चुनाव: मनचाहा टिकट नहीं मिलने पर दल बदल लेते हैं नेता, आंकड़े दे रहे गवाही
दिल्ली। देश की सबसे पुरानी पार्टी हो, देश की सबसे बड़ी पार्टी हो या फिर चुनाव में नई हवा, नई सपा बताने वाली पार्टी हो. पार्टी बहन जी की हो, पार्टी नेताजी की हो, पार्टी भैया की हो, दीदी की हो लेकिन हर पार्टी में एक बात कॉमन है. चुनाव आने पर इनके नेता दल बदल लेते हैं. दल बदल रोकने को देश में कई बार कानून बने, कई बार कानून बदले गए लेकिन दल बदलने वाले कभी नहीं रुके. दल बदलने के कारण कई होते हैं जिनमें सबसे ज्यादा दल बदलुओं का कारण फैमिली फर्स्ट होता है. भाई, भतीजा, बेटा, बहू, पत्नी को टिकट ना मिले तो परिवार के लिए पार्टी, पार्टी के विचार, सबका अचार डाल दिया जाता है. उत्तराखंड में बीजेपी के मंत्री हरक सिंह रावत, उत्तर प्रदेश में बीजेपी के मंत्री रहे स्वामी प्रसाद मौर्य, यूपी में ही बीजेपी संगठन के उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह, पंजाब में मुख्यमंत्री चन्नी के भाई मनोहर सिंह, ये वो चेहरे हैं जो चुनाव आने पर घरवालों के टिकट में ऐसे उलझे कि या तो घर जैसी पार्टियां छोड़ दीं या घर के भीतर कलह मच गई.
हुआ ये है कि जिस हरक सिंह के कांग्रेस में रहते हुए छह साल पहले हिल जाने से हरीश रावत की सरकार ही हिल ही गई थी वही हरक सिंह रावत अब बीजेपी में मंत्री रहते हुए हिल गए हैं. हरक सिंह को उनकी पार्टी बीजेपी ने छह साल के लिए एक झटके में निष्कासित कर दिया. हरक सिंह रावत को लेकर उत्तराखंड के सीएम पुष्कर सिंह धामी ने कहा, वो अपने परिवार के सदस्यों के लिए टिकट को लेकर पार्टी पर दबाव डाल रहे थे लेकिन हमारी एक अलग नीति है, एक परिवार के केवल एक सदस्य को चुनाव के लिए पार्टी का टिकट दिया जाएगा.
हरक सिंह रावत अब लौटकर उसी कांग्रेस में जा रहे हैं जिसके हाथ को छह साल पहले नौ विधायकों के साथ दल बदलकर कमजोर किया था. अब सवाल उठता है कि वो एक बार फिर बीजेपी से कांग्रेस में क्यों जा रहे हैं ? दावा ये है कि हरक सिंह अपनी मौजूदा सीट कोटद्वार की जगह दूसरी सीट चाहते थे. साथ ही अपनी बहू अनुकृति के लिए लेंसडाउन सीट से टिकट मांग रहे थे. पार्टी ने वन फैमिली वन टिकट का फॉर्मूला बताकर, दल बदलने से पहले ही उन्हें निष्कासित कर दिया.
फैमिली फर्स्ट और फैमिली मैटर्स के फॉर्मूले पर ही दावा है कि स्वामी प्रसाद मौर्य खुद को नेवला और पांच साल तक जिस पार्टी से बेटी सांसद, बेटा विधायकी का उम्मीदवार और खुद मंत्री रहे, उसे सांप बताने लगे. पार्टी छोड़ने के बाद मौर्य ने कहा था कि अब आरएसएस नाग के रूप में और सांप के रूप में भाजपा हम लोगों का हक अधिकार अजगर की तरह निगल रही है तो स्वामी को नेवला बनना पड़ेगा और स्वामी रूपी नेवला इनको इनको कुतर कुतर के टुकड़े-टुकड़े में ऐसा बटेगा कि इनको भी छठी का दूध याद आएगा.
