परमवीर परमेश्वरन: विदेशी जमीन पर सर्वोच्च बलिदान, अंतिम सांस तक लड़ने वाले मेजर

Update: 2024-09-13 06:48 GMT
नई दिल्ली: भारतीय सेना ने हर रोल को बखूबी निभाया है। चाहे बात शांति काल की हो या युद्ध के मैदान की। भारतीय सेना के जांबाज लड़ाके एक तरफ लोगों की मदद करना जानते हैं, दूसरी तरफ दुश्मनों को करारा जवाब देने का हुनर भी जानते हैं। इन्हीं जांबाज सेना नायकों में एक नाम मेजर रामास्वामी परमेश्वरन का है।
उन्होंने विदेशी जमीन पर भारतीय सेना की सर्वोच्च परंपरा का ना सिर्फ अनुकरण किया, सर्वोच्च बलिदान देकर हमेशा के लिए अमर भी हो गए। आज मेजर रामास्वामी परमेश्वरन की जयंती है। लिहाजा, हम आपको इस वीर सपूत के बारे में बताते हैं। भारतीय सेना ने कई बड़े सैन्य अभियानों को सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचाया है। इसमें 1971 की जंग, कारगिल युद्ध से लेकर ऑपरेशन पवन भी है। 'ऑपरेशन पवन' को श्रीलंका की धरती पर अंजाम दिया गया था।
इस ऑपरेशन में शामिल भारतीय सेना के हर जवान ने अपनी अहम भूमिका निभाई थी। 'ऑपरेशन पवन' में सर्वोच्च बलिदान के लिए मेजर परमेश्वरन को परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। परमेश्वरन सेना में अधिकारी के रूप में महार रेजिमेंट में 1972 को आए थे। मेजर रामास्वामी 1971 के युद्ध में पाकिस्तान के खिलाफ लड़ने वाले सैनिकों के साहस और बलिदान से प्रेरित थे। उन्होंने 1971 में ऑफिसर्स ट्रेनिंग एकेडमी (ओटीए) ज्वाइन कर ली। वहां से मेजर परमेश्वरन 16 जून 1972 में पास हुए थे। इसके बाद भारतीय थल सेना की सबसे प्रसिद्ध 15 महार रेजिमेंट में कमीशंड ऑफिसर के तौर पर नियुक्त हुए। यहां आठ साल रहने के बाद उन्हें 5 महार में ले लिया गया था।
मेजर परमेश्वरन ने मिजोरम और त्रिपुरा युद्ध में भी भाग लिया था। साथी मेजर परमेश्वरन को 'पेरी साहब' के नाम से भी बुलाते थे। उनकी बहादुरी, साहस, सहनशीलता और दृढ़ निश्चय की बातें सभी की जुबान पर थी। इसी का नतीजा था कि जब श्रीलंका में भारतीय थल सेना की ओर से 'ऑपरेशन पवन' शुरू किया गया तो मेजर परमेश्वरन को 8 महार बटालियन में सेवा देने के लिए चुना गया। 8 महार ही पहली बटालियन थी, जिसे 1987 में श्रीलंका भेजा गया था।
दरअसल, 11 अक्टूबर 1987 को इंडियन पीस कीपिंग फ़ोर्स (आईपीकेएफ) ने श्रीलंका में 'ऑपरेशन पवन' कोड नेम से अभियान चलाया था। उनका लक्ष्य जाफना को लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) से कब्जा मुक्त कराना था। भारतीय सेना का अभियान करीब तीन सप्ताह तक चला था और जाफना पर नियंत्रण हासिल करने में सफलता भी मिली थी। बड़ी बात यह है कि श्रीलंकाई सेना जाफना पर कब्जा करने में असफल हो गई थी।
भारतीय सैन्य अभियान भारत-श्रीलंका के बीच 29 जुलाई 1987 को हुए एक शांति समझौता का नतीजा था। इस शांति समझौता का मकसद भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में गृहयुद्ध को खत्म कर स्थायी शांति लाना था। श्रीलंका में चल रहे गृहयुद्ध को शांत करने के लिए भारत ने महार रेजिमेंट भेजी थी। इसमें मेजर रामास्वामी परमेश्वरन भी थे। 25 नवंबर 1987 को मेजर रामास्वामी परमेश्वरन श्रीलंका में एक तलाशी अभियान से लौट रहे थे। इसी दौरान हमला हो गया।
मेजर परमेश्वरन की टुकड़ी पर आतंकवादियों के एक समूह ने घात लगाकर हमला कर दिया। दुश्मनों के अचानक हुए हमले से बिना घबराए मेजर परमेश्वरन ने सूझबूझ का परिचय दिया। उन्होंने आतंकवादियों को पीछे से घेर लिया और हमला कर दिया, जिससे उग्रवादी हड़बड़ा गए। इस दौरान मेजर परमेश्वरन ने आमने-सामने की लड़ाई में एक-एक आतंकवादी को चुन-चुनकर सबक सिखाना शुरू किया। इसी बीच एक आतंकवादी ने मेजर परमेश्वरन के सीने में गोली मार दी।
मेजर परमेश्वरन के सीने में गोली लगी थी। फिर भी उन्होंने अपने उस रूप को दिखाया, जिससे आतंकवादियों के हाथ-पैर फूल गए थे। मेजर परमेश्वरन लड़ते रहे। उन्होंने गोली मारने वाले आतंकवादी की राइफल छीन ली और उसे गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया। मेजर परमेश्वरन गंभीर रूप से घायल थे। उनका खून बहता जा रहा था। लेकिन, मेजर रामास्वामी परमेश्वरन ने अंतिम सांस तक आदेश देने के साथ ही आतंकवादियों को भी सबक सिखाना जारी रखा।
मेजर परमेश्वरन की दिलेरी की वजह से पांच आतंकवादी मारे गए। वहीं, भारी मात्रा में गोला-बारूद के अलावा हथियार भी बरामद किए गए। आखिरी समय तक मेजर परमेश्वरन ने ना सिर्फ अदम्य साहस का परिचय दिया, बल्कि, अपनी टुकड़ी का कुशलता से नेतृत्व करते हुए लड़ते-लड़ते शहीद हो गए। मेजर परमेश्वरन को सर्वोच्च बलिदान के लिए 1988 में मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। आज भी परमवीर मेजर रामास्वामी परमेश्वरन पर हर भारतवासी को गर्व है।
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