गढ़वाल के प्रवेश द्वार कोटद्वार से लगभग 150 किमी और जिला मुख्यालय पौड़ी से महज 46 किमी की दूरी पर स्थित यह संभवत: देश का इकलौता मंदिर है, जहां राहु की पूजा होती है और वह भी भगवान शिव के साथ। पौड़ी जिले में थलीसैण ब्लॉक की कंडारस्यूं पट्टी के पैठाणी गांव में स्योलीगाड (रथ वाहिनी) व नावालिका (पश्चिमी नयार) नदी के संगम पर स्थित यह मंदिर संपूर्ण गढ़वाल में अपने अनुपम वास्तु शिल्प के लिए जाना जाता है।
तमाम लोगों की मानें तो शंकराचार्य ने इस मंदिर का निर्माण कराया था। कहते हैं कि जब शंकराचार्य दक्षिण से हिमालय की यात्रा पर आए तो उन्हें इस क्षेत्र में राहु के प्रभाव का आभास हुआ। इसके बाद उन्होंने पैठाणी में राहु मंदिर का निर्माण शुरू किया। कुछ लोग इसे पांडवों द्वारा निर्मित भी मानते हैं। पर्वतीय अंचल में स्थित यह मंदिर बेहद भव्य एवं खूबसूरत है, जिसके दीदार को देश-दुनिया से पर्यटक एवं श्रद्धालु पैठाणी पहुंचते हैं।
राहू ने समुद्र मंथन से निकले अमृत का छल से पान कर लिया था। यह देख भगवान विष्णु ने सुदर्शन से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। कहते हैं राहु का कटा हुआ सिर उत्तराखंड के पैठाणी नामक गांव में जिस स्थान पर गिरा, वहां एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। इस मंदिर में भगवान शिव के साथ राहु की धड़विहीन मूर्ति स्थापित है। मंदिर की दीवारों के पत्थरों पर आकर्षक नक्काशी की गई है, जिनमें राहु के कटे हुए सिर व सुदर्शन चक्र उत्कीर्ण हैं। इसी वजह से इसे राहु मंदिर नाम दिया गया।
'स्कंद पुराण' के केदारखंड में उल्लेख है कि राष्ट्रकूट पर्वत की तलहटी में रथ वाहिनी व नावालिका नदी के संगम पर राहु ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी, जिस वजह से यहां राहु मंदिर की स्थापना हुई। राष्ट्रकूट पर्वत के नाम पर ही यह राठ क्षेत्र कहलाया। साथ ही राहु के गोत्र 'पैठीनसि' के कारण कालांतर में इस गांव का नाम पैठाणी पड़ा।
मंदिर के गर्भगृह में स्थापित प्राचीन शिवलिंग और मंदिर की शुकनासिका पर भगवान शिव के तीनों मुखों का अंकन इसके शिव मंदिर होने की ओर इशारा करते हैं। महाशिवरात्रि और सावन के प्रत्येक सोमवार को महिलाएं यहां बेलपत्र चढ़ाकर भगवान शिव की पूजा करती हैं। सबसे अहम बात यह कि यहां पर राहु से संबंधित किसी भी पुरावशेष की प्राप्ति नहीं हुई। वहीं, केदारखंड के कर्मकांड भाग में वर्णित श्लोक 'ॐ भूर्भुव: स्व: राठेनापुरादेभव पैठीनसि गोत्र राहो इहागच्छेदनिष्ठ' के अनुसार कई विद्वान इसके राहु मंदिर होने का प्रबल साक्ष्य मानते हैं। मान्यता है कि राहु ने ही इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना की थी।
मंदिर के शिखर शीर्ष पर विशाल आमलसारिका स्थापित है। अंतराल के शीर्ष पर निर्मित शुकनासिका के अग्रभाग पर त्रिमूर्ति का अंकन और शीर्ष में अधर्म पर धर्म की विजय के प्रतीक गज व सिंह की मूर्ति स्थापित की गई है। मुख्य मंदिर के चारों कोनों पर स्थित मंदिरों का शिखर क्षितिज पट्टियों से सज्जित पीढ़ा शैली में निर्मित है। शिवालय के मंडप में वीणाधर शिव की आकर्षक प्रतिमा के साथ त्रिमुखी हरिहर की एक दुर्लभ प्रतिमा भी स्थापित है। प्रतिमा के मध्य में हरिहर का समन्वित मुख सौम्य है, जबकि दायीं ओर अघोर और बायीं ओर वराह का मुख अंकन किया गया है। इस प्रतिमा की पहचान पुरातत्वविद महेश्वर महावराह की प्रतिमा से करते है। अपने आश्चर्यजनक लक्षणों के कारण यह प्रतिमा गढ़वाल हिमालय ही नहीं, अपितु संपूर्ण भारत की दुर्लभ प्रतिमाओं में से एक है।
वास्तु शिल्प एवं प्रतिमाओं की शैली के आधार पर पैठाणी का यह शिव मंदिर और प्रतिमाएं आठवीं-नवीं सदी के बीच के प्रतीत होते हैं। मंदिर की पौराणिकता के साथ आज तक कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है। हां! मंदिर की ऊपरी शिखा कुछ झुकी हुई जरूर प्रतीत होती है। मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण में है।
पत्थरों से बने एक ऊंचे चबूतरे पर मुख्य मंदिर का निर्माण किया गया है। इसके चारों कोनों पर एक-एक कर्ण प्रासाद बनाए गए हैं। पश्चिम की ओर मुख वाले मुख्य मंदिर की तलछंद योजना में वर्गाकार गर्भगृह के सामने कपिली या अंतराल की ओर मंडप का निर्माण किया गया है। कला पट्टी वेदीबंध के कर्णों पर ही गोल गढ़ी गई है और उत्तर-पूर्वी व दक्षिण कर्णप्रासादों की चंद्रालाओं के मध्य पत्थरों पर नक्काशी की गई है। मंदिर के बाहर व भीतर गणेश, चतुर्भुजी चामुंडा आदि देवी-देवताओं की प्राचीन पाषाण प्रतिमाएं स्थापित हैं।
ग्रह दोष निवारण में विश्वास रखने वाले लोग बड़ी संख्या में राहु की पूजा के लिए यहां पहुंचते हैं। खास बात यह कि राहु को यहां मूंग की खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। भंडारे में श्रद्धालु भी मूंग की खिचड़ी को ही प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं।