आरोप है कि उस दौरान अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों और मस्जिदों पर हमले और आगजनी की गई. हालांकि पुलिस और सरकार ने इन घटनाओं को सिरे से खारिज कर दिया. लेकिन सोशल मीडिया पर इन घटनाओं की कथित तस्वीरें वायरल हो गईं. उसके बाद पुलिस ने कई लोगों के खिलाफ झूठी तस्वीरें और वीडियो अपलोड करने के मामले गैर कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत मामला दर्ज किया था. इनमें से कुछ लोगों को गिरफ्तार भी किया गया. राज्य सरकार ने 29 अक्टूबर को आरोप लगाया था कि बाहर से आए निहित स्वार्थ वाले एक समूह ने 26 अक्टूबर की घटना के बाद सोशल मीडिया पर जलती हुई एक मस्जिद की फर्जी तस्वीरें अपलोड करके त्रिपुरा में अशांति पैदा करने और प्रशासन की छवि खराब करने के लिए साजिश रची. उसके बाद बीते महीने त्रिपुरा हिंसा की रिपोर्टिंग कर रहीं दो महिला पत्रकारों समृद्धि सकुनिया और स्वर्णा झा को गिरफ्तार कर लिया गया था. यह गिरफ्तारी विश्व हिंदू परिषद की शिकायत के बाद दर्ज की गई थी. लेकिन त्रिपुरा की एक स्थानीय अदालत ने अगले दिन ही दोनों पत्रकारों को जमानत दे दी. दोनों पत्रकारों को असम के करीमगंज से हिरासत में लिया गया था. गोमती जिले की मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट अदालत ने उनको 15 नवंबर को जमानत दे दी थी. इसके बाद उन्होंने मामले को रद्द करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. उनकी रिहाई के बाद सूचना व सांस्कृतिक मामलों के मंत्री सुशांत चौधरी ने आरोप लगाया था कि दोनों महिला पत्रकार राजनीतिक दल की एजेंट हैं.
मंत्री का कहना था कि दोनों महिला पत्रकारों का मकसद राज्य में अशांति फैलाना था और इसी वजह से उन्होंने फर्जी तस्वीरें और खबरें वायरल की थीं. 'असिहष्णुता का सबूत' दोनों महिला पत्रकारों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 120 बी (आपराधिक साजिश), 153 ए (धार्मिक समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना) और 504 (जानबूझकर अपमान करने के इरादे से शांति भंग करना) के तहत मामला दर्ज किया गया था. प्रेस परिषद से लेकर तमाम मीडिया संगठनों और राजनीतिक दलों ने महिला पत्रकारों की गिरफ्तारी की निंदा की थी. त्रिपुरा में सीपीएम के सचिव जितेंद्र चौधरी ने कहा था, "विश्व हिंदू परिषद के कहने पर किसी को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता. यह गलत व असहिष्णुता का सबूत है." सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले बीते महीने ही त्रिपुरा में सांप्रदायिक हिंसा के मुद्दे पर यूएपीए के तहत दर्ज प्राथमिकी के मामले में वकीलों व पत्रकारों को बड़ी राहत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अगले आदेश तक वकीलों व पत्रकारों पर कठोर कार्रवाई नहीं करने के आदेश दिए थे. अदालत ने उस याचिका पर त्रिपुरा सरकार से जवाब भी मांगा था. उक्त याचिका में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून को भी चुनौती दी गई थी. यह याचिका सुप्रीम कोर्ट के दो वकीलों अंसार इंदौरी व मुकेश और एक पत्रकार ने दाखिल की थी. वकीलों ने स्वतंत्र तथ्य खोजी टीम के सदस्य के तौर पर त्रिपुरा का दौरा किया था जबकि पत्रकार पर उनके एक ट्वीट के लिए मामला दर्ज किया गया है. सुप्रीम कोर्ट का आदेश निजी चैनल और उसकी दो महिला पत्रकारों ने त्रिपुरा पुलिस की कार्रवाई को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी जिसमें पत्रकारों के खिलाफ दायर प्राथमिकी को रद्द करने की मांग की गई थी. इसी पर सुनवाई के बाद डी. वाई.
चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने बुधवार को पत्रकारों के खिलाफ अगले आदेश तक किसी भी तरह की कार्रवाई पर रोक लगाते हुए त्रिपुरा पुलिस से चार सप्ताह के भीतर जवाब मांगा है. सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं के वकील सिद्धार्थ लूथरा ने दलील दी कि पत्रकार इस मुद्दे पर रिपोर्ट कर रहे थे और फिर प्राथमिकी दर्ज की गई. उन्होंने बताया कि पत्रकारों को जमानत दे दी गई है. लेकिन उसके बाद भी एक और प्राथमिकी दर्ज की गई. लूथरा का कहना था, यह वास्तव में असहनीय है और अनुचित है. गृह मंत्री का बयान केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने त्रिपुरा की हिंसा पर इस महीने की शुरुआत में राज्यसभा में अपने लिखित बयान में कहा था कि इस मामले में राज्य सरकार ने अब तक 15 केस दर्ज किए हैं. उन्होंने कहा कि राज्य सरकार ने हिंसा को रोकने के लिए लगातार कदम उठाए. पुलिस बल को प्रभावित क्षेत्रों में तैनात किया गया और गश्त बढ़ा दी गई. इसके साथ ही धार्मिक स्थलों पर सुरक्षा भी बढ़ाई गई. केंद्र और राज्य सरकार सांप्रदायिक हिंसा के आरोपों को लगातार खारिज करती रही हैं. उल्टे इसकी रिपोर्ट करने वालों या सोशल मीडिया पर संबंधित खबरें, तस्वीरें और वीडियो डालने वालों के खिलाफ भी मामले दर्ज किए जा चुके हैं..