पर लगे उकसाने के आरोप को रद्द कर दिया है। मामले की सुनवाई जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने की। सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमा शुरू होने के लगभग 10 मिनट के भीतर ही 30 साल पुराने केस में फैसला सुना लिया। फैसला सुनाते समय अदालत ने इस बात पर अफसोस जताया कि यदि आपराधिक न्याय प्रणाली को आरोपी को बरी करने में 30 साल लग गए तो यह समझा जा सकता है कि देश की आपराधिक न्याय प्रणाली खुद ही आरोपी के लिए सजा बन सकती है।
Live.Law के मुताबिक, कोर्ट ने कहा, “इस मामले से अलग होने से पहले हम केवल यह देख सकते हैं कि हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली स्वयं सज़ा हो सकती है। इस मामले में बिल्कुल वैसा ही हुआ है। अदालत को आरोपी पर फैसला लेने में महज 10 मिनट का समय लगा। अदालत ने माना कि आरोपी पर आईपीसी की धारा 306 के तहत दंडनीय अपराध नहीं टिकते।
घटना 1993 की है, हरियाणा की एक महिला आत्महत्या कर देती है। इस घटना के बाद महिला के पति और ससुरालियों पर पैसे मांगने और उसे परेशान करने के आरोप लगते हैं। पुलिस आरोपी पति के खिलाफ आईपीसी की धारा 306 के तहत एफआईआर दर्ज करती है। 1998 में ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराया जाता है और 2008 में हाई कोर्ट भी इसकी पुष्टि करता है। खुद पर लगे आरोपों और दोषसिद्धि के खिलाफ शख्स ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपील दायर की।
आरोपी पति द्वारा सुप्रीम कोर्ट में यह तर्क दिया गया कि निचली अदालतों ने अपीलकर्ता को मृतका को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी ठहराने में गलती की है। उसने कहा कि इस बात का जरा भी सबूत नहीं है कि उसने अपनी पत्नी पर किसी भी तरह का शारीरिक या मानसिक उत्पीड़न किया हो। आरोपी की दलील और उस पर लगे आरोपों में कोई सबूतों न होने के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी पर दोषसिद्धि को पूरी तरह से रद्द कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में माना कि आईपीसी की धारा 306 के तहत किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए अपराध करने की स्पष्ट मंशा होनी चाहिए, जैसा कि इस केस में नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "सिर्फ उत्पीड़न किसी आरोपी को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसके लिए सबूतों की आवश्यकता होती है, जिसके कारण महिला ने आत्महत्या की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ आपराधिक मनःस्थिति को स्पष्ट रूप से सबूत के तौर पर नहीं माना जा सकता है। अदालत ने कहा कि आत्महत्या के लिए उकसाने के लिए पति को दोषी ठहराने के लिए पति के खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं है, क्योंकि अभियोजन पक्ष द्वारा जिन सबूतों पर भरोसा किया गया वह यह साबित नहीं कर सके कि आरोपी ने अपने कृत्यों के कारण महिला को आत्महत्या के लिए उकसाया हो।"
कोर्ट ने आगे कहा, “अगर लगातार उत्पीड़न का कोई ठोस सबूत होता, जिसके कारण पत्नी के पास अपने जीवन को समाप्त करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचा होता तो यह कहा जा सकता है कि आरोपी ने अपने कृत्य से महिला को सुसाइड के लिए प्रेरित किया है। यह फैसला सुनाते हुए जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने आरोपी द्वारा पिछले 30 साल में झेली गई लंबी पीड़ा पर दुख व्यक्त किया। अदालत ने माना कि इन 30 साल में शख्स ने बहुत कुछ झेला है, जिसका शायद वो हकदार भी नहीं था।
पीठ ने कहा, "हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली स्वयं ही सजा दे सकती है। इस मामले में बिल्कुल यही हुआ है। इस अदालत को निष्कर्ष पर पहुंचने में 10 मिनट से अधिक समय नहीं लगा कि अपीलकर्ता पर लगाए गए अपराध गलत हैं।" आईपीसी की धारा 306 के तहत दंडनीय अपराध इस मामले में टिकाऊ नहीं है। अपीलकर्ता ने इस फैसले को पाने के लिए 1993 से 2024 तक लंबा संघर्ष किया है। उसे इंसाफ मिलने में 30 साल लग गए जो काफी पीड़ादायक हैं।"