नई दिल्ली (आईएएनएस)| सामवेद में प्रार्थना है, याचना है, पाकीजगी है, फरियाद है, आत्मसमर्पण है। जब तक दुनिया है, तब तक सामवेद भी रहेगा। इसीलिए मैने सामवेद का अनुवाद करने का फैसला किया, ताकि इसी के साथ मेरा भी अस्तित्व कयामत तक बना रहे। यह बात सामवेद का हिंदी और उर्दू में अनुवाद करने वाले फिल्म लेखक व निर्देशक डॉ. इकबाल दुर्रार्नी ने कही। आईएएनएस से बात करते हुए डॉ. दुर्रानी ने कहा कि सामवेद में वो अंदाज है, जैसे बंदा खुदा से बातें कर रहा हो कि हे ईश्वर मुझे ज्ञान दे, मुझे आत्मबल दे। मुझे इसमें एक इश्क लगा और एक आशिक को इश्क के अलावा कुछ और नहीं चाहिए। इसका फल मुझे तब मिला जब इसके विमोचन के मौके पर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मुझे मंच पर बुलाया, मेरी प्रशंसा की और मुझे गले लगाकर भाई जैसा प्यार दिया। यह मेरे लिए गर्व की बात है।
इकबाल दुर्रानी ने बताया कि सामवेद का हिंदी व उर्दू में अनुवाद करने में मुझे 6 साल लग गए, लेकिन कुदरत 50 साल पहले से इसे कराना चाहती थी। उन्होंने कहा कि मेरे दादाजी संस्कृत के टीचर थे। जब मैं उनके स्कूल में जाता था, तो वहां लोग मुझे पंडित जी का पोता कहते थे। संस्कृत मेरे डीएनए में आ गया था। कुदरत को मुझसे सामवेद का अनुवाद कराना था। मेरा गांव मंदार पर्वत के सामने है। उल्लेखनीय है कि मंदार पर्वत वह पर्वत है, जिससे समुद्र मंथन हुआ था। मंथन से ऐरावत हाथी, लक्ष्मी जी, विष आदि निकला, तो वह भी मेरा एक प्रेरणास्रोत बन गया।
फिर वही हुआ मैं समुंदर के पास चला गया मुंबई, समुद्र मंथन करने। वहां मैंने खूब मंथन किया और मुझे कामयाबी मिली। मेरी जिंदगी ऐसी राहों से गुजरी, जहां धार्मिक कट्टरता से मेरी मुलाकात ही नहीं हुई। पहले ऊपर वाले ने मेरे दिल के जमीर को नरम बनाया, फिर उसी ने सामवेद लिखने का बीज मेरे अंदर डाल दिया।
डॉ. दुर्रानी ने कहा, मैं सपने में भी सोच नहीं सकता था कि मैं सामवेद लिख पाऊंगा या लिखूंगा, ऊपर वाले की मर्जी थी कि उसने मेरे दिल में यह बात डाल दी और उसने यह काम मुझसे करवा लिया। साढ़े 5 साल तक मैंने सामवेद पर काम किया। फिर जब मैंने सामवेद का हिंदी और उर्दू में अनुवाद कर लिया, तो मैंने सोचा इसको किसी प्रकाशक को दे दिया जाए। वह इसे छापकर मार्केट में उतार देगा और 400-500 सौ रुपए में बिकने लगेगी। लेकिन मेरे दिल ने यह बात गवारा नहीं समझा।
उन्होंने कहा, मैं फिल्म का आदमी हूं, तो अच्छे से सोचता हूं कि बड़ा हीरो हो, अच्छी सी लोकेशन हो, अच्छे से सजाओ, अच्छे से प्रजेंट करो, तो यह बात मेरे अंदर के फिल्मी आदमी ने सोचा कि इसको इतने अच्छे से प्रजेंट करो कि दुनिया में इतना खूबसूरत सामवेद किसी ने ना प्रजेंट किया हो। इसलिए मैंने तस्वीरों के साथ इसको डिजाइन किया, ताकि लोग इन तस्वीरों के बहाने किताबों के पन्नों को पलटे, देखें, पढ़ें जिससे लोगों को महसूस हो कि इकबाल दुर्रानी सिर्फ एक लेखक ही नहीं, बल्कि आशिक भी है। जैसे आशिक अपने महबूब को सजाता है, उसी तरह मैंने सामवेद को सजाया है।
अब सामवेद के हिंदी और उर्दू अनुवाद का विमोचन भी हो गया और यह बाजार में भी आ जाएगा। उन्होंने बताया कि हम इसको प्रति एपिसोड के हिसाब से शूट भी करने वाले हैं, ताकि नई पीढ़ी यू-ट्यूब पर हर दिन 2 एपिसोड देखे।
डॉ. दुर्रानी ने कहा कि जब मैंने सामवेद लिखना शुरू किया, तो फिल्म वाले लोगों ने सोचा कि मैंने ऊपर वाले का काम करना शुरू कर दिया है, अब तो मैं स्क्रिप्ट लिखूंगा नहीं, तो लोगों ने आना बंद कर दिया। साढ़े पांच साल तक मेरा कोई सोर्स ऑफ इनकम नहीं रहा, जबकि मैं हर साल तीन-चार फिल्म लिखकर अच्छा पैसा कमा सकता था। लेकिन मैंने यह सोचकर वह छोड़ दिया कि अगर मैंने फिल्में लिख भी दी, तो यह आठ या दस साल में मर जाएगी। लेकिन अगर मैंने सामवेद पर काम कर लिया तो सामवेद कयामत तक नहीं मरेगा और मैंने यह काम कर लिया तो मेरा नाम भी कयामत तक जिंदा रहेगा, तो मैं जिंदगी की चाह में सामवेद से इश्क कर बैठा।