Lucknowलखनऊ: प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति का उपन्यास 'अगम बहै दरियाव' पर परिचर्चा -संगोष्ठी का आयोजन जन संस्कृति मंच उत्तर प्रदेश की ओर से कैफ़ी आज़मी एकेडमी सभागार निशातगंज लखनऊ में किया गया। इसकी अध्यक्षता जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा जाने माने आलोचक प्रो रविभूषण ने की। उन्होंने कहा कि शिवमूर्ति का यह उपन्यास हाल के दिनों का सर्वाधिक पठनीय उपन्यास है जो बहुत को समेटे हुए है । यह कमजोर के पक्ष में और संयोग के विरुद्ध है। यह प्रेमचंद को भी लिए है और रेणु को भी। इस उपन्यास को पढ़ते हुए इससे बाहर निकलना पड़ेगा। यह साहित्य के बाहर समाज व राजनीतिक शास्त्रियों के लिए भी जरूरी है। यह वर्ण व्यवस्था और शोषण की सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध है।
उनका आगे कहना था कि यह उपन्यास आपातकाल से लेकर उदारीकरण के बाद करीब 4-5 दशकों में फैले भारतीय समाज की महागाथा है जिसमें किसान-जीवन की संपूर्णता हमारे सामने आती है। उपन्यासकार भिन्न-भिन्न पात्रों के माध्यम से एक साथ कई सवाल खड़े करता है। उपन्यास के केन्द्र में किसानों का जीवन संघर्ष है। उनके जीवन में संघर्ष पूरी जिंदगी बना रहता है। उपन्यास में बहुत सारे पात्र हैं जिनकी गिनती करना मुश्किल है। इनका चरित्र चित्रण इस प्रकार किया गया है कि एक बार शुरू करने के बाद अंत में क्या होता है, इसकी जिज्ञासा बनी रहती है।
प्रो रविभूषण ने कहा कि उपन्यास वर्तमान के दुष्चक्र में फंसे किसान की महागाथा तो है ही साथ ही पिछले पांच दशक के कालखंड और इस दौर में राजनीतिक उठा-पटक को भी हमारे सामने ले आता है। किसान का जीवन एक नदी की तरह है। वह बहती रहे तो लोगों को उससे जीवन मिलता रहेगा। लेकिन आज वह नदी संकटग्रस्त है। किसान भी संकट में है। यह उपन्यास उसके दुख, पीड़ा, हर्ष-विषाद, संघर्ष , आशा-आकांक्षा को सजीव ढंग से प्रस्तुत करता है। जैसे नदी बाधाओं के बाद भी रास्ता बना लेती है, वैसा ही किसान का जीवन है। उपन्यास उसकी ताकत से पाठक को परिचित कराता है।
उपन्यास पर हुई परिचर्चा का आरम्भ इलाहाबाद से आए साहित्यकार और एडवोकेट हरिन्द्र प्रसाद ने उपन्यास में आए कानूनी पहलुओं पर चर्चा की। कहा कि उपन्यास न्याय व्यवस्था को प्रश्नांकित करता है तथा भारतीय न्याय बोध को लाता है। कानूनों, ज़िरह, बहस को प्रामाणिक व बेहतरीन तरीके प्रस्तुत करता है। इससे कृति जीवन्त हुई है। इलाहाबाद से आईं लेखिका रूपम मिश्रा का कहना था कि शिवमूर्ति जी के कथा सृजन की विशेषता है कि वहां दब्बू, भीरू की जगह निर्भीक और अन्याय का प्रतिकार करने वाली स्त्रियां आती हैं जैसा कि उपन्यास के पात्र सोना के चरित्र में हमें देखने को मिलता है। उपन्यास में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जहां स्त्रियां मुखर रूप से मौजूद दिखती हैं। इस उपन्यास के केंद्र में देश नहीं देस है। यह आजादी पर सवाल उठाता है। गांवों में आये बदलाव का दस्तावेज है। यह श्रमशील समाज का प्रतिनिधित्व करता है।
प्रो सूरज बहादुर थापा ने कहा कि शिवमूर्ति जी का उपन्यास समकाल के यथार्थ की बेचैनी को सामने लाती है। यह सिर्फ किसान व गांव जीवन की कथा नहीं है। यह आजादी के बाद लोकतंत्र का क्रिटिक रचता है। इसमें भारतीय राजनीति का आलोचनात्मक विवेक है। यह सबलटर्न चेतना की कृति है। उपन्यास में आया 'बनकट' लोकतंत्र के क्षरण का प्रतीक है।
'समकालीन जनमत' के प्रधान संपादक रामजी राय ने कहा कि उपन्यास के मूल में आजादी के बाद का जीवन है। इसमें समय, जीवन और संघर्ष की धारा है। उपन्यास इस निष्कर्ष तक पहुंचता है कि कानून का काम गरीबों को तबाह करने तथा अमीरों को चैन की नींद सुलाना है। कार्यक्रम को संबोधित करते हुए प्रो रमेश दीक्षित ने कहा कि शिवमूर्ति जी का उपन्यास गोदान, मैला आंचल, राग दरबारी आदि हिंदी उपन्यासों की कतार में रखा जाना चाहिए बल्कि यह इनके आगे जाता है। शोषण व दमन को कानून ने वैधता प्रदान किया है। कानून के शासन की सच्चाई को सामने लाता है। गांव समाज के संबंधों और अन्तरविरोधों को उपन्यास सामने लाता है। इसमें बदलते हुए गांव समाज को उपन्यास में सहजता सरलता से प्रस्तुत किया गया है। कवि व संस्कृतिकर्मी ब्रजेश यादव ने 'अगम बहै दरियाव' में प्रस्तुत लोकगीतों को प्रस्तुत किया। इस मौके पर बड़ी संख्या में शहर और बाहर से लेखक, संस्कृति कर्मी और साहित्य सुधी श्रोता उपस्थित थे।