सर्व शिक्षा अभियान की धज्जियां कचरे में भविष्य तलाश रहे बच्चे

Update: 2024-04-27 11:24 GMT
पांवटा साहिब। लाख सरकारी दावे के बावजूद पांवटा साहिब में बच्चे पढऩे की उम्र में पढऩे की बजाय कचरे बीन रहे हैं। सरकार बच्चों के भविष्य के लिए चिंतित होने का दावा करती है, लेकिन पांवटा शहर में सैकड़ों नौनिहाल कचरे के ढेर में ही अपना भविष्य तलाश रहे हैं। सरकार ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू किया है, ताकि गरीबों के बच्चों को भी बेहतर तालीम मिल सके। गरीबों को सस्ते दर पर खाद्यान्न उपलब्ध करवाने के लिए खाद्य सुरक्षा अधिनियम को अमलीजामा पहनाया। इतना ही नहीं गरीबों के कल्याणर्थ व सहायतार्थ कई योजनाएं चलाई बावजूद पांवटा में गरीबों के बच्चे आज भी कूड़े के ढेर पर अपना भविष्य तलाश रहे हैं। उनकी रोजी-रोटी इसी कचरे की ढेर पर टिकी हुई है यानी कूड़े के ढेर में कबाड़ चुनकर ही वह अपनी रोजी-रोटी चला रहे हैं। कूड़े के ढेर में कबाड़ चुनने के चलते हुए गंभीर बीमारियों की चपेट में भी आ जाते हैं, लेकिन वह करें तो क्या करें क्योंकि उनके पास कोई दूसरा साधन भी तो नहीं है। कूड़े के बीच से लोहा, शीशा व प्लास्टिक की बोतलें, लकड़ी के सामान व कागज आदि चुनने वाले यह बच्चे सामाजिक व प्रशासनिक उपेक्षा के शिकार हैं। कूड़े-कचरे के बीच जीविकोपार्जन के लिए कबाड़ चुनना इनकी नियति बन गई है। इसके अलावा पांवटा के मंदिरों में भी यह बच्चे भीख मांगते नजर आते हैं।

जिसको लेकर आज दिव्य हिमाचल द्वारा इन बच्चों से बात की गई तो बच्चों ने बताया कि उनके माता-पिता उनको यह काम करने के लिए भेजते हैं। बच्चों का कहना है कि वह कूड़े में से कबाड़ इक्क्ठा कर कबाड़ी को बेचते हैं। इससे जो पैसे मिलते हैं उसे घर पर देते हैं। बाल श्रम अधिनियम के तहत बच्चों से काम लेना कानूनी अपराध है, परंतु कूड़े-कचरे के ढेर में भविष्य तलाशने वाले बच्चों को इस अधिनियम से कोई लेना देना नहीं है। कूड़े-कचरे के ढेर से कबाड़ चुनकर यह बच्चे अपना तो पेट भरते ही हैं। साथ ही घर चलाने में परिजनों की भी सहायता करते हैं। पेट की आग बुझाने के लिए यह बच्चे अपना बचपन कूड़े-कचरे के ढेर में कबाड़ चुनने में ही गवां देते हैं। ऐसे बच्चों पर बाल श्रम के तहत कोई मामला भी नहीं बनता। पांवटा में चल रही संस्था मेरा गांव मेरा देश की अध्यक्ष पुष्पा खंडूजा व निदेशक अनुराग गुप्ता लगातार झुग्गी-झोपड़ी में जाकर इन बच्चों के माता-पिता से मिलकर इनको स्कूल भेजने के लिए प्रेरित कर चुके हैं। जहां तक शिक्षा के अधिकार अधिनियम की बात है तो सरकारी आंकड़ों में सब कुछ दुरुस्त है यानी ऐसे बच्चे जो स्कूल नहीं जाते हैं या फिर कूड़ा-कचरा चुनने में ही अपना दिन व्यतीत कर देते हैं वह भी सरकारी स्कूलों में नाम अंकित हैं। उनके नाम पर भी सरकारी सुविधाएं उठाई जाती हैं यानी सरकारी आंकड़ों में शिक्षा का अधिकार अधिनियम बिल्कुल दुरुस्त है, लेकिन धरात्तल पर स्थिति कुछ और है। सूरज की पहली किरण के साथ ही यह बच्चे पीठ पर प्लास्टिक का बोरा लिए कबाड़ चुनने के लिए निकल पड़ते हैं। इस जमात में कई बच्चे शामिल रहते हैं।
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