देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड की वकालत, दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा- 'जाति और धर्म के बंधन से ऊपर उठ रहे लोग'

दिल्ली हाई कोर्ट की जज जस्टिस प्रतिभा एम सिंह ने शुक्रवार को तलाक से जुड़े।

Update: 2021-07-09 11:18 GMT

दिल्ली हाई कोर्ट की जज जस्टिस प्रतिभा एम सिंह ने शुक्रवार को तलाक से जुड़े एक मामले पर फैसला सुनाते हुए अपनी टिप्पणी में कहा कि अब संविधान के आर्टिकल-44 में समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) की धारणा को हकीकत रूप देने का समय आ गया है. जस्टिस सिंह ने कहा कि आज का भारत बदल रहा है, लोग धीरे-धीरे जाति, धर्म के बंधन से ऊपर उठ रहे है और पारंपरिक बाधाएं कम हो रही है, ऐसे में कुछ मामलों में शादी के बाद तलाक में युवाओं को परेशानी का सामना करना पड़ता है, जिससे निपटने के लिए देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की जरूरत है.

जस्टिस प्रतिभा सिंह ने टिप्पणी करते वक्त सुप्रीम कोर्ट के 1985 में सुश्री जॉर्डन डिएंगदेह (सुप्रा) के फैसले में दिए गए निर्देशों का भी जिक्र किया और कहा कि उन्हें उचित ठंग से लेते हुए कानून मंत्रालय के समक्ष रखा जाना चाहिए, 3 दशक बीत जाने के बाद भी क्या कदम उठाए गए, ये आज तक स्पष्ट नहीं हैं.
क्या है पूरा मामला?
दरअसल, दिल्ली हाई कोर्ट का ये अवलोकन उसके सामने तलाक के लिए आए एक मामले में फैसला देते हुए दिया गया. जस्टिस प्रतिभा एम सिंह की कोर्ट में मीणा जनजाति से ताल्लुक रखने वाली दंपती के तलाक का मामला आया था. कोर्ट के सामने प्रश्न था कि जून 2012 में हिन्दू रीति रिवाज शादी के बंधन में बंधी दंपती के तलाक के मामले में हिंदू मैरिज एक्ट-1955 के प्रावधान लागू होंगे या नहीं?
पति ने फैमिली कोर्ट में तलाक की अर्जी दाखिल की थी. तलाक की अर्जी का विरोध करते हुए पत्नी ने इसे खारिज करने की अपील दाखिल करते हुए कहा कि वो राजस्थान की मीणा जनजाति से आती है और हिन्दू मैरिज एक्ट उन पर लागू नहीं होता. फैमिली कोर्ट ने पति की याचिका को खारिज कर दिया था, जिसके बाद पति ने फैसले को चुनौती देते हुए दिल्ली हाई कोर्ट का रुख किया था.
फैमिली कोर्ट के आदेश पर रोक
कोर्ट के सामने ये सवाल खड़ा हो गया था कि तलाक को हिन्दू मैरिज एक्ट के मुताबिक फैसला दिया जाए या फिर मीना जनजाति के नियम के मुताबिक. कोर्ट ने पाया कि मीणा जनजातियों के मामलों का निपटारा करने के लिए अलग से कोई विशेष कोर्ट नहीं है, ऐसी स्थिति में यूनिवर्सल सिविल कोड को लागू करने की आवश्यकता है.
दिल्ली हाई कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के आदेश पर रोक लगाते हुए, ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया कि मामले में योग्यता के आधार पर हिन्दू मैरिज एक्ट-1955 के (13)(1) के तहत याचिका का निर्णय 6 महीने में किया जाए.
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