लखनऊ । वरिष्ठ साहित्यकार शकील सिद्दीक़ी द्वारा संपादित कहानी संकलन ‘कारख़ानों में ज़िन्दगी’ (औद्योगिक परिवेश की कहानियाँ) का लोकार्पण तथा परिचर्चा का आयोजन अनुराग लाइब्रेरी में हुआ। कार्यक्रम का आयोजन 'प्रत्यूष' ने किया। इस मौके पर वरिष्ठ पत्रकार और कथाकार नवीन जोशी, वरिष्ठ आलोचक एवं कवि कौशल किशोर और लेखक असगर मेहदी के हाथों पुस्तक का लोकार्पण सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम का आरम्भ मई दिवस के शहीदों और कार्ल मार्क्स जन्मदिन पर उन्हें याद करते हुए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के गीत ‘हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे’ की प्रस्तुति के साथ हुआ। इसे ‘प्रत्यूष’ की सांस्कृतिक टोली ने पेश किया। इसके बाद मुअज़्ज़म ख़ान ने संकलन से शकील सिद्दीकी की कहानी ‘देह भंग स्वप्न भंग’ का पाठ किया।
शकील सिद्दीक़ी ने इस संकलन की ज़रूरत और इसे तैयार करने की प्रक्रिया पर बात रखी। उन्होंने कहा कि इस प्रकार का संकलन तैयार करने के लिए उन्हें प्रख्यात कथाकार शेखर जोशी ने प्रेरित किया था। इस संग्रह में कुल सोलह कहानियां हैं जो शेखरजोशी, इसराइल, सतीश जमाली, अब्दुल बिस्मिल्लाह, संजीव, राजेन्द्रराव, प्रहलाद चंद्र दास, नारायण सिंह, अमरीकसिंह दीप, जयनंदन, श्रीनाथ, गोविंद उपाध्याय, रमाकांत शर्मा उद्भ्रांत, अजीत कौर, शेखर मल्लिक एवं संपादक शकील सिद्दीक़ी की कहानियां हैं।
नवीन जोशी, कौशल किशोर तथा असगर मेहदी ने इस संकलन की कहानियों पर विस्तार से चर्चा की जिसमें संकलन की अलग-अलग कहानियों की विशिष्टताओं के साथ ही इस पर भी बात हुई कि देश में औद्योगीकरण के विस्तार के बावजूद साहित्य में मज़दूरों की उपस्थिति कम होती गयी है। ऐसे में यह संकलन एक महत्वपूर्ण ज़रूरत को पूरा करता है। परिचर्चा में प्रतुल जोशी और कात्यायनी ने भी अपनी बात रखी। यह बात भी आई कि किसानों के जीवन पर बहुत सी कहानियाँ और उपन्यास लिखे गए। उसकी तुलना में औद्योगिक श्रमिकों के जीवन पर कम लिखा गया । उन्हीं लेखकों ने अधिक लिखा जो औद्योगिक संस्थानों में कार्यरत थे या उनसे जुड़े थे। इन लेखकों ने औद्योगिक मज़दूरों के जीवन पर कहानी लिखकर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है। वहीं इन पर हिंदी के आलोचकों और चिंतकों ने अपेक्षित ध्यान नहीं दिया। इस मायने में शकील सिद्दीकी का यह कार्य तथा परिकल्पना प्रकाशन द्वारा 'करखानों में ज़िन्दगी ' का प्रकाशन महत्वपूर्ण और जरूरी काम है।
वक्ताओं का कहना था कि नवउदारवाद के वर्तमान दौर में उद्योगों का चरित्र बदला है। श्रमशील समाज का शोषण-उत्पीड़न बढ़ा है। उनके अधिकारों का हनन हुआ है। यह अदृश्य भारत है जो साहित्य से अनुपस्थित है। इसके पीछे क्या कारण है, यह विचार का विषय है । कहीं न कहीं साहित्यकारों के अंदर बढ़ती मध्यवर्गीय मानसिकता है जो श्रमशील समाज से अलगाव का कारण है। कार्यक्रम का संचालन सत्यम ने किया। कार्यक्रम में व्यंगकार अनूप मणि त्रिपाठी, युवा आलोचक आशीष सिंह, कथाकार फरज़ाना मेहदी, राज वर्मा, प्रिया यादव, चित्रकार रामबाबू, पत्रकार संजय श्रीवास्तव के अलावा कई छात्र-युवा और हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड के कुछ पूर्व कर्मचारी भी शामिल रहे।