मनमुताबिक टिकट नहीं मिलने पर पार्टी छोड़ देते हैं स्वामी
स्वामी प्रसाद मौर्य पर भी ये आरोप रहा है कि वो पार्टी में अपने बेटे-बेटियों को मनमुताबिक टिकट ना मिलने पर पार्टी छोड़ते रहे हैं. बीएसपी में रहते हुए लगातार मंत्री बनते रहे स्वामी प्रसाद मौर्य को लेकर दावा है कि 2016 में उन्होंने इसलिए बीएसपी छोड़ी थी क्योंकि उनकी बेटी संघमित्रा और बेटे उत्कर्ष को मनमुताबिक सीट से पार्टी ने टिकट नहीं दिया था. बीजेपी में आने के बाद स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी तो बदायूं से बीजेपी के ही टिकट पर सांसद बनीं लेकिन बेटा उत्कर्ष बीजेपी का टिकट पाकर भी हार गया. 2022 में फिर इस बार यही आरोप है कि बेटे को मनमुताबिक सीट नहीं मिलने पर स्वामी प्रसाद मौर्य ने बीजेपी से किनारा कर लिया. उनकी सांसद बेटी अब भी बीजेपी में बनी हुई हैं. इतिहास गवाह है पहले भी बहुत से कई परिवार और आज भी ऐसे परिवार हैं जो जिसमें चार चार पार्टियां चलती हैं. आज स्वामी प्रसाद मौर्य किसी दूसरी पार्टी में हैं तो उनकी बेटी अन्य पार्टी में है.
इसी तरह पंजाब के मुख्यमंत्री के भाई मनोहर सिंह पर एक शेर फिट बैठ रहा है, न ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम. मुख्यमंत्री चन्नी के भाई ने राजनीति में आने के लिए पिछले साल अगस्त में मोहाली जिले के खरार सिविल हास्पिटल के सीनियर मेडिकल अफसर का पद छोड़कर वीआरएस ले लिया. वो पक्का मानकर बैठे थे कि बस्सी पठाना सीट से कांग्रेस के कैंडिडेट बनेंगे लेकिन पंजाब में कांग्रेस ने भी वन फैमिली वन टिकट के फॉर्मूले पर सीएम चन्नी के भाई को टिकट नहीं दिया. लिहाजा नौकरी भी गई, पार्टी का टिकट भी नहीं मिला तो चन्नी के भाई ने निर्दलीय उतरने का एलान कर दिया. बहू, बेटा, बेटी और भाई के बाद राजनीति में फैमिली वाली फिल्म के चौथे किरदार यूपी में मंत्री स्वाति सिंह और उनके पति दयाशंकर सिंह हैं. 2017 में मायावती को अपशब्द कहने के बाद दयाशंकर सिंह का ही टिकट कटकर उनकी पत्नी स्वाति सिंह को मिला था. स्वाति सिंह मंत्री भी बनीं पांच साल बाद पति, पत्नी और राजनीति का रिश्ता ऐसा हुआ कि पति कहने लगे, मेरे नाम से टिकट मिला था इस बार मुझे मिलनी चाहिए, स्वाति को नहीं.
चुनाव नजदीक आने पर दल बदलने की कुप्रथा हमारे देश में लंबे अरसे से चली आ रही है. दल बदल कर सिर्फ नेता, विधायक या सांसद ही नहीं बनते बल्कि दल बदलकर राजनेता प्रधानमंत्री तक बने हैं. देश में 1957 से 1967 तक की अवधि में करीब 542 बार सांसद-विधायकों ने अपने दल बदले. 1967 में चौथे आम चुनाव के पहले वर्ष में भारत में 430 बार सासंद- विधायक ने दल बदलने का रिकॉर्ड बनाया. 1967 के बाद एक और रिकॉर्ड बना, जिसमें दल बदलुओं के कारण 16 महीने के भीतर 16 राज्यों की सरकारें गिर गईं. उसी दौर में हरियाणा के विधायक गयालाल ने 15 दिन में ही तीन बार दल-बदल के हरियाणा की राजनीति में एक नया रिकॉर्ड बनाया था जिसके बाद कहावत बनी आया राम-गया राम.
साल 1998-99 में गोवा दल-बदल और बदलती सरकारों के कारण सुर्खियों में रहा था जब 17 महीने में गोवा में पांच मुख्यमंत्री बदल गए थे. वैसे दल बदलना हमेशा सबके लिए फायदे का सौदा नहीं होता दल बदलने में नेताओं को दिमाग भी लगाना पड़ता है. दल बदलने वाले कैसे अपने फायदे के लिए जनता का मजाक उड़ाते हैं उसके भी कई सबूत हैं. राजस्थान सरकार में राज्य मंत्री राजेंद्र गूढ़ा ने कहा था कि मैं चुनाव बसपा से जीतता हूं...फिर मैं कांग्रेस में जाकर मंत्री बन जाता हूं...जब कांग्रेस में दरी उठाने का वक्त आता है तो कहता है कि भाई कांग्रेस अब तुम संभालो...फिर दोबारा चुनाव में बहन जी से टिकट ले आया. बसपा से कांग्रेस में आ गया, मंत्री बन गया. मेरे खेल में कोई कमी है क्या. राजस्थान में मंत्री राजेंद्र गूढ़ा दल बदलकर ही हर बार खेल करते आ रहे हैं.
ऐसा ही खेल कई बार खिलाड़ी पर भारी भी पड़ता है जिसमें सबसे प्रमुख चेहरा इमरान मसूद हैं. कांग्रेस छोड़कर बड़ी हसरतों के साथ अखिलेश यादव की पार्टी में गए लेकिन इमरान मसूद के साथ ही खेल हो गया. इमरान मसूद कांग्रेस छोड़ सोच रहे थे कि सहारनपुर की नकुड़ सीट से अखिलेश यादव की पार्टी के उम्मीदवार बनेंगे लेकिन समाजवादी पार्टी ने ना इमरान मसूद को टिकट दिया ना ही इमरान के साथ कांग्रेस छोड़ने वाले विधायक मसूद अख्तर को उम्मदीवार बनाया. हालत ये है कि हफ्ते भर के भीतर कांग्रेस से सपा में आए इमरान मसूद को अब बीएसपी या फिर अपनी ही पुरानी पार्टी कांग्रेस से टिकट का आसरा है.
एक रिसर्च के मुताबिक यूपी में 2017 में 14.6 प्रतिशत दल बदलने वाले ही चुनाव जीत पाए. 2012 में 8.4 फीसदी दल बदलू चुनाव जीत पाए थे. 2007 में 14.4 प्रतिशत दल बदलने वालों ने विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की थी. 2002 में भी इतने ही नेता दल बदलने के बावजूद जीत हासिल करने में कामयाब रहे थे. इसी आधार पर दावा है कि 100 दल बदलने वाले नेताओं में करीब 15 ही इलेक्शन जीत पाते हैं.आप सोचेंगे कि अगर ऐसा है तो फिर नेता दल ही क्यों बदलते हैं. दावा है कि जो नेता सही लहर का हिसाब लगाकर दल बदलते हैं वो सबसे ज्यादा फायदे में रहते हैं.
पार्टी बदलने की कई नेताओं की वजह पर जानकार बताते हैं कि अब वोटर नए चेहरों पर ज्यादा वोट करता है. पहले से चुनाव लड़ने वालों और चुनाव जीतते आ रहे विधायकों को यूपी में एंटी इनकबेंसी के नाम पर जनता खारिज करने लगती है. ऐसे में टिकट कटने का खतरा ही दल बदल का मौका दे देता है.
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